इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक रूप से अहम उत्तर प्रदेश के उपचुनावों ने एक नया संदेश दिया है। यह संदेश जहाँ विपक्ष के लिए संजीवनी है वहीं भाजपा के लिए मंथन का विषय। यह विशेष रुप से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए शुभ नहीं है। प्रदेश की सत्ता के दो खास चेहरे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य खुद अपनी सीट बचाने में नाकाम रहे हैं। योगी गोरखपुर से कई बार विजय दर्ज कर चुके हैं लेकिन दलित और पिछडों के गठबंधन ने भाजपा की सारी थ्योरी जमींदोज कर दी। राज्य विधानसभाओं में भाजपा का विजय अभियान भले जारी हो सेकुलरवाद व वामपंथ का किला ढह गया लेकिन उत्तर प्रदेश में जातिवादी राजनीति फिर मजबूत हो गयी है।
भाजपा के मिशन 2019 के सामने कुछ संकट तो दिखता है। अभी तो यह एक प्रयोग था इसकी सफलता पर आगे की बुनियाद टिकी है। उत्तर प्रदेश में अगर सपा और बसपा एक साथ आयीं और उसके साथ काँग्रेस भी होगी तो आने वाले दिन भाजपा के लिए चुनौती वाले होंगे पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती का यह सियासी प्रयोग बेहद सफल साबित हुआ है। वैसे भी राजस्थान, मध्यप्रदेश और दूसरे उपचुनाव में काँग्रेस ने विजय हासिल की है। भाजपा के हाथ से अगर यूपी फिसलती है तो 2019 में दिल्ली दूर होगी। 2019 में बुआ और भतीजे की दोस्ती जारी रही तो भाजपा के सारे सियासी समीकरण ध्वस्त हो सकते हैं। भाजपा के नेताओं की यह दलील बेमानी होगी कि उपचुनाव कोई मायने नहीं रखते। देश के राजनीतिक क्षितिज पर यूपी नया संदेश देने में कामयाब हुआ है। उपचुनाव के इस परिणाम से राज्यसभा में भाजपा और कमजोर होगी उसकी मुश्किल और बढ़ेगी और कई अहम बिल पास कराने में उसे पसीने आएंगे।
भाजपा ने जिस हिंदुत्व छवि के भरोसे यूपी को जीता था उसी को योगी आदित्यनाथ भी नहीं बचा पाए यह बेहद चिंता और चिंतन का विषय है। यूपी में योगी अच्छा काम कर रहें हैं तो फिर हारे क्यों। साल भर में ही तस्वीर पलट गई है। गोरखपुर की हार कई मायने में अहम हैं। योगी और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य खुद अपनी सीट नहीं बचा पाए और भाजपा के मत भी एसपी-बीएसपी गठबंधन को चले गए। हालांकि फूलपुर कभी भाजपा का गढ़ नहीं रहा। भाजपा ने तो यहाँ पहली बार जीत दर्ज की थी। यह सीट तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की थी जहाँ से वह तीन बार चुने गए थे। 2014 के लोकसभा और 207 में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में जातिवादी तिलिस्म टूट गया लेकिन राज्य की राजनीति एकबार फिर जाति के महाजाल में फंसती हुईं दिखती है।
2014 के यूपी चुनाव में सपा-बसपा की करारी हार और भाजपा की तूफानी जीत ने जातिवादी तिलिस्म को मटियामेट कर दिया था। दलित राजनीति की मसीहा मायावती की बसपा लोकसभा में एक सीट भी नहीं जीत पायी थी लेकिन इस नयी दोस्ती में से यह सम्भावना जताई जा रही थी कि फूलपुर और गोरखपुर चुनाव को लेकर सियासी प्रयोग सफल रहा तो यह उपचुनाव 2019 की राजनीतिक प्रयोगशाला बनेगा और वही हुआ भी। हालांकि यह किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि गोरखपुर से भाजपा की हार होगी।
2014 के लोस चुनाव में मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने ६३ सीटों पर जीत हासिल की थी। यह सफर 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा लेकिन मोदी मैजिक को तोडऩे के लिए बसपा सुर्पीमो और पूर्व सीएम मायावती और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 23 साल बाद पिता मुलायम सिंह की दुश्मनी को भूल जो सियासी दाँव चला। उससे योगी का विकासवाद और हिंदुत्व धराशायी हो गया।
यूपी में राममंदिर आंदोलन के बाद जातीय समीकरण पर आधारित नयी राजनीति का उदय हुआ था। लेकिन मोदी की सुनामी ने यूपी समेत पूरे भारत में विचारधाराओं के सारे किले ध्वस्त कर दिए। पूर्वोत्तर की ऐतिहासिक जीत के बाद देश में बढ़ती भाजपा और मोदी की लोकर्पियता ने विपक्ष के कान खड़े कर दिए। पूर्वोतर फतह के बाद भाजपा यानी मोदी और अमितशाह की निगाह दक्षिण भारत के वामगढ़ केरल और काँग्रेस शासित कर्नाटक पर जा टिकी है। लेकिन उत्तर र्पदेश की इस पराजय ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। राजनीतिक रूप से बेहद अहम देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के उपचुनाव पर सब की नजरें टिकी थीं। कहते हैं कि दिल्ली की राजनीति उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों से होकर गुजरती है। फूलपूर और गोरखपुर को प्रयोग की राजनीति से जोड़ा जा रहा था। एक बार फिर वहीँ पचासी और पंद्रह के नारे गढ़े गए। अपने खिसकते जनाधार और जातियों को लामबंद करने के लिए दोनों एक साथ आए और सफलता हासिल की। भाजपा का हिंदुत्व और तीन तलाक का अचूक अस्त्र भी इस पराजय को जीत में नहीँ बदल सका।
सपा और बसपा ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में दोनों को 177 सीटें मिली थी और सपा-बसपा ने गठबंधन की सरकार बनाई थी। अब इस जीत के बाद यह सवाल उभरता है कि 2019 में यह दोस्ती आगे बढ़ी तो मायावती और अखिलेश में से कौन किसे अपना लीडर मानेगा। क्या स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती अखिलेश के नेतृत्व को स्वीकार करेंगी? लेकिन राजनीतिक दोस्ती और दुश्मनी में कोई अंतर नहीं होता है। उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 28 प्रतिशत और बहुजन समाज पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे। दोनों को जोड़ दिया जाय तो यह 50 प्रतिशत वोट हो जाता है। ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए उपचुनाव में सपा के प्रत्याशियों को हराना एक बेहद चुनौती थी। फूलपुर की विधानसभा सीट पर सपा का कब्जा है। फूलपुर लोकसभा सीट पर 2014 के चुनाव में बीजेपी को 5 लाख 3 हजार और 564 वोट मिले थे जबकि सपा को 1 लाख 95 हजार 256 और बसपा को 1 लाख 63 हजार 710 वोट मिले थे। सपा-बसपा के वोट मिलने के बाद भी बीजेपी के बराबर नहीं थे। यूपी के उपमुख्यमंत्री को 1 लाख 44 हजार 598 वोट ज्यादा मिले थे। लेकिन भाजपा खुद के वोट बचाने में नाकाम रही, जिसकी वजह से उसकी हार हुईं।
गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के त्यागपत्र की वजह से रिक्त हुईं थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर से बीजेपी को 5 लाख 39 हजार 137 वोट मिले थे। वहीं, सपा को दो लाख 26 हजार और 344 वोट और बसपा को एक लाख 76 हजार 412 वोट मिले थे। गोरखपुर के बीजेपी उम्मीदवार योगी आदित्यनाथ को बसपा और सपा के वोट मिलने के बाद भी एक लाख 36 हजार 371 वोट ज्यादा मिले थे। इसके बावजूद भाजपा यहाँ से पराजित हो गई। जबकि योगी यहाँ से लगातार कई बार से सांसद चुने जाते रहे हैं। अब यूपी की राजनीति में बड़ा सवाल यह है कि क्या मायावती-अखिलेश 2019 में बीजेपी के खिलाफ साथ आएंगे? गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में दिखी साझेदारी ने इस कयास को मजबूत कर दिया है। इस दोस्ती ने भाजपा की परेशानियां बढ़ा दी हैं। यूपी की इस सियासी प्रयोगशाला में परीक्षण के सफल होने के बाद गैर भाजपाई एकता के लिए नयी संजीवनी मिल गई है। मोदी और शाह कम्पनी के खिलाफ काँग्रेस, वामपंथ और दूसरी विचारधारा के दल इसके बाद एक साथ आ सकते हैं। यानी देश की सियासत दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ में विभाजित हो जाएगी। (हिफी)
