मतदाता सूची में जानबूझकर शरारत की गयी अथवा कर्मचारियों ने लापरवाही की, इसकी जांच होनी चाहिए। गोमतीनगर के विशालखंड 1/405 से 1/422 अर्थात 17 मकानों में रहने वालों के नाम मतदाता सूची में नहीं मिले तो क्या इन सभी मतदाताओं के बारे में यह माना जाए कि उनके नाम गांव की मतदाता सूची में दर्ज थे? यह एक उदाहरण है। इस तरह की बातें गले से नहीं उतरती है।
लोकतान्त्ररिक व्यवस्था में संविधान को नमन किया जाता है, भले ही उसकी रचना लोकतंत्र की मौलिक इकाई अर्थात जनता के प्रतिनिधि ही करते हैं।
संविधान हमारे-आपके बीच एक आदर्श व्यवस्था है और उसके बनाये गये नियमों-उप नियमों का पालन करते हुए संवैधानिक संस्थाएं गठित की जाती हैं। इन संवैधानिक संस्थाओं का गठन चुनाव के माध्यम से होता है। गत 26 नवम्बर 2017 को जब हमारा देश संविधान दिवस मना रहा था क्योंकि इसी दिन 1949 में संविधान बनकर तैयार हुआ था, उसी दिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ समेत कई जनपदों में नगर निगम एवं नगर पंचायतों के लिए मतदान हो रहा था। नगर निकाय और नगर पंचायतें संविधान की छोटी इकाइयां हैं लेकिन इनके महत्व को इस तरह समझा जा सकता है कि महानगरों के महापौर का चुनाव क्षेत्र लोकसभा के चुनाव क्षेत्र से भी बड़ा होता है। इस प्रकार महापौर जितनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है उतनी जनता का प्रतिनिधित्व तो विधायक भी नहीं करता है। इसलिए महापौर के चयन में अगर 35 फीसद मतदाता ही फैसला कर रहे हैं तो 65 फीसद मतदाता ही उनके चयन में शामिल नहीं हो सके। इसे संविधान का मखौल नहीं तो और क्या कहा जाए?
हमारे भारत गणराज्य का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हुआ था। संविधान सभा के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर के 125वीं जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर 2015 को संविधान दिवस मनाया गया। डा0 भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा के विद्वान सदस्यों के साथ भारत के संविधान को 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन में तैयार किया था। इस संविधान को 26 नवम्बर 1949 को राष्ट्र को समर्पित किया गया और 26 जनवरी 1950 को अमल में लाया गया। इस दिन को हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। गणतंत्र के रूप में ग्राम पंचायतों से लेकर लोकसभा तक के सदस्य चुने जाते हैं। बहुमत के आधार पर प्रतिनिधि पंचायत से लेकर संसद तक में सत्ता और विपक्ष के रूप में कार्य संचालन करते हैं। इस बार संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संविधान निर्माताओं को नमन किया और तीन स्तम्भों को मिलकर राष्ट्र निर्माण करने की अपील की। उन्होंने न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका तक ही अपनी बात सीमित रखी। उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों तक उनका ध्यान नहीं जा सका। यह भी हो सकता है कि उन्हें इस बात का अनुमान न रहा हो कि मतदाताओं को जागरुक करने के बाद भी लखनऊ जैसे शहर में जहां साक्षरता की दर 85 फीसद है, वहां नगर निकाय चुनाव में सिर्फ 35 फीसद वोट पड़ेंगे। यह निश्चित रूप से शर्म की बात है लेकिन जब इसके अंदरूनी कारणों को देखा गया तो पता चलता है कि सरकार की लापरवाही भी कम नहीं हुई है।
इस मामले में सबसे पहले तो मतदाता सूची की खामियां सामने आयी हैं। वोटर लिस्ट से नाम कटने की सबसे ज्यादा शिकायतें लखनऊ से आयीं। इसको लेकर कई मतदान केन्द्रों पर लोगों मंे नाराजगी भी देखी गयी। राज्य निर्वाचन आयुक्त एसके अग्रवाल का कहना है कि वोटर लिस्ट इतने बड़े पैमाने पर बनती है कि उसमें थोड़ी बहुत चूक हो सकती है। उन्होंने बताया कि गांव और शहर दोनों की मतदाता सूची में नाम नहीं रह सकता। इसलिए नाम काटे गये हैं। यह बात सच है। इस संदर्भ में मशहूर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का जिक्र करना समीचीन होगा क्योंकि प्रियंका चोपड़ा के बारे में देश का बच्चा-बच्चा जानता है। बाॅलीवुड की फिल्मों में उन्होंने बहुत नाम कमाया और इसके बाद हालीवुड के सीरियल में काम किया। वह कई सामाजिक कार्यों की ब्रांड अम्बेडकर भी है। प्रियंका चोपड़ा मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बरेली की रहने वाली हैं। वहां उनका मकान भी है लेकिन फिल्मों में काम करने के दौरान मुंबई में उन्होंने बंगला खरीदा और वहां की मतदाता सूची में भी उनका नाम दर्ज हो गया। इस समय उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव हो रहे हैं तो बरेली के एक प्रत्याशी ने इस बात पर आपत्ति दर्ज करायी कि प्रियंका चोपड़ा और उनकी माता जी जब बरेली में नहीं रह रही है तो मतदाता सूची में उनका नाम क्यों दर्ज है? प्रत्याशी की शिकायत पर निर्वाचन कर्मियों ने प्रियंका चोपड़ा का नाम बरेली की मतदाता सूची से काट दिया।
इसलिए उत्तर प्रदेश के निर्वाचन आयुक्त एसके अग्रवाल का यह कहना तो ठीक है कि लखनऊ शहर में कई लोग ऐसे हैं जिनका नाम गांव की भी मतदाता सूची में दर्ज है। इसलिए शहर की मतदाता सूची में उनका नाम काट दिया गया है लेकिन लखनऊ में जितनी संख्या में लोग मतदान से वंचित रहे उनमें से सभी के नाम गांव की मतदाता सूची में दर्ज हों, यह बात गले से नहीं उतरती। लखनऊ शहर का बड़ा तबका मतदान से वंचित रह गया इसका जिम्मेदार कौन है? मतदाता सूची पर सवाल पहले भी उठाया गया था जब चुनाव की चर्चा चल रही थी। सरकार ने मतदाता सूचियों का प्रकाशन भी करवाया और जगह-जगह शिविर भी लगे लेकिन जैसा कि श्री अग्रवाल कहते हैं कि मतदाता सूचियों को पूरी तरह दुरुस्त करना कठिन है वैसे ही शिविरों में मतदाता अपने नाम सूची में देख सकें, यह भी संभव नहीं है। आज के व्यस्तता के युग में यह संभव नहीं है। इस प्रक्रिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के डिजिटल इंडिया अभियान का सहारा लिया जाता तो प्रत्येक घर में मोबाइल की मौजूदगी का लाभ उठाया जा सकता था। मतदाता सूची में जिनके नाम शामिल हैं उनको इसकी सूचना मोबाइल से दी जा सकती थी। इसके अलावा विधान सभा चुनाव में मतदाताओं को इस प्रकार की शिकायत क्यों नहीं हुईं?
मतदाता सूची में जानबूझकर शरारत की गयी अथवा कर्मचारियों ने लापरवाही की, इसकी जांच होनी चाहिए। गोमतीनगर के विशालखंड 1/405 से 1/422 अर्थात 17 मकानों में रहने वालों के नाम मतदाता सूची में नहीं मिले तो क्या इन सभी मतदाताओं के बारे में यह माना जाए कि उनके नाम गांव की मतदाता सूची में दर्ज थे? यह एक उदाहरण है। इस तरह की बातें गले से नहीं उतरती हैं। लखनऊ के ही पुराना किला के बाबू बनारसी दास सामुदायिक केन्द्र पर बने मतदान केन्द्र में अनुराग का परिवार वोट डालने आया तो पूरे परिवार का नाम ही मतदाता सूची से गायब था। इस तरह की शिकायतें कई परिवारों ने की हैं। मतदाता सूची में गड़बड़ियों के साथ मतदाता पर्चियों के वितरण में भी शिकायते मिलीं। लखनऊ के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने इस प्रकार की गड़बड़ी को स्वीकार भी किया और कहा कि बीएलओ ने मतदाता पर्चियों का वितरण ठीक से नहीं किया। यहां पर इस सच्चाई को भी जान लेना चाहिए कि गतदाता पर्चियों का वितरण कार्य मतदान से दो दिन पहले ही शुरू किया गया था तो बीएलओं के लिए भी यह काम आसान नहीं था। कितने ही घर ऐसे हैं जहां सभी सदस्य नौकरी करते हैं तो उनकी पर्चियां कैसे पहुंचाई जा सकती हैं। मतदाता सूची में गड़बड़ी थी क्योंकि बीएलओ ने एक मकान में रहने वाले की पर्ची दिखाई जहां कोई नहीं रहता। वर्षो से वह खाली पड़ा है।
अब सवाल आरोप प्रत्यारोप का नहीं बल्कि संविधान के कार्यान्वयन का है। मतदाता सूची अगर पूर्व की सरकार में बनी थीं, तो मौजूद सरकार के भी आठ महीने बीत गये हैं और नगर निकाय चुनाव के महत्व को उसने क्यों नहीं समझा? मतदाताओं को जागरूक करने का कार्य भी उस रफ्तार से नहीं किया गया, जैसे विधान सभा चुनाव के समय किया गया था। सरकार भी यह मानकर चल रही है कि जैसे गांव पंचायत में मतदान के लिए जागरूक करने की जरूरत ही नहीं पड़ती और सभी मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, वैसे ही नगर निकाय के चुनाव में थी मतदाता वोट डालेंगे। पंचायतों के चुनाव में 74 फीसद मतदान हुआ भी है लेकिन नगर निकाय में 50 फीसद भी मतदान नहीं हो सका? ऐसे में जो प्रतिनिधि चुने जाएंगे उन्हें जनता का प्रतिनिधि कैसे समझा जाए। कम से कम पचास फीसद मतदाताओं के बीच बहुमत से चुने गये प्रतिनिधि को लोकतंत्र का रखवाला कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन स्तम्भो में दो – विधायकी और नौकर शाही के संविधान के प्रति दायित्व निभाने की जो बात कहीं, उसका एक नमूना उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनाव में देखने को मिला है लेकिन आम नागरिकों ने चुनाव के प्रति जो लापरवाही दिखाई है, उससे वे भी लोकतंत्र के अपराधी बन जाते हैं। (हिफी)