नरेश दीक्षित संपादक समर विचार । 14 मई 1954 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ राजेंद्र प्रसाद ने एक आदेश पारित किया था । आदेश के जरिए भारत के संविधान में एक अनुच्छेद 35-ए जोड़ दिया गया । संविधान की धारा 370 के तहत यह अधिकार दिया गया कि 35-ए संविधान का वह अनुच्छेद है जो जम्मू-कश्मीर विधान सभा को लेकर प्राविधान करता है कि वह राज्य के स्थायी निवासियों को परिभाषित कर सके । वष॔ 1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान बना जिसमें स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया । कश्मीर के संविधान के मुताबिक स्थायी नागरिक वह व्यक्ति है जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या उससे पहले के 10 सालों से राज्य में रह रहा हो और उसने वहां सम्पति हासिल की हो । अनुच्छेद 35-ए की वजह से जम्मू-कश्मीर में पिछले कई दशको से रहने वाले बहुत से लोगो को कोई भी अधिकार नही मिला है । यहां तक की 1947 मेें बँटवारे में पश्चिम पाकिस्तान छोड़कर जम्मू-कश्मीर में बसे हिन्दू परिवार आज तक शरणार्थी जीवन व्यतीत कर रहे है । एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1947 में जम्मू में 5 हज़ार 764 परिवार आकर बसे थे इन परिवारो को भी कोई नागरिक अधिकार प्राप्त नही है । अनुच्छेद 35-ए की वजह से ये लोग वहाँ सरकारी नौकरी भी प्राप्त नही कर सकते, और न ही इन लोगो के बच्चे यहां व्यवसायिक शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थानो में पढ़ सकते है । जम्मू-कश्मीर का गैर स्थायी नागरिक लोक सभा चुनाव में वोट तो दे सकता है, लेकिन वह राज्य के स्थानीय निकाय व पंचायत चुनाव में वोट नही दे सकता । अनुच्छेद 35-ए के मुताबिक अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के के साथ शादी कर लेती है तो उसके सारे अधिकार समाप्त हो जाते है । साथ ही उनके बच्चों के भी सभी अधिकार खत्म हो जाते है ।
कश्मीर के आम नागरिक ऐसे वीटो पावर (35-ए ) को किसी भी दशा में समाप्त नही होने देना चाहते क्योंकि इसी अनुच्छेद के कारण शेष देश से उन्हे अलग परिभाषित करता है? केंद्र की सरकार इसे हटाना तो चाहती लेकिन हिम्मत नही जुटा पा रही है ? /