राजनीति में आरोप लगाना बहुत सरल होता है। इसलिए उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में कुछ मतदान केन्द्रों से जब यह खबर आयी कि वहां इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) ठीक से काम नहीं कर रही हैं। यह भी बताया गया कि किसी भी बटन को दबाओं तो वोट कमल अर्थात भाजपा के खाते में जाते हैं। ईवीएम को लेकर संदेह की यह चिनगारी पूरी तरह से राख में तब्दील नहीं हो सकी है और जब तब भड़क उठती है। लोकतंत्र प्रणाली के लिए यह अच्छी बात नहीं हैं। हमारे देश का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और आजादी के बाद से कितने ही देश लोकतंत्र के नाम पर तानाशाह बन गये। उनके लोकतंत्र को जनता की तरफ से गंभीर चुनौती भी मिली है। दक्षिण अफ्रीका के एक देश में इसी तरह से हाल में सत्ता परिवर्तन हुआ है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के लोकतंत्र पर भी अंगुलियां उठती हैं लेकिन कश्मीर जैसे अशांत क्षेत्र में भी हमारे लोकतंत्र को किसी ने चुनौती नहीं दी है। इसलिए ईवीएम के विवाद को समाप्त करना जरूरी है और चुनाव आयोग ने भी ईवीएम में साथ वीवीपैट की व्यवस्था कर रखी है जो अभी सीमित थी और उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में उनका प्रयोग नहीं किया जा सका। नगर पंचायतों के चुनाव में मतपत्रों का प्रयोग किया गया। विपक्षी दलों को आरोप लगाने का मौंका इसलिए मिला क्योंकि जहां मतपत्रों के सहारे चुनाव हुए, वहां उन्हें ज्यादा सफलता मिली जबकि ईवीएम से जहां चुनाव हुए वहां भाजपा का ही प्रचन्ड बहुमत रहा। प्रदेश के 16 नगर विभागों में भाजपा को 14 महापौर बनवाने में सफलता मिली जबकि बसपा ने दो महापौर पद पर सफलता प्राप्त की। ईवीएम पर आरोप भी पहले बसपा ने ही लगाया, बाद में सपा और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने आरोप लगाया है।
इन आरोपों पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने समाजवादी पार्टी और बसपा को करारा जवाब दिया है। श्री योगी ने कहा कि अगर ईवीएम में खराबी है तो सुश्री मायावती अपने दो महापौरों का इस्तीफा दिलवा दें, वह मेरठ और अलीगढ़ में दुबारा मतपत्रों से चुनाव करवा लेंगे। श्री योगी ने दावा किया कि यदि सुश्री मायावती और अखिलेश यादव तैयार हो जाएं तो वहां मतपत्रों से चुनाव में भाजपा प्रत्याशी जीतेगा। लखनऊ में भाजपा मुख्यालय में अपने महापौरो के अभिनंदन समारोह में श्री योगी ने कहा कि आश्चर्य यह है कि जो ईवीएम से जीते हुए लोग है, वही ईवीएम पर सवाल उठा रहे हैं। सुश्री मायावती जिस ईवीएम से हुए चुनाव पर सवाल उठा रही हैं, उसी से उन्होंने अलीगढ़ और मेरठ में महापौर का पद जीता है। यहां पर ध्यान देने की बात है कि नगर निगम महापौर के चुनाव में भाजपा को 41.37 फीसद, बसपा को 17.28 फीसद, सपा को 15.94 फीसद और कांग्रेस को 16.59 फीसद मत मिले है जबकि नगर पालिका परिषद के सदस्यों के चुनाव में भाजपा को 15.99 फीसद, सपा को 8.83 फीसद बसपा को 5.81 फीसद और कांग्रेस को 3.92 फीसद मत मिले। यहां पर सबसे ज्यादा निर्दलीय प्रत्याशी विजयी हुए जिनको 63.23 फीसद मत मिले हैं। नगर पालिका परिषद चेयर मैन पद पर भाजपा को 28.29 फीसद, सपा को 21.74 फीसद, बसपा को 14.27 फीसद और कांग्रेस को 6.79 फीसद मत मिले। यहां भी निर्दलीयों को 24.9 फीसद मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया है।
इस प्रकार देखा जाए तो नगर निगम के महापौर और नगर पालिका परिषद में चेयरमैन के लिए राजनीतिक दलों को प्राथमिकता दी गयी लेकिन पार्षद और सदस्य व्यक्तिगत आधार पर निर्वाचित हुए है। भाजपा को भी महापौर चुनाव में जहां 41.37 फीसद मत मिले, वहीं पार्षद के चुनाव में उसे 29.09 फीसद मत ही मिल पाये। इससे ज्यादा अर्थ 29.26 फीसद मतदाताओं ने निर्दलीय प्रत्याश्यिों का समर्थन किया। पार्षदों के चुनाव में सपा को लगभग उतने ही मतदाताओं (15.59) का समर्थन मिला जिन्होंने उसे महापौर के लिए (15.94) मत दिया था। बसपा के समर्थन में महापौर के लिए जहां 17.28 फीसद मत मिले, वहीं पार्षदों के लिए 11.78 फीसद मत रह गया। इसी प्रकार कांग्रेस के लिए भी महापौर पद के लिए जहां 16.59 फीसद मतदाताओं का समर्थन मिला, वहीं पार्षदों को 11.24 फीसद समर्थन हासिल हो सका। यह ईवीएम के ही दोनों नतीजे हैं। महापौर पद पर ज्यादा समर्थन और पार्षद के लिए कम समर्थन से यही पता चलता है कि मतदाता का जैसा रूझान रहा है, वैसा मतदान किया। गांवों और शहरों-कस्बों में मतदाताओं का रूझान अलग-अलग रहता है। इतना ही नहीं लोक सभा चुनाव और राजय विधान सभा चुनावों में भी मतदाताओं का नजरिया बदल जाता है। इसलिए नगर निगम और नगर पंचायत के चुनावों में परिणाम अलग-अलग रहे तो इसके पीछे ईवीएम और मतपत्रों से चुनाव को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। विधान सभा चुनाव में भी बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर आरोप लगाया था। बाद में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी ईवीएम की गड़बड़ी का सवाल उठाया। आम आदमी पार्टी के संस्थापक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने तो इस मामले को काफी आगे बढ़ाने का प्रयास किया। उन्होंने दिल्ली विधान सभा का विशेष सत्र बुलवाकर ईवीएम जैसी ही एक मशीन से डेमो कराया। श्री केजरीवाल के इस ड्रामे का मीडिया ने भी काफी विरोध किया था क्योंकि मीडिया विधान सभा भवन में जा नहीं सकती थी। विधान सभा की उस कार्यवाही का सीधा प्रसारण कराया गया और देश ही नही विदेश तक यह लांछन पहुंच गया कि भारत में चुनाव कराने वाली ईवीएम विश्वसनीय नहीं हैं।
यह बात देश के लोकतंत्र के लिए शर्मनाक थी और देश के निर्वाचन आयोग ने इस लांछन को मिटाने का फैसला किया। चुनाव आयोग ने 2017 के विधान सभा चुनाव वाले राज्यों में प्रतिभाग करने वाले राजनीतिक दलों से अपने दो-दो प्रतिनिधि भेजकर ईवीएम के परीक्षण का अवसर दिया। चुनाव आयोग ने कहा कि ईवीएम मशीन को खोला नहीं जाएगा लेकिन उसमें कोई भी डिवाइस या चिप लगाकर वे साबित करें कि कोई बटन दबाकर एक ही पार्टी को वोट जाएगा। चुनाव आयोग की परीक्षा में किसी भी राजनीतिक दल ने शामिल होने की हिम्मत नहीं दिखाई। इस प्रकार देश और दुनिया में ईवीएम के लिए जो गलत संदेश जा रहा था, उसे रोक दिया गया। अब उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के पहले दौर में यह खबर आयी कि कुछ मशीनों में यह शिकायत पायी गयी। ईवीएम का खराब होना अलग बात है लेकिन डेमो प्रजेंटेशन में एक ही पार्टी के पक्ष में मत निकलना गंभीर है। इस पर सक्षम अधिकारी ठीक से अपना पक्ष क्यों नहीं रख पाये और मीडिया ने भी इसे बहुत महत्व नहीं दिया। इस कारण भ्रम की स्थिति रही है। ईवीएम को लेकर रंच मात्र भी भ्रम नहीं रहना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बसपा प्रमुख सुश्री मायावती को जवाब राजनीतिक तरीके से दिया है लेकिन सुश्री मायावती अगर ईवीएम मशीनों पर आरोप को सचमुच गंभीर मानती हैं तो उन्हें यह बात साबित करनी चाहिए और नहीं साबित कर सकती हैं तो इस प्रश्न को बार-बार उछालने से उन्हें रोका जाना चाहिए। यह आरोप सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं है बल्कि हमारे देश के संविधान की निष्पक्षता से भी जुड़ा है। (हिफी)
