जयंती पर विशेष-ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें ,ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें-अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान ,जिन्हें उनके तख़ल्लुस शहरयार से ही पहचाना जाना जाता है, उर्दू शायरी के दिग्गज थे।अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान का जन्म बरेली में मुस्लिम राजपूत परिवार में हुआ था। 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के व्याख्याता के तौर पर काम शुरू किया। वह यहीं से उर्दू के विभागाध्यक्ष के तौर पर 1996 में सेवानिवृत्त हुए।
शहरयार उर्दू के चौथे ऐसे शायर हैं (फ़िराक, अली सरदार जाफरी और कुर्रतुलऐन हैदर) जिन्हें ‘ज्ञानपीठ अवार्ड’ से नवाजा गया. शहरयार की प्रसिद्धि में चार चाँद लगाने का काम उनकी उन ग़ज़लों ने किया है जो उन्होंने फिल्मों– खासकर ‘उमराव जान’ के लिए लिखीं थीं । फिल्म का असर समाज पर ज्यादा व्यापक पड़ता है इसलिए शहरयार का नाम भी ज्यादा लोगों की जुबान पर चढ़ा । लेकिन शहरयार नहीं चाहते थे कि उनकी पहचान फिल्मी गीतकार के रूप में बने । उन्हें ‘उमराव जान’ के गीतकार के रूप में स्वयं का परिचय देने में परेशानी भी होती थी।शोहरत उनके पांव की जंजीर कभी नहीं बन पाई. वो कहते थे ‘अब जो फिल्में बन रही हैं उसमें पोएट्री कि गुंजाईश नहीं है. वो प्रोज है जो म्यूजिक में किसी तरह फिट की जा रही है. तो उसमें मेरा कोई रोल नहीं बचा है. और मेरा मिजाज ये है कि मैं कॉम्प्रोमाइज नहीं कर सकता.’ ‘उमराव जान के गीतों की जुबान लोगों कि समझ में आती है, गाने सिर्फ गाने नहीं हैं बल्कि फिल्म का हिस्सा हैं. वो बातें, जो डॉयलाग या एक्शन के जरिए फिल्म नहीं कह पाई, उन बातों को गीत के जरिए कहा गया.’उमरावजान की हर गजल अपने आप में एक फिल्म है. दरअसल कम लोग जानते हैं कि इस फिल्म में सिर्फ गीत ही नहीं बल्कि उसकी कहानी उसके डॉयलाग सबपर शहरयार छाए हुए थे. वजह ये थी की अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में शहरयार ने 15 सालों तक ‘उमरावजान’, नावेल को पढ़ाया था. इसलिए उमरावजान खुद शहरयार से बातें करती थीं.इसे हमारे दौर की विडंबना ही कहना चाहिए कि एक बड़े शायर को शोहरत फिल्मों में इस्तेमाल की गई उनकी गजलों से मिली। जबकि वे गजलें एक अरसे से लिख रहे थे। बहरहाल अच्छा शायर इस शोहरत व नाम की परवाह करता तो शायद कुछ और करता शायरी न करता। शहरयार ने शायरी की और हमारे दौर के दर्द, उदासी, खालीपन समेत अनेक चीजों को उसमें पिरोते गए : चमन दर चमन पायमाली रहे हवा तेरा दामन न खाली रहे। जहां मुअतरिफ हो तेरे कहर का अबद तक तेरी बेमिसाली रहे। (पायमाली-बर्बाद हो जाना, मुअतरिफ-प्रशंसक, अबद-अनंत)
शहरयार साहब ने गज़लों से ज्यादा नज़्मो को अपनी शायरी में महत्त्व दिया था, लेकिन लोग उन्हें गज़लकार ही ज्यादा मानते थे। इस संबंध में पूछे जाने पर उन्होंने कहा था- “आमतौर से जब मेरी शायरी पर बात की जाती है तो आम लोग गज़ल को ही सामने रखते हैं… जबकि मैंने नज़्में गज़लों से ज्यादा लिखी हैं और नयी उर्दू शायरी के सिलसिले में मेरा ज़िक्र मेरी नज़्मों के हवालों से ज्यादा किया जाता है।“
शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार (2008) के अलावा साहित्य अकादमी सम्मान(1987), उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी सम्मान (1971), अदबी संगम सम्मान, न्यूयार्क (2000), उत्तर प्रदेश फिल्म क्रिटिक सम्मान (2001), हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट की मानद उपाधि(2010) आदि कई पुरस्कारों और सम्मानों से उन्हें सम्मानित किया गया था। शहरयार के छह से ज्यादा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन,फासले सहित कई फिल्मों के गीत भी लिखे।
शहरयार उन लोगों में से थे जो फिक्र करते थे उसके जिक्र (प्रोपेगंडा) में यकीन नहीं रखते थे. अपने एक इंटरव्यू (शायद ये उनका आखिरी इंटरव्यू था) उन्होंने फरमाईश पर अपना एक ताजा शेर सुनाया था. आज उसे सुनकर ऐसा लगता है जैसे वो अपने चाहने वालों से कुछ कह रहे थे। एक ही धुन है कि इस रात को ढलता देखूं अपनी इन आंखों से सूरज को निकलता देखूं।
शहरयार साहब ने अनगिनत बातें की हैं प्रेम कुमार को दिए साक्षात्कारों में! प्रेम कुमार ने उन साक्षात्कारों को ‘बातों-मुलाकातों में शहरयार’ नाम से संकलित कर दिया है। वैसे तो इस किताब में संकलित तीन लंबे साक्षात्कारों से शहरयार साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व की काफी बातें निकलकर सामने आती हैं, लेकिन 2011 के आठ महीनों की कई बैठकों में कभी किसी, तो कभी किसी मुद्दे पर शहरयार साहब से बात कर तिथिवार जो सामग्री प्रेम कुमार ने प्रस्तुत की है, उसमें शहरयार साहब के जीवन, उनके परिवेश, उनके घर-परिवार, उनके साहित्य आदि की अनेकानेक बातें कभी सायास तो कभी अनायास पाठकों के सामने आ गई हैं। साक्षात्कार करने की प्रेम कुमार की खासियत है कि बहुत कम पूछकर वह किसी से बहुत अधिक कहलवा लेते हैं। प्रेम कुमार की यह खासियत इस किताब में भी बखूवी दिखाई दे जाती है। बहुत ही शालीनता से प्रेम कुमार वैसे सवाल भी पूछ डालते हैं, जिन्हें पूछने में आम-तौर पर किसी को झिझक हो सकती है। मसलन सेक्स, स्त्री-पुरुष संबंध, समलैंगिकता, विवाहेतर संबंध आदि से जुड़े सवाल! जवाब देने वाले शायर शहरयार की ईमानदारी की बात भी कबूल करनी पड़ेगी कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से सवालों के जवाब दिए हैं। अपने बारे में कही उनकी यह बात काबिले गौर है- “सेक्स की जानकारी मुझे बहुत कम उम्र में हो गई थी। ये मेरी बहुत कमजोरी रही। मैं बहुत इमेजिनेटिव था। जिस्म मुझे अट्रेक्ट करता रहा। अच्छी ज़िंदगी गुजारने का बहुत शौक रहा। यही कि अच्छा खाना, अच्छा पहनना, ताश खेलना…! शराब पीना बहुत जल्दी शुरू कर दिया था।“ (पृ.36)
इसी तरह अपनी पत्नी से अलगाव की बात भी वह बड़े आराम से कह जाते हैं। (पृ.75) पत्नी पर बिना किसी दोषारोपण के जिस तरह वह इस हकीकत का बयान करते हैं, वह उनके बड़प्पन का एहसास कराए बिना नहीं रहता। प्रेम कुमार तो उनसे दूसरी शादी के बारे में भी सवाल पूछने से नहीं चूकते! इसके जवाब में वह अपना ही शेर प्रेम कुमार को सुना देते हैं- “बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया/हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया।“
इस किताब को पढ़कर शहरयार साहब के बचपन, घर-परिवार, पिता, बच्चे, मित्र आदि के बारे में पता चलता ही है, धर्म, ईश्वर, आम-आदमी, स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री आरक्षण बिल, विश्वविद्यालय, समकालीन साहित्यकारों, हिन्दी के साहित्यकारों आदि के बारे में भी उनके विचारों का पता चल जाता है। मंचों पर शायरी कम पढ़ने के बारे में भी उनका एक खास तर्क था। मंच पर पापुलर शायरी पढ़ने को वह अच्छा नहीं मानते थे- “बहुत पापुलर करना वल्गराइज़ करना भी हो जाता है बहुत बार!” (पृ.26)
शहरयार साहब ने गज़लों से ज्यादा नज़्मो को अपनी शायरी में महत्त्व दिया था, लेकिन लोग उन्हें गज़लकार ही ज्यादा मानते थे। इस संबंध में पूछे जाने पर उन्होंने कहा था- “आमतौर से जब मेरी शायरी पर बात की जाती है तो आम लोग गज़ल को ही सामने रखते हैं… जबकि मैंने नज़्में गज़लों से ज्यादा लिखी हैं और नयी उर्दू शायरी के सिलसिले में मेरा ज़िक्र मेरी नज़्मों के हवालों से ज्यादा किया जाता है।“ (पृ.64)
और जब प्रेम कुमार शहरयार साहब से उनके ‘साहित्यिक प्रदेय’ के बारे में पूछते हैं तो वह बड़ी विनम्रता से कहते हैं- “हिन्दोस्तान और दुनिया में इतने बड़े-बड़े लोग…. कारनामे करने वाले लोग पैदा हुए हैं…। उस पर… हम अपनी ढपली बजाते रहें…। हमारी क्या विसात… समंदर में कतरा! ऊपर से देखिए…. नुक्ता-नुक्ता नज़र आता है आदमी! नीचे से आप देखते रहें…आईना सामने रखकर खुद को देखते हैं और बड़ा समझते हैं। मगर सच तो यह है…जैसा यगाना चंगेजी का एक शेर है….‘बुलंद हो तो खुले तुझपे राज़ पस्ती का इस ज़मीन में दरिया समाए हैं क्या-क्या!’
इस किताब में एक लंबा साक्षात्कार पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज पर भी है। इस साक्षात्कार में फैज के बार में शहरयार साहब ने कई महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। एक प्रस्तुत है-“हाँ, हाँ, मेरी उनसे बारहा मुलाक़ात हुईं। बहुत ही निजी तरह की महफिलें। उन मुलाकातों में कभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान की समस्याओं या रिश्तों वगैरह पर बातें नहीं हुआ करती थीं। वो यहाँ या वहाँ के मसायलों के बारे में कभी गुफ्तगू नहीं किया करते थे। वो कहते थे कि हम तो भाई मुहब्बत के सफ़ीर हैं। और इसके अलावा कुछ सोचते नहीं। उनकी पूरी शायरी में भी कोई ऐसी फीलिंग नहीं है जिसमें नफरत, जंग की हिमायत, दूरी फैलाने या फासला पैदा करने वाला कुछ हो। ऐसा कुछ दूर-दूर तक वहाँ नहीं है।“ (पृ.81)
इस किताब की एक और खासियत है कि इसमें प्रेम कुमार ने शहरयार साहब की चुनी हुई शायरी भी पेश कर दी है। इससे यह किताब शहरयार साहब की शायरी से अनजान पाठकों के लिए भी बहुत उपयोगी बन गई है। शहरयार साहब के व्यक्तित्व, उनके जीवन, उनके विचार वगैरह के साथ-साथ उनकी शायरी को पढ़कर पाठक शहरयार साहब से एक मुकम्मल मुलाक़ात इस किताब के जरिये कर सकते हैं। शहरयार साहब के ज्ञानपीठ मिलने के बाद उनसे हुई मुलाक़ात और उनकी मृत्यु के बाद का विवरण भी प्रेम कुमार ने इस किताब में प्रस्तुत कर दिया होता तो यह किताब शहरयार साहब की और मुकम्मल तस्वीर पेश करने में कामयाब होती ! 13 फरवरी 2012 को उन्होंने अलीगढ़ में अंतिम सांस ली ।
पुस्तक : बातों–मुलाकातों में शहरयार साक्षात्कारकर्ता : प्रेम कुमार
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