#HAPPY_BIRTHDAY_पद्मश्री डाo बशीर बद्र साहब
इसमे कोई शक़ नहीं कि जदीद शायर में ग़ज़ल का दूसरा नाम बशीर बद्र है। 15 फ़रवरी 1935 को इस सदी का बहुत बड़ा शायर पैदा हुआ जिसका नाम है बशीर बद्र । बशीर बद्र के वालिद जनाब सयैद मोहम्मद नज़ीर यूँ तो अयोध्या के रहने वाले थे पर बशीर साहब का जन्म कानपुर में हुआ। इनके वालिद पुलिस महकमें में लेखाकार थे अपने वालिद के भावनात्मक रूप से बशीर साहब बहुत करीब थे। बशीर साहब ने अपनी शुरूआती पढाई कानपुर में की और अपना हाई स्कूल 1949 में इटावा से किया। अपने वालिद की सेहत ठीक न होने की वजह से बशीर साहब ने अपनी पढाई बीच में छोड़ दी और उतर प्रदेश पुलिस में नौकरी करने लगे। कई साल नौकरी करने के बाद बशीर बद्र ने उर्दू में एम्.ए अलीगढ यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडल के साथ किया और “आज़ादी के बाद उर्दू ग़ज़ल” विषय पर शोध कर पी.एच .डी भी उन्होंने अलीगढ यूनिवर्सिटी से की।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए। 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता हुआ और 3 जुलाई के अख़बारों में पकिस्तान के वजीरे- आज़म ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हाथ मिलाते हुए तस्वीर छपी और नीचे एक शे’र लिखा था जो कि भुट्टो साहब ने श्रीमती गाँधी को समझौते के वक़्त सुनाया था :—- दुश्मनी जम के करो लेकिन ये गुंजाईश रहे-जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हो। भुट्टो साहब ने ये शे’र लाहौर के एक अख़बार में पढ़ा था उसी दिन से अदब की दुनिया में एक नाम मशहूर हो गया वो नाम था बशीर बद्र जो इस शे’र के रचयिता थे और उस वक़्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे थे ।
ग़ज़ल के अगर पिछले तीन सौ साला अतीत के सफ़े पलट के देखें तो सब से मक़बूल शे’र कोई हुआ है तो वो ये है :— उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो-न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।
हिन्दुस्तान की साबका वजीरे- आज़म मोहतरमा इंदिरा गाँधी ने ये शेर अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला को ख़त में लिखा था ,यही शे’र मीना कुमारी ने एक अंग्रेज़ी फ़िल्मी रिसाले में अपने हाथ से लिखा था और इसी शे’र का इस्तेमाल हमारे पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने आख़िरी भाषण में किया था। ये आवारा शे’र भी बशीर बद्र की क़लम का कमाल था।
हमारे एक और पूर्व राष्ट्रपति के .आर. नारायणन ने कुल- हिंद उर्दू सम्पादक कोंफ्रेंस में अपने भाषण के आख़िर में बशीर बद्र का शे”र पढ़ा :— इत्रदान सा लहजा मेरे बुज़ुर्गों का रची बसी हुई उर्दू ज़ुबान की ख़ुश्बू हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर बस ले के गये उस बस के पीछे दो मिसरे लिखे थे :- दुश्मनी का सफ़र एक कदम दो कदम तुम भी थक जाओगे हम भी थक जायेंगे।
ये मिसरे भी बशीर बद्र साहब ने कहे थे और वे इस बस के मुसाफ़िर भी थे। वो बस पाकिस्तान गई तो मुहब्बत का पैगाम ले के थी पर उसके बाद हमारी पीठ में कारगिल का खंजर घोंप दिया गया दोनों मुल्कों में फिर से तल्खियां पैदा हो गई। इस खंजर को निकालने का एक निरर्थक प्रयास मियाँ मुशर्रफ करने दिल्ली आये और जब वे वाजपेयी जी से मिले तो उन्होंने सिर्फ़ हाथ मिलाया गले नहीं मिले। शाम को नाहर वाली हवेली देखने के बाद एक मुख़्तसर सा मुशायरा हुआ जिसमे मियाँ मुशर्रफ को ये शेर सुनाने वाले भी बशीर बद्र ही थे :—मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
अगले ही दिन आगरा में ताजमहल के ठीक सामने पंच सितारा जे. पी होटल में बैठक होनी थी मुशर्रफ साहब की शान में यहाँ इंडो-पाक मुशायरा रखा गया जिसमे बशीर बद्र ने दोनों मुल्कों के सदरों को मुखातिब हो ये शेर पढ़ा जो इतना सच साबित हुआ की आज तक दोनों मुल्क सिर्फ़ गुफ़्तगू तक ही महदूद हो कर रह गये है ;- सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा
किसी ने ठीक ही कहा है कि शाइर बनता नहीं है पैदा ही शाइर होता है दस बरस की उम्र में बशीर बद्र ने अपना पहला शेर कहा जो यूँ था :— तेरे इश्क़ में मैं मरा जा रहा हूँ हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूँ
इस से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है दस बरस की उम्र में क्या तेवर रहे होंगे बशीर बद्र के जो आज तक 75 सावन देखने के बाद भी ब-दस्तूर वही के वही कायम है।
बशीर बद्र के मक़बूल शे’रों की फेहरिस्त बहुत तवील है फिर भी उनमे से कुछ मुलाहिज़ा फरमाएं :—–हम भी दरिया है हमे अपना हुनर मालूम है जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है कुछ तो मजबूरियाँ रहीं होंगी यूँ कोई बे-वफ़ा नहीं होता बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फासला रखना जहाँ दरिया समन्दर से मिला ,दरिया नहीं रहता शौहरत की बलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो बस गई है मेरे एहसास में ये कैसी महक कोई ख़ुश्बू मैं लगाऊं तेरी ख़ुश्बू आए।
1984 में दंगाइयों ने मेरठ में बशीर साहब के घर को आग लगा दी। बशीर बद्र के अन्दर का शाइर इतना आहत हुआ और उन्होंने एक मतला कहा जो आज भी बहुत सी जगह कोट किया जाता है :—-लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में इस हादसे के बाद बशीर साहब ने मेरठ छोड़ दिया और भोपाल रहने लगे। मगर उनके कुछ ऐसे शे’र है जो मैं आप तक ज़रूर पहुंचाना चाहता हूँ :—मैं चुप रहा तो और ग़लत फहमियाँ बढ़ी वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते बड़ी आग है बड़ी आंच है ,तेरे मैकदे के गुलाब में कई बालियाँ कई चूड़ियाँ ,यहाँ घुल रही शराब में यारों ने जिस पे अपनी दुकानें सजाई है ख़ुश्बू बता रही है हमारी ज़मीन है चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं ग़ज़ल के शे’र कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं
अभी सेहत बशीर बद्र से ज़रा ख़फा सी है अपनी यादाश्त का बहुत सा हिस्सा वो खो चुके है और भोपाल में सिर्फ़ अपनी ग़ज़लों और अपने दुःख -सुख की सच्ची हमदर्द अपनी हमसफ़र डॉ. राहत बद्र के साथ अपना वक़्त गुज़ार रहे है। इस सदी के बहुत बड़े शाइर पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र को सलाम करता हूँ …. विजेन्द्र शर्मा के आलेख से कुछ अंश