स्वप्निल संसार। स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे ले कर रहूंगा. आजादी के परवानों के लिए ये महज कुछ शब्द भर नहीं थे बल्कि एक जोश, एक जुनून था जिसके जरिए लाखों लोगों ने अपनी कुर्बानियां देकर मां भारती को अंग्रेजों से आजादी दिलाई. साथ ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जनक, समाज सुधारक, राष्ट्रीय नेता, भारतीय इतिहास, संस्कृत, हिन्दू धर्म, गणित और खगोल विज्ञान के विद्वान थे बाल गंगाधर तिलक.
23 जुलाई 1856 को रत्नागिरी के ब्राह्मण परिवार में जन्में तिलक ने अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी. ये आधुनिक कॉलेज शिक्षा पाने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में थे. बाल गंगाधर तिलक समाज सुधारक और स्वतंत्रता के कार्यकर्ता थे. आधुनिक भारत के प्रधान आर्किटेक्ट में से एक थे. उनके अनुयायियों ने उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी जिसका अर्थ है जो लोगों द्वारा प्रतिष्ठित है.
तिलक ने मराठी में ‘मराठा दर्पण’ और केसरी नाम से दो दैनिक अखबार शुरू किए, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया. तिलक अखबार में अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की खूब आलोचना करते थे. अखबार केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया. भारत के लोगों की हालात में सुधार करने और उन्होंने पत्रिकाओं का प्रकाशन किया. वह चाहते थे कि लोग जागरुक हो. देशवासियों को शिक्षित करने के लिये शिक्षा केंद्रों की स्थापना की.
बालगंगाधर को 3 जुलाई 1908 के दिन देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था. दरअसल अपने अखबार केसरी में दो क्रांतिकारियों का बचाव करने और स्वराज का आह्वाहन करने के कारण गिरफ्तार किया गया. उन्हें 6 साल के लिए बर्मा के मंडले जेल भेज दिया गया और साथ ही एक हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया गया. जेल में रहने के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन को लेकर उनके विचारों ने आकार लिया और साथ ही उन्होंने 400 पन्नों की किताब गीता रहस्य भी लिख डाली. जब वे रिहा हुए तो उन्होंने होम रूल लीग की शुरुआत की और नारा दिया ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा.’
1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसकी वजह से उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) स्थित मांडले की जेल भेज दिया गया. जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गये थे. तिलक डबल ग्रेजुएट थे, यदि चाहते तो आसानी से कोई भी सरकारी नौकरी कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपनी पहली प्राथमिकता देश सेवा को दी. 1 अगस्त 1920 में बम्बई अब मुबंई में उनका देहांत हो गया.