अभी कुछ दिन पहले आपने पढ़ा होगा कि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने बर्फ जैसे ठण्डे पानी में डुबकी लगायी थी। यह उन्होंने अपने देश की एक परम्परा के रूप में स्नान किया था। इस प्रकार स्नान का आध्यात्मिक महत्व दुनिया भर में है। भारत में पवित्र नदियों में स्नान पुण्य माना जाता है। माघ के महीने में इसे और ज्यादा पुण्य प्रद मानते हैं। तीन नदियों के पवित्र संगम इलाहाबाद में पूरे माघ महीने पर श्रद्धालु संगम तट पर वास करके त्रिवेणी में स्नान करते हैं और वहां साधु-संतों के प्रवचन सुनते हैं। माघी पूर्णिमा को वहां श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में पहुंच ाती है। भारत की धार्मिक परम्पराओं का किसी न किसी रूप में विशेष महत्व होता है।
यहां पर हम कुछ परम्पराओं के बारे में बता रहे हैं-
हिन्दू धर्म में पूजा के समय कुछ बातें अनिवार्य मानी गई है। जैसे प्रसाद, मंत्र, स्वास्तिक, कलश, आचमन, तुलसी, मांग में सिंदूर, संकल्प, शंखनाद और चरण स्पर्श। इनका पौराणिक महत्व होता है। कुछ लोग सवाल करते हैं कि प्रसाद क्यों चढ़ाया जाता है? गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे मनुष्य! तू जो भी खाता है अथवा जो भी दान करता है, होम-यज्ञ करता है या तप करता है, वह सर्वर्पथम मुझे अर्पित कर। प्रसाद के जरिए हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इसके अलावा यह उसके प्रति आस्थावान होने का भी भाव है। इसी प्रकार मंत्रों का महत्व है। देवता मंत्रों के अधीन होते हैं। मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न शब्द- शक्ति संकल्प और श्रद्धा बल से द्विगुणित होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना से संपर्क करती है और तब अंतरंग पिंड एवं बहिरंग ब्रह्मांड एक अद्भुत शक्ति प्रवाह उत्पन्न करते हैं, जो सिद्धियां प्रदान करती हैं। पूजा-पाठ के समय हम स्वास्तिक का निशान बनाते हैं। पूजन में स्वस्तिक का महत्व भी है। गणेश पुराण में कहा गया है कि स्वास्तिक चिह्र भगवान गणेश का स्वरूप है, जिसमें सभी विघ्न-बाधाएं और अमंगल दूर करने की शक्ति है। आचार्य यास्क के अनुसार स्वास्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। इसे धन की देवी लक्ष्मी यानी श्री का प्रतीक भी माना गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा में स्वास्तिक को सूर्य का प्रतीक भी माना गया है, जबकि अमरकोश में इसे आशीर्वाद, पुण्य, क्षेम और मंगल का प्रतीक माना गया है। इसकी मुख्यत: चारों भुजाएं चार दिशाओं, चार युगों, चार वेदों, चार वर्णों, चार आश्रमों, चार पुरुषार्थों, ब्रह्माजी के चार मुखों और हाथों समेत चार नक्षत्रों आदि की प्रतीक मानी जाती है। भारतीय संस्कृति में स्वास्तिक को कल्याणकारी माना गया है। सर्वत्र यानी चतुर्दिक शुभता प्रदान करने वाले स्वास्तिक में गणेशजी का निवास माना जाता है। यह मांगलिक कार्य होने का परिचय देता है।
इसी प्रकार मांगलिक कार्यों में कलश की स्थापना होती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का र्पतीक माना गया है। देवी पुराण के अनुसार मां भगवती की पूजा-अर्चना करते समय सर्वर्पथम कलश की स्थापना की जाती है। नवरात्र पर मंदिरों तथा घरों में कलश स्थापित किए जाते हैं तथा मां दुर्गा की विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। मानव शरीर की कल्पना भी मिट्टाी के कलश से की जाती है। इस शरीररूपी कलश में र्पाणिरूपी जल विद्यमान है। जिस र्पकार र्पाणविहीन शरीर अशुभ माना जाता है, ठीक उसी र्पकार रिक्त कलश भी अशुभ माना जाता है। इसी कारण कलश में दूध, पानी, अनाज आदि भरकर पूजा के लिए रखा जाता है। धार्मिक कार्यों में कलश का बड़ा महत्व है। सवाल उठता है कि आचमन तीन बार ही क्यों? वेदों के मुताबिक धार्मिक कार्यों में तीन बार आचमन करने को प्रधानता दी गई है। कहते हैं कि तीन बार आचमन करने से शारीरिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है और अनुपम अदृृश्य फल की प्राप्ति होती है। इसी कारण प्रत्येक धार्मिक कार्य में तीन बार आचमन करना चाहिए। पूजा-पाठ में तुलसी दल का प्रयोग किया जाता है। देवताओं को प्रिय तुलसी दल औषधीय पौधा है। जो व्यक्ति र्पतिदिन तुलसी का सेवन करता है, उसका शरीर अनेक चंर्दायण व्रतों के फल के समान पवित्रता र्पाप्त कर लेता है। जल में तुलसीदल (पत्ते) डालकर स्नान करना तीर्थों में स्नान कर पवित्र होने जैसा है और जो व्यक्ति ऐसा करता है वह सभी यज्ञों में बैठने का अधिकारी होता है।
इसी प्रकार विवाहिताएं मांग में सिंदूर सजाती हैं। मांग में सिंदूर सजाना सुहागिन स्त्रियों का र्पतीक माना जाता है। यह जहां मंगलदायक माना जाता है, वहीं इससे इनके रूप-सौंदर्य में भी निखार आ जाता है। मांग में सिंदूर सजाना एक वैवाहिक संस्कार भी है। शरीर-रचना विज्ञान के अनुसार सौभाग्यवती स्त्रियां मांग में जिस स्थान पर सिंदूर सजाती हैं, वह स्थान ब्रह्मरंध्र और अहिम नामक मर्मस्थल के ठीक ऊपर है। स्त्रियों का यह मर्मस्थल अत्यंत कोमल होता है। इसकी सुरक्षा के निमित्त स्त्रियां यहां पर सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर में कुछ धातु अधिक मात्रा में होता है। इस कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं और स्त्री के शरीर में विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है।
धार्मिक कार्यों को श्रद्धा-भक्ति, विश्वास और तन्मयता के साथ पूर्ण करने वाली धारण शक्ति का नाम ही संकल्प है। दान एवं यज्ञ आदि सद्कर्मों का पुण्य फल तभी र्पाप्त होता है, जबकि उन्हें संकल्प के साथ पूरा किया गया हो। कामना का मूल ही संकल्प है और यज्ञ संकल्प से ही पूर्ण होते हैं। इसी तरह धार्मिक कार्यों में शंखनाद किया जाता है तो उसका ध्वनि शास्त्र से संबंध है।
अथर्ववेद के मुताबिक शंख अंतरिक्ष, वायु, ज्योतिर्मंडल और सुवर्ण से संयुक्त होता है। शंखनाद से शत्रुओं का मनोबल निर्बल होता है। पूजा-अर्चना के समय जो शंखनाद करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान श्रीहरि के साथ आनंदपूर्वक रहता है। इसी कारण सभी धार्मिक कार्यों में शंखनाद जरूरी है। इस प्रकार भारतीय पूजा-पाठ में सभी क्रियाएं विशेष औचित्य रखती हैं। (हिफी)