पुण्य तिथी पर विशेष-अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नहीं रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे। उन्होंने प्यासा के लिये पहले दिलीप कुमार का चयन किया था। वे एक रचनात्मक लेखक भी थे और उन्होंने पहले पहले इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया में कहानियां भी लिखी थी।
गुरुदत्त का जन्म 9 जुलाई, 1925 को बैंगलोर में हुआ था। उनकी माँ वसंती पादुकोण के अनुसार बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था। प्रश्न पूछना उसका स्वभाव था।
कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए वे पागल हो जाती थीं, किसी की बात नहीं मानता था। अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था। गुस्से वाला बहुत था। मन में आया तो करेगा ही…जरूर.।
गुरु दत्त के पिता का नाम शिवशंकर राव पादुकोण और माता का नाम श्रीमती वसंथी पादुकोण है। गुरु दत्त ने गायिका गीता दत्त से 1953 में विवाह किया। गुरुदत्त के बेटे अरुण दत्त के अनुसार प्यासा और कागज के फूल जैसी क्लासिक फिल्मों के सृजक गुरुदत्त चुप और गंभीर रहते थे। लेकिन उनके भीतर एक मस्ती करने वाला बच्चा भी था। वे पतंग उड़ाते, मछली पकड़ते और फोटोग्राफी भी करते थे। गुरु दत्त को खेती करना भी काफी सुहाता था। लोनावला में फार्म हाउस था जहां वो हर साल जाकर खेती करते थे।
उन्हें फिशिंग में भी दिलचस्पी थी। पवई झील में जॉनी वॉकर और गुरु दत्त खूब मछली पकड़ा करते थे। एक बार उन्हें एक स्कूटर पसंद आ गया। वे उसे चलाते हुए स्टूडियो जा रहे थे तभी सिग्नल के पास गाड़ी रुकी तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया। वे किसी तरह से गाड़ी से वहां से निकले। एक दिलचस्प किस्सा है कि कश्मीर में उन्होंने एक शिकारा देखा तो वे उस शिकारा को कश्मीर से खुलवाकर पवई झील ले आए।
दरअसल, जिन दिनों गुरुदत्त फिल्मों में अपनी जमीन तलाश रहे थे, उन्हीं दिनों गीता राय नाम की एक नई गायिका पार्श्व गायिका बनने की कोशिश में व्यस्त थीं। थोड़े ही दिनों में गुरुदत्त कई निर्देशकों के सहायक बने, तो उधर फिल्म भक्त प्रह्लाद में गीता राय को भजन गाने का अवसर मिला। 1948 में प्रदर्शित फिल्म दो भाई में गाये गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया.. ने गीता राय को पूरे देश में चर्चित कर दिया। दरअसल, यही वह गीत था, जिसने गुरुदत्त के दिल के तारों को झंकृत कर दिया। और यहीं से गुरुदत्त ने मन ही मन यह फैसला भी कर लिया कि वे जब भी फिल्म बनाएंगे, गीता राय से गीत अवश्य गवाएंगे। मित्र देवआनंद ने फिल्म बाजी का निर्देशन गुरुदत्त को सौंप कर उस वादे को पूरा किया, जो उन्होंने कभी प्रभात स्टूडियो में किया था। बाजी शुरू हुई, तो गुरु ने गीता राय से एक गीत गवाया। बाजी में गीता राय का गीता बाली पर फिल्माया गया यह गीत सुनो गजर क्या गाये…अपने समय का सुपर हिट गीत साबित हुआ।
बाजी की शूटिंग के दौरान से ही गुरुदत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर गुरु गीता की आवाज के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी गुरु के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर मुग्ध थीं। दरअसल, दोनों अंतर्मुखी प्रवृति के थे। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिग से फुर्सत मिली, तो गुरुदत्त ने गीता को शादी के लिए प्रस्ताव रख दिया। गीता गुरुदत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्जी के वे शादी नहीं कर सकती थीं। बाजी अभी रिलीज नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। फिर बाद में गीता राय के माता पिता की राजी से दोनों का विवाह 1953 में हुआ।
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुरु दत्त ने अल्मोड़ा स्थित उदय शंकर की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वह पुणे (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फीचर फिल्म बाजी (1951) देवानंद की नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फिल्म जाल (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे। इसके बाद गुरुदत्त ने बाज (1953) फिल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभा संपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फिल्मों में प्रदर्शित हुआ।
मुख्य रूप से गुरु दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फिल्में हैं-प्यासा (1957),कागज के फूल (1959) और साहब, बीबी और गुलाम (1962)। हालांकि साहब, बीबी और गुलाम का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरुदत्त की कृति थी। गुरुदत्त ने सी.आई.डी. से वहीदा रहमान का फिल्म जगत से परिचय कराया और फिर प्यासा तथा कागज के फूल जैसी फिल्मों से उन्हें कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय-वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपुण शैलीकारों में ला खड़ा किया।
गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे। फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी। जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया। गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी कलाकार संतुष्ट न हो जाएं। अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं। गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी। जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार विकसित होते जाते थे। गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे। अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था। एक मजेदार वाकया है। वहीदा रहमान सुनाती हैं…श्वो एक दिन दाढ़ी बना रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शॉट की बात कर रहे थे। तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज आई। उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेजर फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति…तुमने बर्बाद कर दिया मुझे…तो मूर्ति साहब एकदम परेशान…मैंने क्या किया…हम तो शॉट के बारे में बात कर रहे थे…नहीं यार तुमसे शॉट की बात करते करते मैंने अपनी एक तरफ की मूंछ उड़ा दी…तो हम में किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े जोर जोर से…कि तुम लोग हँस रहे हो… आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं… तो फिर मूर्ति साहब ने कहा… गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं। फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं। आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको। तो इस वाकया से स्पष्ट है कि जब वो शॉट के बारे में सोच रहे हों या बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे।
गुरुदत्त ने अपने फिल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए जैसे, फिल्म बाजी में दो नए प्रयोग किए-100 एमएम के लेंस का क्लोज अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया- करीब 14 बार। इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नहीं आया, कि उन दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुजरना पडा। तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरुदत्त शॉट पड़ गया।
किसी भी फिल्म में पहली बार गानों का उपयोग कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया गया। वैसे ही फिल्म कागज के फूल हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फिल्म थी। दरअसल, इस फिल्म के लिए गुरुदत्त कुछ अनोखा, कुछ हटके करना चाहते थे, जो आज तक भारतीय फिल्म के इतिहास में कभी नहीं हुआ।
संयोग से तभी एक हालीवुड की फिल्म कंपनी ने उन दिनों भारत में किसी सिनेमास्कोप में बनने वाली फिल्म की शूटिंग खत्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे। जब गुरुदत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमैटोग्राफर वी. के. मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किये, रशेस देखे और फिर फिल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया। चलिए अब हम इस फिल्म के एक गाने का जिक्र भी कर लेते हैं-वक्त ने किया क्या हसीं सितम… तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम…गीता दत्त की हसीं आवाज में गाये, और फिल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फिल्माए गए इस गीत में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में विश्वविख्यात हुआ अपने बेहतरीन लाइटिंग की खूबसूरत संयोजन की वजह से। गुरुदत्त इस क्लाईमेक्स के सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ और रियल लाईफ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे। ब्लैक एंड व्हाईट रंगों से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी, रिक्तता, यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज में फिल्माना चाहते थे। जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की, तो उनके फोटोग्राफर वी. के. मूर्ति ने उन्हें वेंटिलेटर से छन कर आती धूप की एक तेज किरण दिखाई, तो गुरुदत्त बेहद रोमांचित हो उठे और उनने इस इफेक्ट को ही उपयोग करने का मन बना लिया। वे मूर्ति को बोले, मैं शूटिंग के लिए भी सन लाईट ही चाहता हूँ क्योंकि जिस प्रभाव की मैं कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्क लाईट से अथवा कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आयेगा। तो फिर दो बड़े बड़े आईने स्टूडियो के बाहर रखे गये, जिनको बडी मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है। साथ में चेहरे के क्लोज अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते है एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिती से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते है, एकाकार हो जाते है। 1945 लाखा रानी,1953 बाज, गीता बाली,1954 आर पार, 1955, मि.एंड मिसेस 55,1957 प्यासा,1958,बारह बजे,1959 कागज के फूल,1960 चौदहवी का चाँद,1962 साहिब बीवी और गुलाम,1963 सौतेला भाई, बहुरानी,भरोसा,1964 सांझ और सवेरा,सुहागन । निर्देशक के तौर पर गुरुदत्त,1951, बाजी ,जाल,1956 सैलाब। निर्माता के तौर पर गुरुदत्त,1956, सीआईडी। कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है। लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती। सिर्फ 39 बरस की उम्र में खुदकुशी कर लेने वाले गुरुदत्त की वैसी मौत अब सिर्फ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है, लेकिन उनकी प्यासा, कागज के फूल और साहब, बीबी और गुलाम सरीखी फिल्में दक्षिण एशियाई सिनेमा के इतिहास में अमर हैं। बेशक ये तीनों बड़ी फिल्में हैं लेकिन गुरुदत्त की प्रारंभिक फिल्मों को भुला देना उनके और भारतीय सिने-दर्शकों के जटिल संबंधों को नकारना होगा। दक्षिण एशिया में जो एक साफ-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजन सिनेमा 1950 के दशक में उभरा उसमें गुरुदत्त का केन्द्रीय योगदान है।
10 अक्तूबर, 1964 में मुंबई में अपने बिस्तर में रहस्यमय स्थिति में मृत पाए गए गुरुदत्त ने एक बार कहा था, देखो न, मुझे निर्देशक बनना था, बन गया। अभिनेता बनना था, बन गया। पिक्चर अच्छी बनानी थी, बनाई। पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।
