राजनीतिक दलों में अब भाजपा का खौफ है। इस बात को वे खुुलकर नहीं कहते लेकिन उनके हाव-भाव से यह पता चल ही जाता है। इस प्रकार का खौफ होना स्वाभाविक है क्योंकि देश के 29 राज्यों में से 19 में भाजपा अपनी अथवा सहयोगी दलों की सरकार बना चुकी है। इसके साथ ही जहां भाजपा का प्रभाव बहुत कम था जैसे कश्मीर, असम, मणिपुर, वहां भी भाजपा सरकार बनाने में सफल हो गयी। उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसे समीकरण बन गये थे कि भाजपा और कांग्रेस को जनता ने किनारे कर दिया था लेकिन दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है। बिहार का महागठबंधन टूट जाना और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का वर्चस्व कम होना दोनों ही राजनीति में बड़े परिवर्तन के रूप में देखेे जाते हैं। इसीलिए पश्चिम बंगाल में सुश्री ममता बनर्जी भाजपा को वहां पैर न जमाने देने के लिए वामपंथियों से भी हाथ मिलाने को तैयार हो जाती है जैसा कि राष्ट्रपति चुनाव के समय हुआ था और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव अपनी धुर विरोधी बसपा के साथ गठबंधन करने को तैयार हैं।
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अखिलेश यादव ने इसी संदर्भ में गत दिनों एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई थी लेकिन उसमें कांग्रेस और बसपा के प्रतिनिधि शामिल नहीं हुए। अखिलेश यादव अगर इसका कारण तलाश करने का ईमानदारी से प्रयास करें तो उनका विपक्षी दलों को एक करने का रास्ता आसान हो सकता है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बीती 6 जनवरी को भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई गयी थी। इस बैठक में कांग्रेस और बसपा के प्रतिनिधि नहीं शामिल हुए जबकि बसपा से निकाले गये वरिष्ठ मुस्लिम नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने शिरकत की और यह भी संकेत दिया कि वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो सकते हैं। बसपा को छोड़कर बाहर आये पुराने नेता आरके चौधरी और कद्दावर नेता इंद्रजीत सरोज तो समाजवादी पार्टी का दामन थाम ही चुके हैं। इन लोगों के अलावा अजित चौधरी की पार्टी रालोद के नेता और प्रदेश अध्यक्ष डा० मसूद अहमद, जद(यू) शरद यादव के गुट के सुरेश निरंजन, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) प्रदेश अध्यक्ष डा० रमेश दीक्षित, राष्ट्रीय जनता दल के अशोक सिंह, अपना दल (कृष्णा पटेल गुट) की नेता पल्लवी पटेल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता राकेश, माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता एसपी कश्यप, जनवादी पार्टी के संजय सिंह चौहान, पीस पार्टी के डा० मो- अय्यूब, निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद और आम आदमी पार्टी के नेता गौरव माहेश्वरी ने उपस्थिति दर्ज कराकर यह बताया कि वे भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने में समाजवादी पार्टी के साथ हैं। महत्वपूर्ण बात यह थी कि अखिलेश यादव ने इस बैठक में मुख्य एजेण्डा यह रखा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की जगह बैलेट पेपर से कराये जाएं।
ईवीएम पर सबसे पहले सवाल बसपा ने 2017 में उठाये थे। इससे पूर्व भी ईवीएम पर सवाल उठे और भाजपा के ही वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं। विशेष चर्चा 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद हुई और सुश्री मायावती ने कहा कि हमारे दलित वोटर कहते हैं कि हमने बसपा को वोट दिया लेकिन दलित बाहुल्य क्षेत्र में भी भाजपा का प्रत्याशी कैसे जीत गया? इसके बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी ईवीएम पर सवाल उठाये और अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तो सबसे आगे निकल गयी। उसके एक नेता ने तो दिल्ली विधानसभा में एक ईवीएम जैसी मशीन का डेमो करके दिखाया कि मामूली परिवर्तन करके ईवीएम मशीन में कोई भी बटन दबाओ लेकिन वोट किसी एक ही पार्टी को जाएगा। यह चुनाव आयोग पर काफी गंभीर आरोप था और चुनाव आयोग ने 2017 के चुनाव में भाग लेने वाले राजनीतिक दलों को चुनौती दी कि वे ईवीएम मशीन पर इस बात को सिद्ध करें। अफसोस की बात यह कि उस समय कोई भी राजनीतिक दल यह साहस नहीं जुटा सका। इसके अलावा चुनाव आयोग ने एक सुधार भी किया और गुजरात व हिमाचल प्रदेश के चुनाव में ईवीएम मशीन के साथ वीवी पैट का इस्तेमाल किया गया। इस पद्धति से वोट करने वाले को एक पर्ची मिलती थी जिससे पता चलता कि उसने किसको वोट दिया।
इस प्रकार ईवीएम की कहानी राजनीति में अपने-अपने तरीके से कही जाती रही। गुजरात में विधानसभा चुनाव के दौरान ही उत्तर प्रदेश में निकाय चुनाव हुए। शहरी क्षेत्र में ईवीएम का प्रयोग किया गया जबकि देहात में बैलेट पेपर से चुनाव हुए। दोनों क्षेत्रों के चुनाव में नतीजे अलग-अलग रहे। शहरों में जहां भाजपा का एक छत्र अधिकार रहा और 16 नगर निगमों में से 14 में उसके महापौर विजयी रहे, वहीं नगर पंचायत अध्यक्ष और सदस्यों के चुनाव में दूसरे नम्बर पर बसपा आ गयी। समाजवादी पार्टी को भी यहां पर अच्छी सफलता मिली। मजे की बात यह कि आम आदमी पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो गयी।
इस प्रकार ईवीएम का मामला एक बार फिर गर्मा गया और इसी को अखिलेश यादव ने विपक्षी एकता का मुद्दा भी बना लिया। उनके साथ लगभग एक दर्जन राजनीतिक दल इस मामले को लेकर जुड़ भी गये लेकिन कांग्रेस और बसपा के प्रतिनिधि नहीं आये। अखिलेश का कहना था कि कांग्रेस इस मुद्दे पर सहमत है और अगली बैठक में उसके प्रतिनिधि भी शामिल होंगे। अखिलेश यादव की इस बात पर हम यकीन कर लेते हैं लेकिन कांग्रेस और बसपा की समस्याएं भी उन्हें समझनी पड़ेंगी। निकाय चुनावों में ही अगर सपा, बसपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े होते तो भाजपा को 14 महापौर नहीं मिल पाते। बसपा ने शहरी क्षेत्र में भी अपना आधार बढ़ाया है जिससे मेरठ और अलीगढ़ में उसे महापौर मिले हैं। दो जनपदों में तो उसके महापौर प्रत्याशी लगभग 2000 मतों से पराजित हो गये। लखनऊ के महापौर पद के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस प्रत्याशी ने जितने मत पाये हैं उनको मिलाकर वे भाजपा की संयुक्ता भाटिया को पराजित कर सकते थे।
यह क्यों नहीं किया गया? यही सवाल विपक्षी दलों की एकता में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। इस पर सभी दलों को गंभीरता और ईमानदारी से सोचना होगा। गुजरात विधानसभा और हिमाचल में कांग्रेस को अगर इन दलों का साथ मिलता तो मुकाबला काफी कड़ा हो सकता था। गुजरात में तो कांग्रेस ने भाजपा के लिए मुसीबत ही खड़ी कर दी थी। वहां के स्थानीय दलित और पिछड़े वर्ग के नेता जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल कांग्रेस का साथ दे रहे थे लेकिन सपा और बसपा कांग्रेस के ही वोट काट रहे थे। वहां इन दलों का कोई आधार नहीं है तो कांग्रेस की मदद करने से पीछे क्यों हटे। बसपा को उत्तर प्रदेश में नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सुश्री मायावती कहती हैं कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर वे गठबंधन कर सकती हैं। सम्मानजनक सीटों के साथ प्रभाव क्षेत्र का भी ध्यान रखना पड़ेगा। इस साल लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। अखिलेश यादव अगर विपक्षी दलों में एकता चाहते हैं तो जहां जिसका प्रभाव है वहां पर उसी दल को सभी मदद करें। इससे सपा को राष्ट्रीय दल का दर्जा दिलाने में भी वह सफल हो सकते हैंं। संगठन के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा। संगठन बनाना तो आसान होता है लेकिन उसको बरकरार रखना बहुत कठिन हो जाता है। देश में जनता पार्टी, जनता दल और हाल ही में बिहार के महागठबंधन का हश्र हम देख ही चुके हैं। (हिफी)