स्वप्निल संसार। जयंती पर विशेष । पंडित विष्णु नारायण भातखंडे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विद्वान थे। आधुनिक भारत में शास्त्रीय संगीत के पुनर्जागरण के अग्रदूत हैं जिन्होंने शास्त्रिए संगीत के विकास के लिए भातखंडे संगीत-शास्त्र की रचना की तथा कई संस्थाएँ तथा शिक्षा केन्द्र स्थापित किए। इन्होंने इस संगीत पर प्रथम आधुनिक टीका लिखी थी। उन्होने संगीतशास्त्र पर “हिंदुस्तानी संगीत पद्धति” चार भागों में प्रकाशित किया और ध्रुपद, धमार, तथा ख्यात का संग्रह करके “हिंदुस्तानी संगीत क्रमीक” ग्रंथ के छह भाग।
इनका जन्म बम्बई (अब महाराष्ट्र ) प्रान्त के बालकेश्वर ग्राम में 10 अगस्त, 1860 को हुआ। इनके माता-पिता संगीत के विशेष प्रेमी थे, अतः बालकाल्य से ही इन्हें गाने का शौक हो गया। कहा जाता है कि माता से सुने गीतों को वे ठीक उसी प्रकार नकल करके गा देते थे। इतने छोटे बालक की संगीत में विशेष रुचि देख कर उनके माता-पिता को अनुभव हुआ कि इस बालक को संगीत की ईश्वरीय देन है। इसलिए उन्होंने उसकी उचित शिक्षा की व्यवस्था की।
संगीत का अंकुर तो उनके हृदय में बाल्य-काल से था ही, कुछ बड़े होने पर इनको भारतीय संगीत कला के प्रसिद्ध कलाकारों को सुनने का भी अवसर प्राप्त हुआ, जिससे वे बहुत प्रभावित हुए और सोई हुई संगीत-जिज्ञासा जाग उठी। इसके बाद इन्हें संगीत कला को अधीक गहराई से जानने की इच्छा हुई। इसलिए इन्होंने मुंबई आकर ‘गायक उत्तेजन मंडल’ में कुछ दिन संगीत शिक्षा प्राप्त की और कई पुस्तकों का अध्ययन किया।
1907 में इनकी ऐतिहासिक संगीत यात्रा आरंभ हुई। सबसे पहले ये दक्षिण की ओर गए और वहाँ के बड़े-बड़े नगरों में स्थित पुस्तकालयों में पहुंचकर संगीत सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन किया।
वे दक्षिण भारत के अनेक संगीत विद्वानों के साथ संगीत चर्चा में शामिल हुए। वहीं पर इन्हें पं॰ वेंकटमखी के 72 थाटों का भी पहली बार पता चला। इसके बाद पंडित जी ने उत्तरी तथा पूर्वी भारत की यात्रा की। इस यात्रा में उन्हें उत्तरी संगीत-पद्धति की विशेष जानकारी हुई। विविध कलावंतों से इन्होंने बहुत से गाने भी सीखे और संगीत-विद्वानों से मुलाकात करके प्राचीन तथा अप्रचलित रागों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी प्राप्त की। इसके बाद इन्होंने विजयनगरम्, हैदराबाद, जगन्नाथपुरी, नागपुर और कलकत्ता की यात्रायें कीं तथा 1908 में केंद्रीय प्रान्त (अब मध्य प्रदेश )और संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) के विभिन्न नगरों का दौरा किया।
देश भर के राजकीय, देशी राज्यांतर्गत, संस्थागत, मठ-मंदिर-गत और व्यक्तिगत संग्रहालयों में हस्तलिखित संगीत ग्रंथों की खोज और उनके नामों का अपने ग्रंथों में प्रकाशन, देश के अनेक हिंदू मुस्लिम गायक वादकों से लक्ष्य-लक्षण-चर्चा-पूर्वक सारोद्धार और विपुलसंख्यक गेय पदों का संगीत लिपि में संग्रह, कर्णाटकीय मेलपद्धति के आदर्शानुसार राग वर्गीकरण की दश थाट् पद्धति का निर्धारण। इन सब कार्यो के निमित्त भारत के सभी प्रदेशों का व्यापक पर्यटन किया। संस्कृत एवं उर्दू, फ़ारसी, संगीत ग्रंथों का तत्तद्भाषाविदों की सहायता से अध्ययन और हिंदी अंग्रेजी ग्रंथों का भी परिशीलनकर। अनेक रागों के लक्षणगीत, स्वरमालिका आदि की रचना और तत्कालीन विभिन्न प्रयत्नों के आधार पर सरलतानुरोध से संगीत-लिपि-पद्धति का स्तरीकरण किया।
मैरिस कॉलेज (वर्तमान भातखंडे संगीत विद्यापीठ, लखनऊ) माधव संगीत विद्यालय, ग्वालियर, एवं संगीत महाविद्यालय, बड़ोदा, की स्थापना अथवा उन्नति में प्रेरक सहयोगी रहे। 1916 में बड़ोदा में देश भर के संगीतज्ञों की विशाल परिषद् का आयोजन किया। तदनंतर दिल्ली, बनारस तथा लखनऊ में संगीत परिषदें आयोजित हुई।
संगीत कला का विशेष ज्ञान प्राप्त करने एवं उसके प्रचार करने के लिए उन्होंने विविध स्थानों में संगीत सम्मेलन कराने का निश्चय किया। इसके लिए इन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी लेकिन सफलता भी मिली। सन् 1916 में इन्होंने बड़ौदा में एक विशाल संगीत सम्मेलन आयोजित किया, जिसका उद्घाटन महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ। इस सम्मेलन में संगीत के बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा संगीत के अनेक तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक आपस में विचार विनिमय हुए और एक “आल इंडिया म्यूजिक एकेडमी” की स्थापना का प्रस्ताव पास हुआ इसके बाद दूसरा सम्मेलन दिल्ली में, तीसरा बनारस में और चौथा लखनऊ में आयोजित किया गया एवं अन्य कई स्थानों में भी संगीत सम्मेलन हुए।
संगीत की उन्नति और प्रचार के लिये संगीत सम्मेलन आयोजित करने के साथ ही इन्होंने कई जगह संगीत महाविद्यालय भी स्थापित किए। इनमें लखनऊ का मैरिस म्यूजिक कालेज प्रमुख है यह संस्थान अब भातखंडे संगीत विद्यापीठ के नाम से जाना जाता है। 1933 से, जब इन पर रोगों का आक्रमण हुआ, इनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। तीन साल की लम्बी बीमारी के बाद 19 सितम्बर, 1936 को इनका निधन हो गया।