आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भारत भूमि की समृद्धि और सम्पन्नता अपनी चरम सीमा पर थी। देश में अनेक वैभव सम्पन्न तथा शक्तिशाली राज्य थे। भारतीय समाज में एक नयी उमंग, एक नयी स्फूर्ति आ गयी थी। किन्तु यह वैभव और शक्ति अधिक दिन तक स्थिर न रह सकी। पारस्परिक विद्वेष और स्वेच्छाचारिता की भावनाएं प्रबल होने लगीं। जन कल्याणकारी परम्पराएं टूटने लगीं। प्रजा जरासंध, कंस और नरक जैसे शासकों के दमन चक्र का शिकार बन गयी। अत्याचार और राजनीतिक कुचक्र के इस वातावरण में कंस की बहन देवकी अपने पति वसुदेव के साथ कंस के कारागार में बन्दी थी। वहीं देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। कंस के भय से श्रीकृष्ण का पालन-पोषण गोकुल में नन्द के घर पर हुआ।
श्रीकृष्ण बाल्यावस्था से ही इतने पराक्रमी और साहसी थे कि उनके द्वारा किये गये कार्यों को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे और उन्हें अलौकिक मानने लगे थे। कंस अपनी सुरक्षा के लिए कृष्ण का अन्त करना चाहता था। इस कार्य के लिए उसने जिन लोगों को भेजा उन सबका श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही वध कर दिया। वास्तव में श्रीकृष्ण
असाधारण प्रतिभासम्पन्न बालक थे। कभी तो वे अपनी बाॅसुरी के मधुर स्वर से सभी को आत्मिक सुख प्रदान करते दिखायी पड़ते तो कभी कंस के अत्याचारों से गोकुलवासियों की रक्षा करते हुए लोकहित में प्रवृत्त दिखायी देते। श्रीकृष्ण को अध्ययन करने हेतु सन्दीपन मुनि के गुरुकुल भेजा गया। गुरुकुल में कृष्ण ने अपने गुरु की सेवा करते हुए विद्या प्राप्त की।
कंस के स्वेच्छाचारी एवं क्रूर शासन के कारण प्रजा में व्यापक असन्तोष था। गोकुल में श्रीकृष्ण के नेतृत्व में कंस के अत्याचारी शासन का विरोध आरम्भ हो गया। कंस इस स्थिति को जानता था। उसने कृष्ण के वध का षड़यन्त्र रचा और अक्रूर द्वारा श्रीकृष्ण को बुलवाया। गोकुलवासियों को कंस पर सन्देह था। वे नहीं चाहते थे कि श्रीकृष्ण मथुरा जाकर कंस के जाल में फंसें। श्रीकृष्ण ने तो अत्याचारियों का अन्त करने का संकल्प ही कर लिया था, अतः वे अपने बड़े भाई बलराम के साथ मथुरा आ पहुंचे। योजनानुसार मथुरा में मल्लयुद्ध आरम्भ हुआ। श्रीकृष्ण ने मल्लयुद्ध में कंस के चुने हुए पहलवानों को पराजित किया और अन्त में उन्होंने कंस को भी मार डाला।
कंस के वध से ही श्रीकृष्ण का राजनीतिक जीवन प्रारम्भ होता है। उस समय हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र का राज्य था। वहां के राज परिवार में कौरव और पाण्डवों के बीच कलह चल रही थी। पाण्डवों को उनका अधिकार देने के लिए कौरव कदापि तैयार नहीं थे। इस कलह को रेाकने के लिए श्रीकृष्ण ने बहुत प्रयास किया। वे पाण्डवों की ओर से सन्धि का प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास गये। श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से निवेदन किया ‘‘महाराज ! वीरों का विनाश हुए बिना ही कौरवों और पाण्डवों में शान्ति हो जाय, मैं यही प्रार्थना करने आया हूं।’’ लेकिन दुर्योधन अपने इसी हठ पर डटा रहा कि मैं युद्ध के बिना सुई की नोंक के बराबर भी भूमि पाण्डवों कों नहीं दूंगा। इस प्रकार श्रीकृष्ण का शान्ति प्रयास असफल हो गया। परिणामस्वरूप दोनों में भयंकर युद्ध हुआ जिसे महाभारत के नाम से जाना जाता है।
महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी बने। अर्जुन राज्य और सुख के लिए अपने ही कुल के लोगों तथा गुरू आदि को मारने को तैयार नहीं हुआ। उसे अपने स्वजनों को देखकर मोह उत्पन्न हो गया। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने कर्तव्य की ओर प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि आत्मा अजर और अमर है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र ग्रहण करता है, उसी प्रकार यह आत्मा जीर्ण शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में प्रवेश करती है। इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं न आग जला सकती है, न पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकती है। अतः प्रत्येक मनुष्य को फल की चिंता किये बिना अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है। यही कर्मयोग है। कृष्ण के यही उपदेश गीता के अमृत वचन हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म का जो महामन्त्र दिया है, वह मानव समाज के लिए स्थायी वरदान है। इस पर मनन कर मनुष्य सांसारिक सुख से ऊपर उठकर कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त करता है जो जीवन का वास्तविक सुख है। गीता वास्तव में भारतीय चिन्तन और धर्म का निचोड़ है और इससे सारे संसार तथा समस्त मानव जाति को एक सूत्र में बांधने की पूर्ण क्षमता है।
श्रीकृष्ण के उपदेश सुनकर अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ और उसने वीरतापूर्वक युद्ध किया। श्रीकृष्ण के कुशल संचालन के कारण महाभारत के युद्ध में पाण्डव विजयी हुए किन्तु वस्तुतः यह पाण्डवों की कौरवों पर विजय नहीं थी बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर विजय थी।
श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन अत्याचार और अहंकार से संघर्ष करते व्यतीत हुआ। कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि अनेक निरंकुश शासकों का संहार श्रीकृष्ण के ही द्वारा हुआ। अनेक निरंकुश राजाओं की प्राणाहुति महाभारत के समर क्षेत्र में हो गयी। यही नहीं अहंकार के वश में होकर श्रीकृष्ण की यादव सेना भी आपस में लड़कर समाप्त हो गयी। कहा जाता है कि एक बहेलिये द्वारा चलाया गया बाण श्रीकृष्ण के पैर में आकर लगा इसी से श्रीकृष्ण के जीवन का अन्त हो गया।
श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति नहीं एक परम्परा थे। वे दार्शनिक भी थे और कर्मयोगी भी। वे राजनीतिज्ञ भी थे और समाज सुधारक भी। वे योद्धा भी थे और शान्ति के अग्रदूत भी। वे गुरू थे और सखा भी थे इसीलिए तो लोग उन्हें ईश्वर का अवतार मानते हैं। (हिफी)