संजोग वॉल्टर.भारतीय उप महाद्वीप में मसीहत आई इसके इतिहास का जिक्र फिर कभी ,फ्रांसीसी आये और अंग्रेज आये,जंगे-ऐ -आज़ादी के नाम बिरसा मुण्डा, विक्टर मोहन जोशी, दीन बंधू चार्ली जैसे कुछ नाम। देश आज़ाद हो गया था कुछ ईसाई थे कुछ रोमन कैथोलिक,इनका कुछ हिस्सा पाकिस्तान चला गया,जहाँ वे लाहौर, क्वेटा में जा बसे और आज भी चूड़े या कमेरे कह जाते हैं। आज़ादी के कई साल तक सब कुछ ठीक चलता रहा। सरकार ने जब दलितों को सुविधाएँ दी तो बहुत से ईसाई फिर से दलित हो गए नौकरी सरकारी मिल गई। बरेली,बदायू,पीलीभीत,शाहजहांपुर,मुरादाबाद,बिजनौर, आदि जिलों से लगभग 65 हज़ार लोगों ने लिखा पढ़ी में ईसाई धर्म को त्याग दिया। उधर फिल्मों में जब भी शराबी,शराब बेचने वाला दिखाया जाता तो उस का नाम माईकल,पासकल होता था विलेन का चमचा रॉबर्ट होता था या मोना डार्लिंग। हीरोइन के बदन पर कपड़ा न हो तो बॉबी,जूली रीटा,मार्गरीटा बनाकर परोसा जाता रहा, और जब कभी दयालु पात्र दिखाया जाना होता था तो रोमन कैथोलिक फादर को दिखते थे और चर्च के नाम पे हमेश कैथेड्रल ही दिखाया जाता रहा, उंगलियो पर गिने जाने वाले किरदार थे जिन्में आंटी डीसा का किरदार 1959 में फिल्म अनारी में ललिता पवार ने निभाया और 1956 फिल्म बूट पोलिश में डेविड ने जॉन चाचा का अमर किरदार निभाया । राजश्री प्रोडक्शन ने फिल्म 1979 में “अंखियो के झरोखों से” बनाई जिसमे रंजीता ने लिली फर्नांडीस का किरदार निभाया लेकिन कपडे नहीं उत्तारे । 1975 में “जूली” और वासु चटर्जी की “बातों बातों में” (1979) और अरविंद जोशी की “अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?” फिल्म “मे्सी साहब” ने भारतीय ईसाईयों का सच्चा खाका दिखाया था.
उस वक़्त के ईसाई और रोमन कैथोलिक ने इन सब का विरोध नहीं किया। 1989 आते आते CCF बंद होने लगा था,कई स्कूल,कॉलेज,बंद होने लगे और हॉस्टल भी। जो जहां था या यू कहे जिसके पास जो भी था वो उसका का मालिक हो गया बाद में लीस डीड करके उस सम्पत्ति को निपटा दिया। ईसाई बोले नहीं कुछ को इनाम मिला कुछ डर गये क्योंकि जिसने खैरात में ज़मीन खरीदी थी वो शहर का जाना माना गुंडा था। रोमन कैथोलिक बोले यह हमारा मामला नहीं है। पूरे भारत में यह खेल आज भी चालू है.विरोध न कल किया था ना आज करेंगे। खैर 1997 के आसपास कई मिशन सामने आये फिर सामने आये उनके बिशप जो आज भी अपना खेल खेल रहें है उनका भी विरोध न कल किया था ना आज करेंगे।
धीरे धीरे सरकारी नौकरीयों में भारतीय मसीहीयोँ का प्रतिशत घटता ही गया। भारतीय मसीहीयोँ के पास दो रास्ते थे टीचिंग या फिर नर्सिंग। इन दोनों ही छेत्रों में भारतीय मसीहियों का अतुलनीय योगदान जो नहीं नाकारा जा सकता है ,पर डॉक्टर,इंजीनियर,पुलिस आदि में प्रतिशत शून्य ही रहा,स्कूलों कालेजों में भारतीय मसीहियों के लिए दरवाजे खुल जा सिम सिम ही रहे। वयापार तो कर नहीं सकते थे,हुनर मंद बनना नहीं चाहा ,सियासत ,में उत्तर भारत में भी पीछे रहे अगर किसी के पास उत्तर भारत में किसी के भी लोकसभा,विधान सभा चुनाव लड़ने की सूची हो भेज सकता है। भले यह चुनाव निर्दल लड़ा हो ? हार जीत तो लगी रही है पर लड़ो तो। …….. चलिए पार्षद,सभासद ही सही कोशिश करने में हर्ज़ ही क्या है? जारी