पुण्य तिथि पर विशेष। बिमल रॉय हिन्दी फि़ल्मों के महान फि़ल्म निर्देशक थे। हिंदी सिनेमा में प्रचलित यथार्थवादी और व्यावसायिक धाराओं के बीच की दूरी को पाटते हुए लोकप्रिय फि़ल्में बनाने वाले बिमल राय बेहद संवेदनशील और मौलिक फि़ल्मकार थे। बिमल राय का नाम आते ही हमारे जहन में सामाजिक फि़ल्मों का ताना-बाना आँखों के सामने घूमने लगता हैं। उनकी फि़ल्में मध्य वर्ग और गऱीबी में जीवन जी रहे समाज का आईना थी। चाहे वह ‘उसने कहा था हो, ‘परख, ‘काबुलीवाला, ‘दो बीघा ज़मीन, ‘बंदिनी, ‘सुजाता या फिर ‘मधुमती ही क्यों ना हो। एक से बढ़कर एक फि़ल्में उन्होंने फि़ल्म इण्डस्ट्री को दी है।
बिमल राय का जन्म 12 जुलाई 1909 को पूर्व बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के जमींदार परिवार में हुआ था। बिमल ने अपना करियर न्यू थियेटर स्टूडियों, कोलकाता में कैमरामैन के रूप में शुरू किया। वे 1935 में आई के. एल. सहगल की फि़ल्म देवदास के सहायक निर्देशक थे। बिमल राय के मानवीय अनुभूतियों के गहरे पारखी और सामाजिक मनोवैज्ञानिक होने के कारण उनकी फि़ल्मों में सादगी बनी रही और उसमें कहीं से भी जबरदस्ती थोपी हुई या बड़बोलेपन की झलक नहीं मिलती। इसके अलावा सिनेमा तकनीक पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी जिससे उनकी फि़ल्में दर्शकों को प्रभावित करती हैं और दर्शकों को अंत तक बांध कर रखने में सफल होती हैं। शायद यही वजह रही कि जब उनकी फि़ल्में आई तो प्रतिस्पर्धा में दूसरा निर्देशक नहीं ठहर सका। बिमल राय ने अपनी फि़ल्मों में सामाजिक समस्याओं को तो उठाया ही, उनके समाधान का भी प्रयास किया और पर्याप्त संकेत दिए कि उन स्थितियों से कैसे निबटा जाए। ‘बंदिनी और ‘सुजाता फि़ल्मों का उदाहरण सामने है जिनके माध्यम से वह समाज को संदेश देते हैं। देशभक्ति और सामाजिक फि़ल्मों से अपना सफर शुरू करने वाले बिमल राय की कृतियों के विषय का फलक काफ़ी व्यापक रहा और वह किसी एक इमेज में बंधने से बच गए। एक ओर वह सामाजिक बुराई का संवेदना के साथ चित्रण कर रहे थे तो दूसरी ओर उनका ध्यान स्त्रियों के सम्मान और उनकी पीड़ा की तरफ भी था। हिंदी फि़ल्मों में नायक केंद्रित कथानकों का ही ज़ोर रहा है, लेकिन बिमल दा ने उसे भी खारिज कर दिया और नायिकाओं को केंद्रित कर बेहद कामयाब फि़ल्में बनाई। ऐसी फि़ल्मों में मधुमती, बंदिनी, सुजाता, परिणीता बेनजीर, बिराज बहू आदि शामिल हैं।
बिमल राय स्वयं एक प्रतिभाशाली फि़ल्मकार होने के अलावा वे निस्संदेह प्रतिभा के अद्भुत पारखी भी थे जो कि इस बात से प्रमाणित होता है कि मूल रूप से संगीतकार के रूप में ख्यातिप्राप्त सलिल चौधरी के लेखन की ताकत को उन्होंने पहचाना जिसके फलस्वरूप आज भारत के पास दो बीघा ज़मीन जैसा अमूल्य रत्न है। जैसे साहित्य के क्षेत्र में उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के ‘गोदान का नायक ‘होरी अभावग्रस्त और चिर संघर्षरत भारतीय किसान का प्रतीक बन चुका है तो वैसे ही ग्रामीण सामंती व्यवस्था और नगरों के नृशंस पूँजीवाद के बीच पिसते श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि का दजऱ्ा ‘दो बीघा ज़मीन के ‘शम्भू को प्राप्त है।
जिन लोगों को यह भ्रम है कि हाल ही के दिनों में एक अंग्रेज़ द्वारा बनाई गयी एक अति साधारण फि़ल्म के ऑस्कर जीतने के बाद ही वैश्विक पटल पर हिंदी सिनेमा को प्रतिष्ठा मिलने का दौर शुरू हुआ है, उनको इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ‘दो बीघा ज़मीन वर्षों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय फि़ल्म समारोहों में अपना डंका बजा चुकी थी। यदि प्रगतिशील साहित्य की तरह प्रगतिशील सिनेमा की बात की जाए तो बिमल राय निसंदेह इसके पुरोधा माने जायेंगे। बिमल राय की कुछ प्रसिद्ध फि़ल्में निम्न हैं परख दो बीघा ज़मीन बंदिनी सुजाता मधुमती परिणीता बिराज बहू काबुलीवाला उसने कहा था। बिमल राय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए सात बार फि़ल्म फेयर पुरस्कार मिले। इनमें दो बार तो उन्होंने हैट्रिक बनाई। उन्हें 1954 में दो बीघा ज़मीन के लिए पहली बार यह पुरस्कार मिला। इसके बाद 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू के लिए यह सम्मान मिला। तीन साल के अंतराल के बाद 1959 में मधुमती, 1960 में सुजाता और 1961 में परख के लिए उन्हें यह पुरस्कार मिला। इसके अलावा 1964 में बंदिनी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का फि़ल्मफेयर का पुरस्कार मिला। फि़ल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (सात बार) 1954 में दो बीघा ज़मीन के लिए 1955 में परिणीता के लिए 1956 में बिराज बहू के लिए 1959 में मधुमती के लिए 1960 में सुजाता के लिए 1961 में परख के लिए 1964 में बंदिनी के लिए राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार 1954 में योग्यता प्रमाणपत्र ‘दो बीघा ज़मीन 1955 में अखिल भारतीय योग्यता प्रमाणपत्र ‘बिराज बहू 1959 में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फि़ल्म ‘मधुमती 1960 में अखिल भारतीय योग्यता प्रमाणपत्र ‘सुजाता 1963 में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फि़ल्म ‘बंदिनी।
बिमल राय ‘चैताली फि़ल्म पर काम कर ही रहे थे, लेकिन 1966 में 7 जनवरी को मुंबई, में कैंसर के कारण इनका निधन हो गया। बिमल राय भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्होंने फि़ल्मों की जो भव्य विरासत छोड़ी है वह सिनेमा जगत के लिए हमेशा अनमोल रहेगी। एजेंसी