प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकलांगजनों को दिव्य अंग वाला बताते हुए न सिर्फ उनका सम्मान बढ़ाया था बल्कि एक वास्तविकता की तरफ भी लोगों का ध्यान खींचा था। एक ऐसी सच्चाई जिसे जानते तो बहुत से लोग थे लेकिन खुलकर कहते नहीं थे। इसका एक कारण तो यही था कि विकलांगजनों को उनके घर-परिवार में ही दोयम दर्जे का मान लिया जाता है। किसी का पैर खराब हो तो उसे उसके घर वाले ही लंगड़ा कहने लगते हैं। यह सच्चाई है जिसे स्वीकारना ही पड़ेगा। इस प्रकार गांव-घर में ही विकलांगजनों को अपने प्रति उपेक्षा का अहसास करा दिया जाता है। इसके बाद स्कूल, कालेज और यदि नौकरी मिल गयी तो दफ्तर में भी प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष रूप से विकलांगजनों को उनके उस अंग विशेष के चलते अप्रिय संबोधन मिलते ही रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकलांगजनों के प्रति उस अवधारणा को बदलने का प्रयास किया और एक ऐसी सच्चाई को सामने रखा जिसका कोई खंडन भी नहीं कर सकता था। उन्होंने कहा था कि ईश्वर जब किसी का एक अंग कमजोर कर देता है तो उसके किसी अन्य अंग में कई गुनी क्षमता पैदा कर देता है। इसलिए उनका वह अंग दिव्य माना जाना चाहिए और विकलांग की जगह उन्हें दिव्यांग संबोधन दिया जाना चाहिए। दिव्यांगजनों ने रियो के पैरालंपिक खेलों में यह साबित भी कर दिया।
अभी कुछ दिन पहले ही ब्राजील के नगर रियो में सम्पन्न हुए विश्व प्रतिष्ठा के ओलंपिक खेलो में एक हफ्ते तक भारत खाता ही नहीं खोल पाया था। हमसे छोटे-छोटे देश स्वर्ण और रजत तमगों से अपना नाम रोशन कर रहे थे। कई दिन बाद हरियाणा की साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य पदक दिलाकर भारत का नाम मेडल की सूची में दर्ज कराया। खुशी मनाने का अवसर भी था क्योंकि ओलंपिक-2016 के खेलों में पहली बार तिरंगा झंडा फहराया गया था। उसी दिन यह तय हो गया था कि बैडमिंटन में पीवी सिंधु को रजत या स्वर्ण पदक मिल सकता है। सेमीफाइनल में जीत के बाद रजत पदक पक्का था। फाइनल में वह पराजित हो गयीं, इसलिए उन्हें रजत पदक मिला और भारत का तिरंगा एक बार फिर रियो में लहराया गया। इसी के साथ रियो ओलंपिक में भारत के पदकों पर विराम भी लग गया। भारत से लगभग डेढ़ सौ खिलाडिय़ों के दल में सिर्फ दो महिलाएं ही पदक दिला सकीं जब पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। खेल जगत ही नहीं सभी क्षेत्रों में यही धारणा है।
अब पैरालिंपिक भी रियो में ही सम्पन्न हो रहा है। इस ओलंपिक में सिर्फ दिव्यांगजन खिलाड़ी ही प्रतिभाग करते हैंं। खेल के शुरू में ही भारत के दो दिव्यांग खिलाडिय़ों ने देश की झोली में दो पदक डाल दिये। हाई जम्प (ऊंची कूद) में तमिलनाडु के मरियप्पन ने सभी प्रतिद्वन्द्वियों को पीछे करते हुए स्वर्ण पदक जीता। उन्होंने 1.89 मीटर की ऊंची छलांग लगाकर साबित कर दिया कि उनका यह दिव्यांग सही-सलामत अंगों वालों से ज्यादा क्षमता रखता है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा निवासी वरुण भाटी ने भी इसी स्पद्र्धा (हाई जम्प) में कांस्य पदक हासिल कर भारत का नाम रोशन किया। तमिलनाडु के सेलम जिले में रहने वाले मरियप्पन के साथ महज पांच साल की उम्र में एक हादसा हुआ था। वह अपने घर के बाहर खेल रहे थे। तभी एक बस ने उन्हें टक्कर मार दी। बस का ड्राइवर बताते हैं नशे में था। मरियप्पन को पांच साल की उम्र में ही एक टांग गंवानी पड़ी। मरियप्पन का परिवार किराये के मकान में रहता है। उसकी मां सब्जी बेचती है और मजदूरी करती है। मरियप्पन के इलाज के लिए तीन लाख का कर्ज लिया था। जो आज भी चुकता किया जा रहा है। न्याय व्यवस्था की भी विडम्बना देखिए कि उनका परिवार उस ट्रांसपोर्ट कम्पनी के खिलाफ अदालती लड़ाई अब तक लड़ रहा है लेकिन न्याय नहीं मिल पाया। अब पैरालिंपिक में इतनी ख्याति मिलने के बाद शायद उसके मुकदमे की फाइल भी आगे खिसके। मरियप्पन के गोल्ड मेडल जीतने पर केन्द्र सरकार ने 75 लाख रुपये और तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने 2 करोड़ रुपये देने की घोषणा की है। इससे उनको तीन लाख के कर्ज से तो मुक्ति मिल ही जाएगी लेकिन परिवार ने और स्वयं मरियप्पन ने जो पीड़ा झेली है, उसकी भरपाई कौन करेगा? उसके पिता अपने बेटे की विकलांगता और घर की दुर्दशा सहन नहीं कर सके थे और लगभग 10 वर्ष पहले ही घर छोड़कर चले गये थे, उन्हें कौन वापस लाएगा।
उत्तर प्रदेश के कांस्य पदक जीतने वाले दिव्यांग वरुण भाटी को बचपन में ही पोलियो हो गया था। इससे उनका एक पैर खराब हो गया। वरुण के पिता श्री हेम सिंट भाटी नहीं चाहते थे कि उनका बेटा खेल की दुनिया में जाए क्योंकि उसका एक पैर ही खराब हो गया था लेकिन वरुण को खेलों से बहुत प्यार था। वो हाईस्कूल स्तर की पढ़ाई तक बास्केट बाल में पारंगत हो गया। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में उसने कई स्वर्ण पदक जीते। एक पैर की विकलांगता उसके लिए कोई बाधा ही नहीं बन सकी। नेशनल लेवल की इंडियन स्कूल चैम्पियनशिप में उसे दिव्यांग होने के कारण प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया। यह खेल जगत की शर्मनाक स्थिति ही कही जाएगी कि जिस दिव्यांग खिलाड़ी ने स्टेट स्तर पर कई स्वर्ण पदक जीते, उसे राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में खेलने का अवसर ही नहीं दिया गया। दिव्यांग वरुण पर उस समय क्या बीती होगी, यह तो वहीं बता सकता है लेकिन उसके खेल के प्रति जज्बे को सलाम करना ही होगा कि बास्केट बाल प्रतियोगिता में बाहर किये जाने के बाद उसने ऊंची कूद को अपना खेल बनाया। यह सलाह उसके कोच मनीष तिवारी ने दी थी। वरुण भाटी ऊंची कूद का अभ्यास करने लगा और उसका नतीजा २०१६ के पैरालिंपिक में देखने को मिला।
दिव्यांग खिलाडिय़ों के लिए पैरालिंपिक खेलों का आयोजन ओलंपिक खेलों के तुरन्त बाद उसी मैदान पर किया जाता है। इस बार रियो के मैदान में लगभग 4300 पैरा एथलीट भाग ले रहे हैं। इससे पूर्व लंदन ओलंपिक में (2012) भारत के 10 खिलाडिय़ों ने भाग लिया था और एक रजत पदक पाया था। खेल मंत्रालय की नकद पुरस्कार योजना के तहत मरियप्पन को 75 लाख रुपये और वरुण भाटी को 30 लाख रुपये दिये जाएंगे। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने अपने राज्य के इस दिव्यांग खिलाड़ी के शौर्य की सराहना करते हुए मरियप्पन थंगावेलू को दो करोड़ रुपये की नकद राशि पुरस्कार के रूप में देने की घोषणा की है लेकिन उन्हें सेलम के प्रशासनिक अधिकारियों से यह भी पूछना चाहिए कि इस दिव्यांग खिलाड़ी के बारे में उन्होंने न्याय दिलाने में कोताही क्यों की? जिस बस ने उसका एक पैर छीन लिया, उस कम्पनी के प्रति कोई एक्शन क्यों नहीं लिया गया। प्रशासन ने यदि इस दिव्यांग खिलाड़ी के प्रति सहानुभूति न सही न्याय ही किया होता, आज उसकी मां सब्जी नहीं बेचती और पिता घर छोड़कर नहीं जाता।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश से इन दोनों खिलाडिय़ों को बधाई दी। उनको अपने इन दिव्यांग खिलाडिय़ों पर गर्व हो रहा है और साथ ही अपनी इस धारणा पर भी कि विकलांगजनों को जब ईश्वर विकलांगता देता है तो उनके एक अंग को दिव्यता भी प्रदान कर देता है। रवीन्द्र जैन दृष्टिबाधित होने के बावजूद एक विश्वविख्यात संगीतकार बने। मरियप्पन और वरुण भाटी ने एक पैर से ही इतनी क्षमता प्रदर्शित कर दी और उसे दिव्य अंग बना दिया। दिव्यांग और महिलाएं दोनों को ही हमारा समाज ‘कमजोर समझता है लेकिन इन्हीं दोनों वर्गों ने पहले ओलंपिक में और फिर पैरालिंपिक में भारत का मान बढ़ाया है। (हिफी)
