जकी नूर अजीम नदवी
केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के संबंध में प्रस्तुत शपथपत्र में तलाक के मसाइल को महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव करार दिया गया। तो दूसरी ओर लॉ कमीशन ने कामन सिविल कोड के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए एक सवाल नामा तैयार किया और इसके संबंध में जनता की राय जानने के नाम पर एक सोचा समझा अभियान छेड़ दिया.जिस पर विद्वानों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बाहमी सुझावों और काफी गंभीर विचार विमर्श के बाद निष्कर्ष निकाला कि समस्या एक बार में तीन तलाक के लागू करने या केवल तीन तलाक के लागू करने का नहीं बल्कि असल समस्या तो मुस्लिम पर्सनल ला के संरक्षण का (जिसकी संविधान में गारंटी दी गई है) और इस में बेजा सरकारी हस्तक्षेप का है। और इसी कारण किसी पंथ मतभेद के बिना पूरा राष्ट्र बोर्ड के पीछे खड़ा हो गया,और उस की अपील पर हर तरह के संघर्ष के लिए मानसिक तौर पर तैयार होने की घोषणा कर दी।
बेशक यह स्थिति भारतीय मुसलमानों के लिए काफी आशाजनक है,लेकिन इस एकता और सहमती को बनाए रखने और इससे आवश्यक उद्देशों को प्राप्त करने और सरकार को अपनी असली शक्ति की भावना बताने के साथ सबसे बड़ी जरूरत इस्लाम के संबंध से उत्पन्न होने वाली गलतफहमियों को इस्लामी शिक्षाओं की रोशनी में दूर करने और उसके संबंध में बेजा परोपेगंडे का इल्मी व अमली जवाब देने की है। और इसके लिए इस बात का ध्यान जरूरी है कि सारा जोर केवल तीन तलाक को उचित और वैध ठहराने के बजाए यह भी होना चाहिए कि सरकार और अन्य देशवासी भी यह समझ सकें कि इस्लामी पारिवारिक प्रणाली कितनी बड़ी रहमत और किस कदर ऑजीम नेअमत है । और यह बात पूरे देश को मालूम हो जाए कि इस्लाम ने खुद तलाक को कितना कठिन बनाया,तलाक को नापसंदीदा, हलाल चीजों में सबसे बुरा बताया। तलाक से पहले तहकीम को कुरान में किस महत्व के साथ बताया गया, वास्ताविक कुरानी तरीका तलाक किया है। और यह भी स्पष्ट कर दिया कि जिन पंथों में तीन या अधिक शब्द से तलाक को मान लिया जाता है उन के यहां भी अगर तलाक देने वाले का इरादा एक तलाक देना है तो सिर्फ एक तलाक ही मान्य होगी , और इसके लिए शरीयत बताने के अभियान को प्रभावी बनाने की जरूरत है, क्योंकि अधिकतर लोग तलाक व्यवस्था से अज्ञानता के कारण तीन तलाक देते हैं।
सरकार ने अपने शपथपत्र में इस को लिंग के आधार पर भेदभाव बताया है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि प्रकृति ने पुरुषों और महिलाओं में रचनात्मक दृष्टि से अंतर रखा है,अंगों की संरचना में अंतर,रंग व रूप में अंतर,शारीरिक शक्ति में अंतर,स्वभाव और दोनों की पसंद और नापसंद में भी असमानता है,फिर उसी तरह प्रजनन और बच्चों के प्रशिक्षण में भी दोनों की भूमिका अलग हैं,तो यह क्यों संभव हो सकता है कि समाज में दोनों के कर्तव्यों और जिम्मेदारयां और अधिकार भी अलग न हों। और खुद हमारे देश के संविधान में पुरुष और महिलाओं के बालिग होने और शादी की उम्र में फर्क क्यों रखा गया कि लड़कों की उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 साल निर्धारित की गई आखिर क्या कारण है कि पुरुषों के तलाक देने पर जीवन भर खर्चे की मांग और इस पर हाय तोबा ,और औरत द्वारा खुला लेने पर उसकी पिछली दायित्वों को आजीवन जारी रखने पर मौन व्रत?किसी महिला के विधवा होने पर विभिन्न प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों द्वारा जारी महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं में विधवा पेंशन का प्रबंध,लेकिन अगर किसी की पत्नी का निधन हो तो उससे सहानुभूति का झूठा नाटक भी नहीं,क्या यह लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार का यह हलफनामा एक कानूनी आवश्यकता के बजाय उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में आने वाले चुनाव के लिए एक सोची समझी योजना का हिस्सा हो, और इसका उद्देश्य एक साथ मुसलमानों के पारिवारिक मुद्दों में हस्तक्षेप के साथ-साथ इसके बहाने उन्हें उत्तेजित करना और उन्हें सड़कों पर उतार कर प्रतिक्रिया के रूप में मुस्लिम विरोधी मतदाताओं को एकजुट करना हे.या केंद्र सरकार का उद्देश्य वास्तव में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक व्यवस्था और उस में दिए गए अधिकार को खत्म करके समान नागरिक संहिता के लिये माहौल अनुकूल करना है, यदि ऐसा है तो यह भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों का उल्लंघन और देश को एक और विभाजन की ओर ले जाने का बेहद निंदनीय प्रयास है, और वास्तव में तलाक और हलाला तो सिर्फ एक बहाना है, क्योंकि अगर वास्तव में वे महिलाओं और उनके साथ होने वाले अत्याचारों को लेकर चिंतित होते तो देश में उन पर होने वाले अत्याचार , प्रति दिन सुर्खियों बटोरने वाले बलात्कार , घरेलू हिंसा, दहेज और इस कारण से शादी में आने वाली समस्याओं और कभी कभी तो आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाली घटनाओं पर विचार करके इस संबंध में परभावी कानून बनाते ।
जहां तक तलाक द्वारा पत्नी को तुरंत अलग कर देने की बात है तो कभी कभी तत्काल तलाक दोनों पक्षों के लिए किसी रहमत से कम नहीं और शायद यही कारण है कि हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 14 जिसमें शादी के बाद तीन साल तक किसी पक्ष को तलाक का केस करने की अनुमति नहीं दी गई थी, 1976 में इसमें संशोधन कर धारा 13 बी के द्वारा यह गुंजाइश निकाली गई कि दोनों पक्ष एक साल तक अलग रहने की स्थिति में अदालत से अलगाव की अपील कर सकते हैं ।
जहां तक बहु विवाह और पहली पत्नी की उपस्थिति में दूसरे विवाह पर आपत्तियों का मुद्दा है तो इस संबंध में हमें हिंदू मैरिज एक्ट में बहुविवाह की अनुमति न होने के कारण होने वाली अत्याचारों को समझने के लिए इन मामलों को अवश्य सामने रखना चाहिए कि जब एक मर्द ने अपनी पहली शादी छिपाकर दोसरी महिला से शादी की और जब इस दूसरी पत्नी पर होने वाले अत्याचारों का मामला अदालत के सामने पहुंचा तो पति ने इन अत्याचारों के लिए हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार उसे दूसरी पत्नी मानने से इनकार कर दिया और झूठ, धोखाधड़ी , धोखा, चरित्र हनन बल्कि अत्याचार और दुर्व्यवहार और हर तरह के अपराध के सबूत के बावजूद वह इस सजा से इस लिए बच गया कि यह उसकी दूसरी पत्नी थी, और वह पीड़ित महिला मजलूमियत की चक्की में पिस्ती रही लेकिन कानून ने उस को न्याय नहीं दिया।
पूर्व अध्यापक नदवा कालेज लखनऊ-पूर्व अस्टिंट जनरल सेकेटरी सिकरेट्री जमीयत अहले हदीस पूर्वी यू0पी0-zakinoorazeem@gmail-com