स्वप्निल संसार। लखनऊ।
गमगीन माहौल में पुराने लखनऊ से उठा यौम ए आशूरा का जुलूस।
क्या बूढ़े क्या बचे, क्या औरतें क्या आदमी हर एक की आंखे थी नम और ज़ुबान पर था इमाम हुसैन का नाम।
चौक के इमामबाड़ा नाजिम साहब से बड़े ही गमगीन और खूनी माहौल में दसवीं मोहर्रम का जुलूस निकाला गया। इस दौरान नाजिम साहिब इमामबाड़े से जैसे ही अजादार अलम लेकर बाहर आए वहां मौजूद हजारों अजादारों ने उसे चूमना शुरू कर दिया। जुलूस के आगे अकीदतमंद मातम कर रहे थे। साथ ही पीछे अलम को छूकर लोग मन्नतें मांग रहे थे। इसमें जायरीन खंजर, चाकू, जंजीरे लेकर खुद को लहूलुहान कर मातम मना रहे थे। मातम में छोटे बच्चों से लेकर बड़े तक शामिल थे। गमजदा महिलाएं यह खूनी मंजर देखकर रो रहीं थीं।
जुलूस में हजारो की संख्या में लोग मातम देख रहे थे जो गमगीन हो जाते थे उन पर पुलिस की विशेष निगरानी थी। ड्रोन कैमरा भी लगातार जुलुस पर विशेष नजर बनाये हुए था।
नोहै सुन कर रोने लगे अज़ादार।
हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ाने के लिए स्वामी नारंग ने इमाम हुसैन की शाहदत याद करके किया छुरियों का मातम।
चपे चपे पर रही पुलिस की नज़र सुरक्षा के थे कड़े इंतेज़ाम।
इन रास्तों से निकला दसवीं मुहर्रम का जुलूस –
पुराने लखनऊ में दसवीं मुहर्रम का जुलूस अकबरी गेट से शुरू हुआ जो नक्खास, बिल्लौचपुरा, हैदरगंज होते हुए कर्बला तालकटोरा पहुंचकर समाप्त हुआ।
जुलूस जैसे ही इमामबाड़े से निकला वैसे ही वहां मौजूद हजारों अजादारों ने उसे चूमना शुरू कर दिया। आजाददार हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर रो रहे थे। जुलूस जहां – जहां से निकला उन रास्तों पर लोग चाकू, छुरी और खंजर से खुद को लहूलुहान कर गमगीन कर रहे थे। जिन्हें देखने के लिए हजारों की भीड़ सड़को और घरों की छतों पर खड़ी थी।
मातम के ये आलम राजधानी के विभिन्न इलाकों में निकाला गया।
इनमें चिनहट, हजरतगंज, निशातगंज, आलमबाग, बीकेटी, इटौंजा, निगोहा, नागरम, बंथरा, सरोजनीनगर, मोहनलालगंज, काकोरी, मलिहाबाद, सहित प्रत्येक इलाकों में दसवीं मुहर्रम का जुलूस निकाला गया।
मुहर्रम का इतिहास एक नज़र में –
1400 साल पहले मुहर्रम महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 साथियों समेत मार दिया गया था। इमाम हुसैन पर ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ। मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों का मातम मनाया जाता है।
क्यों हुई थी जंग।
यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है।
यजीद को इस्लाम का शासक मानने से मोहम्मद साहब के घराने ने इन्कार कर दिया था, क्योंकि यजीद के लिए इस्लामिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात से इनकार के साथ ही इमाम हुसैन ने फैसला लिया कि अब वह अपने नाना का शहर मदीना छोड़ देंगे, और इराक जायँगे ताकि मदीना में अमन कायम रहे।
इमाम हुसैन मदीना छोड़कर परिवार और कुछ साथियों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं, जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के बदले में यजीद ने जंग करने की बात रखी। इस दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे।
ये बात साफ थी कि इमाम हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे। उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह महीने के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था, यानी उनका लड़ाई का कोई इरादा नहीं था। सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था, वह खत्म हो चुका था। इमाम हुसैन सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक (तीन दिन तक) इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे।
10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की 72 लोगों की फौज के लोग एक-एक करके मैदान-ए-जंग में लड़ने गए। जब इमाम हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब दोपहर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वे भी कत्ल कर दिए गए। इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है.
करबला का यह वाकया मोहम्मद साहब के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी माना जाता है।