विश्व हीमोफ़ीलिया दिवस का उद्देश्य हीमोफ़ीलिया रोग और रक्त बहने संबंधी अन्य बीमारियों के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाना है।हीमोफ़ीलिया रक्त से जुड़ी एक ख़तरनाक और जानलेवा बीमारी है। इस बीमारी में चोट लगने या किसी अन्य वजह से रक्त बहना शुरू होने पर बन्द नहीं होता, जिस कारण यह जानलेवा सिद्ध होती है।’शाही बीमारी’ कहे जाने वाले रोग ‘हीमोफ़ीलिया’ का पता सर्वप्रथम उस वक्त चला था, जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के वंशज एक के बाद एक इस बीमारी की चपेट में आने लगे। शाही परिवार के कई सदस्यों के हीमोफ़ीलिया से पीड़ित होने के कारण ही इसे ‘शाही बीमारी’ कहा जाने लगा था। पुरुषों में इस बीमारी सम्भावना सबसे अधिक होती है।हीमोफ़ीलिया एक आनुवांशिक बीमारी है, जो महिलाओं की तुलना में पुरुषों में अधिक होती हैऔर औरतों इसकी वाहक होती है। । इसके प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 1989 से ‘विश्व हीमोफ़ीलिया दिवस’ मनाने की शुरुआत की गई। तब से हर साल ‘वर्ल्ड फ़ेडरेशन ऑफ़ हीमोफ़ीलिया’ के संस्थापक फ्रैंक कैनेबल के जन्मदिन 17 अप्रैल के दिन ‘विश्व हीमोफ़ीलिया दिवस मनाया जाता है। फ्रैंक की 1987 में संक्रमित ख़ून के कारण एड्स होने से मौत हो गई थी। डब्ल्यूएफएच एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है, जो इस रोग से ग्रस्त मरीजों का जीवन बेहतर बनाने की दिशा में काम करता हैlहीमोफ़ीलिया दो प्रकार का होता है। इनमें से एक हीमोफ़ीलिया ‘ए’ और दूसरा हीमोफ़ीलिया ‘बी’ है। पांच हज़ार से दस हज़ार पुरुषों में से एक के हीमोफ़ीलिया ‘ए’ ग्रस्त होने का खतरा रहता है, जबकि 20,000 से 34,000 पुरुषों में से एक के हीमोफ़ीलिया ‘बी’ ग्रस्त होने का खतरा रहता है।
लक्षण : -शरीर में नीले नीले निशानों का बनना नाक से खून का बहना आँख के अंदर खून का निकलना जोड़ों की सूजन खून के थक्का होने का समय बढ़ जाता है
उपचार : – इस बीमारी का कोई मुख्य उपचार नहीं है, इसमें बार-बार रुधिर-देना अच्छा होता है। ‘रिप्लेसमेंट थेरैपी’ हीमोफीलिया का सबसे महत्वपूर्ण इलाज है। इसके अंतर्गत उन क्लॉटिंग फैक्टर्स को रिप्लेस किया जाता है जो या तो कम हैं या बिल्कुल नहीं हैं। ये फैक्टर रोगी को नियमित रूप से दिए जाते है।
महिलाओं के इस बीमारी से ग्रस्त होने का खतरा बहुत कम होता है। वे ज्यादातर इस बीमारी के लिए जिम्मेदार आनुवांशिक इकाइयों की वाहक की भूमिका निभाती हैं। वर्तमान में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस रोग से ग्रस्त 70 प्रतिशत मरीजों में इस बीमारी की पहचान तक नहीं हो पाती और 75 प्रतिशत रोगियों का इलाज नहीं हो पाता। इसकी वजह लोगों के पास स्वास्थ्य जागरुकता की कमी और सरकारों की इस बीमारी के प्रति उदासीनता तो है ही साथ ही एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है कि इस बीमारी की पहचान करने की तकनीक और इलाज महंगा है। परिणामस्वरूप इस बीमारी से ग्रस्त ज्यादातर मरीज बचपन में ही मर जाते हैं और जो बचते हैं, वे विकलांगता के साथ जीवनयापन करने को मजबूर होते हैं।एजेन्सी।