महाभारत को युद्ध का ग्रन्थ माना जाता है। सतही रूप से देखने पर यह धारणा गलत नहीं लगती। लेकिन इसके चलते महाभारत के साथ न्याय नहीं हो सका। उसे एकांगी पक्ष से देखा गया। एक लाख दो सौ उन्नीस हजार श्लोक वाले इस महाकाव्य में मानव जीवन से संबंधित सभी पक्ष समाहित हैं। इसी का विस्तार समाज, शासन और राजनीति तक होता है। इसीलिए कहा गया कि जो महाभारत में है, वहीं दुनिया में है, जो दुनिया में नहीं है, वह महाभारत में नहीं है। यह कोई मुहावरा नहीं है। वरन् तथ्यों पर आधारित विचार है। इसके पक्ष में प्रमाण उपलब्ध हैं। इन्हंे महाभारत के गहन अध्ययन से देखा जा सकता है। लेकिन महाभारत को स्थूल दृष्टि से देखना अपर्याप्त है। इस तरह उसे समझा नहीं जा सकता। स्थूल रूप से देखने पर शंकाएं उत्पन्न होती हैं। तब बहुत कुछ कल्पना पर आधारित दिखाई देगा। मन भ्रमित होगा। महाभारत में केवल कहानी का वर्णन नहीं है। जो इसे कहानी मानकर पढ़ेंगे, उन्हें इसकी व्यापकता का अनुभव नहीं होगा। इसलिए महाभारत को समझने के लिये सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। चेतना के धरातल पर उतरना होगा। तब प्रतीत होगा कि यह कथा मात्र नहीं है, यह कल्पना मात्र नहीं है। यह वास्तविकता पर आधारित दस्तावेज है। इसके पक्ष में भौगोलिक, ऐतिहासिक, पंचांग संबंधी सभी प्रमाण उपलब्ध है। दृष्टिकोण बदलने से ही महाभारत के प्रति मान्यता बदल जाती है। तब इस ग्रन्थ की उत्कृष्टता का अनुभव होगा। त्रैता युग में श्रीराम का अवतार 14 कलाओं के साथ हुआ था। ये उस युग की आवश्यकता के अनुरूप थी। लेकिन द्वापर युग की परिस्थितियां अलग थीं। इसमें बहुत जटिलता थीं। यह युग परिवर्तन का संधिकाल था। द्वापर की विदाई होनी थी। कलियुग का आगमन होना था। संक्रमण का काल था। उसी के अनुसार जटिल समस्याएं थीं। उसी के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करना था। भगवान श्री कृष्ण ने यही किया। वह सोलह कलाओं से युक्त थे। उनकी दिव्यता का अनुभव सूक्षम दृष्टि से किया जा सकता है। वह मानव या महामानव नहीं थे। इस रूप में उन्हें देखने से मन भ्रमित होगा। वह ईश्वरीय अवतार थे। सब कुछ जानते थे। इसी रूप में समस्याओं का समाधान करते हैं। वह प्रकृति और परिवर्तन चक्र को समझते हैं। अपने को उससे अलग नहीं करते। वह जानते है। कि बोध अथवा ज्ञान का होना पर्याप्त नहीं। अच्छाई पर चलने की प्रवृत्ति भी होनी चाहिए। महाभारत में इसके प्रतीक है। दुर्योधन और उसके भाइयों में आत्मबोध कम नहीं था। उन्होंने भी पाण्डवों के साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी। ज्ञान कम नहीं था। वह अच्छे और गलत का भेद जानते थे। यह उनका बोध तत्व था। लेकिन यह बोध उनके आचरण में परिलक्षित नहीं था। उनका बोध अलग था, प्रवृत्ति उसके प्रतिकूल थी। दुर्योधन इसे स्वीकार भी करता है। वह कहता है कि उसे धर्म-अधर्म का बोध है। लेकिन अधर्म पर चलना उसकी प्रवृत्ति है। इसीलिए वह पाण्डवों को सुई की नोक बराबर जमीन देने को तैयार नहीं होता। द्रौपदी का अपमान करता है। पाण्डवों को जलाकर मारने का षडयन्त्र रचाता है। यह सब उसे विनाश की तरफ ले जाता है। इस प्रकरण का संदेश स्पष्ट है। उचित का बोध हो यह आवश्यक है। उतना ही आवश्यक यह है कि उस मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति हो। तभी कल्याण संभव होगा। दोनों का पृथक होना दुष्परिणाम देता है। यह प्रसंग आज भी प्रासंगिक है। दुर्योधन सत्ता में था। सत्ता में बैठे लोगों के साथ ही समाज के अन्य लोगों को यह शाश्वत संदेश समझना चाहिए। आज हमारा शिक्षित वर्ग ही विरासत से दूर हो रहा है। पाश्चात्य सभ्यता में प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसलिए बोध और प्रवृत्ति में असंतुलन उत्पन्न हो रहा है। महाभारत में राजतंत्र है। लेकिन सत्ता निरंकुश नहीं है। राजा को सलाह देने के लिेये शक्तिसम्पन्न समिति होती है। इस में चारों वर्ण के लोग शामिल होते थे। राजा से अपेक्षा की गयी कि समिति की सलाह को महत्व देगा। शासन संचालन में उनका उपयोग करेगा। यह एक प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था थी। इसमें सामाजिक व्यवस्था का भी वर्णन मिलता है। सभी वर्णों का महत्व है। वह राजा को सलाह देने के अधिकारी हैं। दुर्योधन राजा नहीं हैं। फिर भी शासन में अनुचित हस्तक्षेप करता है। समिति की अवहेलना करता है। संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन हो रहा है। दुष्परिणाम होना ही था। इसे स्थूल आंखों से भी देखा जा सकता है। समझा जा सकता है। महाभारत की व्यवस्था यहीं तक सीमित नहीं है। इसमें प्रकृति का भी संविधान है। जिसे रीति कहा जाता है। स्थूल संविधान की अवहेलना से बचाव संभव है। लेकिन रीति के उल्लंघन की सजा निर्धारित है। इसमें कोई गवाही, बहस, प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। महाभारत तो होना ही था। लाखों लोगों का जीवन समाप्त होना ही था। रीति के उल्लंघन का परिणाम अवश्यम्भावी था। श्रीकृष्ण इसे जानते थे। अर्जुन न लड़ते, फिर भी महाभारत होता। सब जानते हुए श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देते हैं। यह युद्ध क्षेत्र की रचना है। भीषण उथल-पुथल के माहौल में गीता का ज्ञान अर्जुन को मिला। यह दुर्लभ प्रसंग था। रीति के उल्लंघन पर बड़ा संहार होना था। इसके बाद नई शुरुआत होनी थी। प्रकृति अपना कार्य करती है। आज रीति का उल्लंघन बड़ी क्रूरता़ से हो रहा है। संकट धीरे-धीरे दिखाई दे रहा है। तब श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर लांक्षन झेला। युद्ध की समाप्ति के बाद दुर्वाशा, गांधारी ने उनसे कहा- तुम चाहते तो संहार रोक सकते थे। श्रीकृष्ण जानते थे कि इस चक्र को रोकना संभव नहीं था। इसलिए वह गांधारी के श्राप पर मुस्कुराते हैं। गांधारी ने उन्हें श्राप दिया था- तुम भी अपने वंश का विनाश देखोगे। श्रीकृष्ण सहज रहते हैं। वह त्रिकालदर्शी हैं। युग संक्रमणकाल की असाधारण समस्याओं का समाधान सामान्य प्रचलित नियमों से नहीं किया जा सकता। इसके लिये प्रयास भी असाधारण करने होते हैं। इसी के लिये पृथ्वी पर अवतार होते हैं। अहंकार का नाश होता है। कर्ण को अपनी दानवीरता पर अहंकार था। श्रीकृष्ण ने इस अहंकार का नाश कराया। किसी को वीरता पर अहंकार था, कोई पुत्र मोह में समाज हित की अवहेलना कर रहा था। महाभारत मंें ऐसे सभी लोगों को दुष्परिणाम देखना पड़ा। धर्म की रक्षा में सामान्य मर्यादाएं खण्डित होती हैं। महाभारत आज भी प्रासंगिक है। इस में धर्म द्वारा रक्षा करने का विश्वास है, वही धर्म की रक्षा करने का दायित्व बोध भी है। इसमें संतुलन बनाए रखने का संदेश है। आत्मचेतना के स्तर से ही महाभारत को समझा जा सकता है। (हिफी)