हिन्दू धर्म में भगवान शिव को सबसे प्राचीन देवता माना गया है। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में किसी न किसी रूप में शिव की आराधना की जाती रही है। कैलाश पर्वत उनका निवास स्थान माना जाता है जो आजकल चीन में है। भगवान शिव के नाम पर ही प्रदोष व्रत रखा जाता है। शिव के कई व्रतों में यह एक महत्वपूर्ण व्रत हैं जो बहुत ही फलदायक माना जाता है। हालांकि ज्यादातर स्त्रियां ही इस व्रत को रखती हैं लेकिन पुरूषों को भी प्रदोष व्रत रखते देखा गया है। प्रदोष एक विशेष समय को कहते हैं। सूर्यास्त के बाद रात्रि का पहला प्रहर जिसे सायंकाल कहा जाता है, उस सायंकाल और दिन के तीसरे प्रहर के संधिकाल को प्रदोष काल कहते है। इस व्रत के करने से कई दोषों का निवारण होता है। तिथियों के अनुसार यह व्रत मनाया जाता है। त्रयोदशी की तिथि भगवान शंकर की उपासना के लिए शुभ होती है। इसलिए द्वादशी और त्रयोदशी के संधिकाल में प्रदोष का व्रत रखा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक महीने में दो प्रदोष व्रत होते है।
प्रदोष व्रत अलग-अलग दिनों में होते हैं तो उन्हें उसी दिन के नाम पर जाना जाता है और उस प्रदोष व्रत का अलग-अलग फल बताया जाता है। रविवार को पड़ने वाला प्रदोष भानु प्रदोष अथवा रवि प्रदोष कहलाता है। रविवार सूर्यदेव का दिन है और उस दिन सूर्यदेव और शंकर भगवान की एक साथ आराधना हो जाती है। इस व्रत के करने से जीवन में सुख-शांति आती है, व्रत करने वाले के परिजन दीर्घायु को प्राप्त करते है। इसी प्रकार सोमवार को पड़ने वाला प्रदोष सोम प्रदोष कहा जाता है यह व्रत आपकी मनो कामना ने पूर्ण करता है और घर की नकारात्मक ऊँर्जा को समाप्त कर सकारात्मक ऊर्जा देता है। मंगलवार का प्रदोष व्रत भौम प्रदोष कहलाता है। मंगलवार हनुमान जी का प्रिय दिन है। इसलिए उसदिन के प्रदोष व्रत से शंकर जी एवं हनुमान जी प्रसन्न होते है। इस प्रदोष व्रत को करने वाले स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से मुक्त हो जाते है। बुधवार को पड़ने वाला प्रदोष व्रत सौम्यवारा प्रदोष कहा जाता है इस प्रदोष व्रत से शिक्षा एवं ज्ञान की प्राप्ति होती है। वृहस्पतिवारा को पड़ने वाला प्रदोष व्रत गुरूवारा प्रदोष कहा जाता है। गुरूवारा प्रदोष हमारे पूर्वजों को प्रसन्न करता है। इसी प्रकार शुक्रवार को पड़ने वाला प्रदोष भ्रगुवारा प्रदोष कहा जाता है। इसमें व्रत करने से धन, सम्पदा एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है। शनिवार को पड़ने वाला प्रदोष शनि प्रदोष कहलाता है। इस प्रदोष व्रत को करने वाले नौकरी में पदोन्नति प्राप्त करते हैं और व्यापार कर रहे हैं तो उसमें लाभ के अवसर बढ़ जाते हैं।
प्रदोष व्रत में भगवान शिव और उनके परिवार की पूजा की जाती है। यह व्रत निर्जल अर्थात बिना जलपान किये भी किया जाता है। त्रयोदशी के दिन पूरे दिन व्रत करके प्रदोष काल में स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन कर पूर्व की दिशा में मुंह करके भगवान शिव को पहले गाय के दूध से और फिर गंगाजल एवं स्वच्छजल से स्नान करायें। दीपक जलाकर रखें और सर्वपूज्य गणेश की पूजा करें। पान एवं जनेऊ के साथ बेलपत्र अर्पित करें। भगवान शिव की कथा पढ़ें और आरती करके प्रसाद का भोग लगाएं।
प्रदोष व्रत की कई कथाएं हैं। इनमें से एक कथा इसप्रकार कही जाती है- प्राचीनकाल में एक गरीब पुजारी हुआ करता था। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा अपने पुत्र को लेकर भरण-पोषण के लिए भीख मांगते हुए शाम तक घर वापस आती थी। एक दिन उसकी भेंट विदर्भ राज्य के राजकुमार से हुई जो अपने पिता की मृत्यु के बाद दर-दर भटकने लगा था। उसकी यह हालत देखकर पुजारी की पत्नी बहुत दुखी हुई। वह उस राजकुमार को अपने घर ले आयी और पुत्र के समान उसकी देखभाल करने लगी। एक दिन पुजारी की पत्नी अपने दोनों पुत्रों को शांडिल्य ऋषि के आश्रम में ले गयी वहां उसने ऋषि से प्रदोष व्रत की विधि एवं कथा सुनी। घर वापस आकर पुजारी की पत्नी ने प्रदोष व्रत किया। यह क्रम निरंतर चलता रहा। एक दिन उस विधवा के दोनों बालक वन में घूमने गये। पुजारी का बेटा तो लौट आया लेकिन राजा का बेटा वन में रह गया। उस राजकुमार ने वहां गंधर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा और उनसे बात करने लगा। उनमें एक कन्या का नाम अंशुमती था। उस दिन वह राजकुमार देर से घर लौटा।
दूसरे दिन फिर से राजकुमार वन में उसी जगह गया, जहां उसे अंशुमती मिली थी। उस समय अंशुमती के साथ उसके माता-पिता भी मौजूद थे। अंशुमती के माता-पिता ने राज कुमार को पहचान लिया और कहा कि आप तो विदर्भ के राजकुमार हैं। आपका नाम धर्मगुप्त है। अंशुमती के माता-पिता को राजकुमार धर्म गुप्त पसंद आ गया और उन्होंने कहा कि शिव जी की कृपा से हम अपनी पुत्री का विवाह आपसे करना चाहते हैं। क्या आप इस विवाह के लिए तैयार हैं। राजकुमार धर्मगुप्त ने भी विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे दी और उन दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया।
राजा धर्मगुप्त और उनकी पत्नी अंशुमती को गंधर्व सेना ने भी अपना राजा मान लिया। और गंधर्वों की विशाल सेना के साथ उन्होंने विदर्भ पर हमला कर दिया। घमासान युद्ध हुआ और धर्मगुप्त को विजय हासिल हुई। रानी अंशुमती के साथ वे सुखपूर्वक राज्य करने लगे। उन्हें अपनी वह मां भी याद आयी जिसने मुसीबत के समय उनका पालन-पोषण किया था। राजा धर्मगुप्त पुजारी की पत्नी और उसके बेटे को भी अपने साथ राजमहल में ले आये और सुख सम्पन्नता से सभी रहने लगे। पुजारी की पत्नी के प्रदोष व्रत ने न सिर्फ उसका दुख और दरिद्रता दूर की बल्कि राजा के बेटे को भी राजगद्दी दिला दी। एक दिन अंशुमती ने राजकुमार धर्मगुप्त से इन सभी बातों के पीछे का रहस्य जानना चाहा तो राजकुमार ने अंशुमती को अपने जीवन की पूरी बात और प्रदोष व्रत के महत्व को बताया। रानी अंशुमती ने प्रदोष व्रत रखना शुरू किया और रानी को देखकर राज्य की अन्य महिलाएं भी प्रदोष व्रत करने लगीं।
इस व्रत को किसी कारण नहीं कर पा रहे है और कुछ दिन बाद फिर शुरू करने वाले हैं तो श्रद्धा पूर्वक इसका उद्यापन भी कर सकते हैं। उद्यापन में भी उसी प्रकार की पूजा करके भगवान शिव एवं उनके परिवार से क्षमा मांगते हुए कहना चाहिए कि विवशता के चलते अभी हम उद्यापन कर रहे हैं, आपका व्रत फिर करेंगे। इस प्रकार शिव जी और उनके परिवार की कृपा हमेशा प्राप्त होती रहेगी। (हिफी)