जयंती पर विशेष- 11 नवंबर 1926 को इंदौर में जन्मे जॉनी वाकर का असली नाम बदरुद्दीन जमालुदीन काजी था। जॉनी बचपन से ही अपने दोस्तों के बीच चुटकुले सुनाने के लिए मशहूर थे। साल 1942 मे उनका पूरा परिवार बम्बई (मुंबई ) आ गया। जहाँ उनके पिता की सिफारिश पर जॉनी वाकर को बस कंडक्टर की नौकरी मिल गयी। इस नौकरी को पाकर जॉनी काफी खुश हो गए, क्योंकि उन्हें मुफ्त में ही पूरी बम्बई घूमने का मौका मिल जाया करता था। जॉनी वाकर का बस कंडक्टरी करने का अंदाज काफी निराला था। वह सवारियों के संग मस्ती करते और तरह-तरह की आवाजें निकालकर उनका मनोरंजन करते। बलराज साहनी की कार खराब हो गई और वह संयोग से जिस बस में जॉनी वाकर कंडक्टरी करते थे उसी में चढ़ गए। उन्होंने जॉनी के अंदाज को देखा तो वह उनसे काफी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने जॉनी से मिलने को कहा और अपना पता दे दिया। जॉनी जब बलराज साहनी से मिले तो उन्होंने जॉनी को गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी। यही से उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ। 50 से 70 के दशक तक हिंदी सिनेमा पर नजर दौडाएं तो तब की फिल्मों में जॉनी वाकर एक ऐसे अभिनेता के तौर पर नजरों के सामने तैरने लगते हैं, जिन्होंने अपनी अदाकारी से न केवल लोगों को गुदगुदाया, बल्कि उनके चहरे पर मुस्कान भी बिखेरी। जॉनी वाकर ने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन शराबी के किरदार वह इस तरह से निभाते मानों कितनी पी रखी हो।
जॉनी वाकर की बचपन से ही अभिनय की बड़ी तमन्ना थी। इसी के चलते वह बस में ही तरह-तरह के एक्ट सवारियों के बीच किया करते थे। जॉनी को उम्मीद थी कि किसी दिन फिल्म निर्माण से जुड़े किसी शख्स की नजर उन पर पड़ेगी और उनकी किस्मत बदल जाएगी। कुछ महीनों बाद हुआ भी कुछ ऐसा ही, लेकिन इससे पहले लगभग सात-आठ महीने तक जॉनी वाकर को कंडक्टरी कर ही गुजारा चलाना पड़ा। उन्हें फिल्म ‘अखिरी पैमाने’ में एक छोटा-सा रोल भी मिला, लेकिन इससे उन्हें पहचान नहीं मिल सकी। इस फिल्म में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 80 रुपए मिले जबकि बतौर बस कंडकटर उन्हें पूरे महीने के मात्र 26 रुपए ही मिला करते थे।
गुरुदत्त उन दिनों ‘बाजी’ रहे थे। गुरुदत्त ने जॉनी वाकर की प्रतिभा से खुश होकर अपनी फिल्म ‘बाजी’ में काम करने का अवसर दिया। 1951 में प्रदर्शित ‘बाजी’ के बाद जॉनी वाकर बतौर हास्य कलाकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।‘बाजी’ के बाद वह गुरुदत्त के पसंदीदा अभिनेता बन गए। ‘बाजी’ की सफलता के बाद गुरुदत्त उनसे काफी खुश हुए और उन्हें एक कार भेंट की।
‘बाजी के बाद जॉनी वाकर ने गुरुदत्त की कई फिल्मों में काम किया जिनमें ‘आर पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘प्यासा’, ‘चौदहवी का चांद’, ‘कागज के फूल’ जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। गुरुदत्त की फिल्मों के अलावा जॉनी वाकर ने ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘देवदास’, ‘नया अंदाज’, ‘चोरी-चोरी’, ‘मधुमति’, ‘मुगल-ए-आजम’, ‘मेरे महबूब’, ‘बहू बेगम’, ‘मेरे हजूर’ जैसी कई सुपरहिट फिल्मों में अपने अभिनय से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।
नवकेतन के बैनर तले बनी फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ में जॉनी वाकर के चरित्र का नाम ‘मस्ताना’ था। कई दोस्तों ने उन्हें यह सलाह दी कि वह अपना फिल्मी नाम मस्ताना ही रखें, लेकिन जॉनी वाकर को यह नाम पसंद नहीं आया और उन्होंने उस जमाने की मशहूर शराब ‘जॉनी वाकर’ के नाम पर अपना नाम जॉनी वाकर रख लिया। जॉनी वाकर की पॉपुलैरिटी का एक विशेष कारण यह था कि उनकी हर फिल्म में एक या दो गीत उन पर जरूर फिल्माए जाते थे जो काफी लोकप्रिय भी हुआ करते थे। 1956 में प्रदर्शित गुरुदत्त की फिल्म ‘सी.आई.डी.’ में उन पर फिल्माया गाना ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हट के जरा बच के ये है बंबई मेरी जान…’ ने पूरे भारत में धूम मचा दी। इसके बाद हर फिल्म में जॉनी वाकर पर गाने जरूर फिल्माए जाते रहे। यहां तक कहा जाता है कि फाइनेंसर और डिस्ट्रीब्यूटर की यह शर्त रहती कि फिल्म मे जॉनी वाकर पर एक गाना अवश्य होना चाहिए। फिल्म ‘नया दौर’ में उन पर फिल्माया गाना ‘मैं बंबई का बाबू…’ या फिर मधुमति का गाना ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा…’ उन दिनों काफी मशहूर हुआ। गुरुदत्त तो विशेष रूप से जॉनी वाकर के गानों के लिए जमीन तैयार करते थे। फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ का गाना ‘जाने कहां मेरा जिगर गया जी’ या फिर फिल्म ‘प्यासा’ का गाना ‘सर जो तेरा चकराए… ‘ उस दौर में काफी हिट हुआ।
जॉनी वॉकर की शादी नूरजहाँ से हुई थी। जो गुज़रे ज़माने की मशहूर हीरोइन शकीला की बहन थी । इन दोनों की मुलाक़ात 1955 में गुरुदत्त की फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ के सेट पर हुई। जॉनी वॉकर और नूर के तीन बेटियाँ है: कौसर, तसनीम, फ़िरदौस और तीन बेटे है: नाज़िम, काज़िम और नासिर। नासिर एक प्रसिद्ध फ़िल्म और टीवी अभिनेता है।
‘1959 – में फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार हासिल किया था जॉनी वाकर ने – मधुमती के लिए और 1968 मे प्रदर्शित ‘शिकार’ के लिए जॉनी वाकर को सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 70 के दशक मे जॉनी वाकर ने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि फिल्मों मे कॉमेडी का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इसी दौरान ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ में जॉनी वाकर ने एक छोटी-सी भूमिका निभाई। इस फिल्म के एक सीन में वह राजेश खन्ना को जीवन का एक ऐसा दर्शन कराते हैं कि दर्शक अचानक हंसते-हंसते संजीदा हो जाता हैं। जॉनी वाकर ने 29 जुलाई 2003 को इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया था।