एजेंसी । मैदाने कर्बला में शहीद हुए इमाम हुसैन (अस) व उनके 71 अनुयायियों की शहादत के चालीस दिन बाद चेहल्लुम मनाया जाता है। इमाम हुसैन
(अस ) मोहर्रम की दसवीं पर शहीद हुए थे, चालीसवें पर उनके और उनके साथियों की शहादत को एक बार फिर याद करेंगे । हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम और मानवता के लिए यजीदियों की यातनाएं सही। करबला के मैदान में इमाम हुसैन (अस ) का मुकाबला ऐसे जालिम व जाबिर शख्शियत से था, जिसकी सरहदें मुलतान और आगे तक फैली हुई थी। उसके जुल्म को रोकने के लिए इमाम हुसैन (अस ) आगे बढ़े। उस समय उनके साथ मात्र 72 हकपरस्त थे, तो दूसरी तरफ यजीद की 22000 हथियारों से लैस फौज थी।
ईमान के लिए वे अपना सब कुछ गंवाने को तैयार थे। करबला की जंग देखने में एक छोटी सी जंग थी, लेकिन यह जंग दुनिया की सबसे बड़ी जंग साबित हुई। जिसमें मुट्ठी भर लोगों ने अपनी शहादत देकर दुनिया को रोशनी दिखाई थी। शहीद हो कर इस्लाम का परचम लहराया था। यजीद ने केवल मोर्चा जीता था लेकिन ¨जदगी का जंग तो वह हार गया था। हजरत इमाम हुसैन (अस )ने शहादत कबूल करके ये पैगाम दिया कि शहादत मौत नहीं जो दुश्मन की तरफ से हम पर लादी जाती है। बल्कि शहीद एक मनचाही मौत है जिसे मुजाहिद पूरी आगाही, मंतिक सउर बेदारी और अपनी बसीरत के साथ चुनता है। मुहर्रम की दसवीं तारीख को करबला के मैदान में नवासा-ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन ने 72 हकपरस्तों के काफिले के साथ दीन-ए- रसूल को बचाने के लिए अपनी और अपने घर व खानदान वालों के साथ कुर्बानी दी। इसमें मर्द व दुधमुंहे बच्चे भूखे-प्यासे शहीद हो गए थे। हजरत इमाम हुसैन (अस ) की शहादत के बाद काफिले में बची औरतें व बीमार लोगों को यजीद की सेना ने गिरफ्तार कर लिया था। उनके खेमे में आग लगा दी गई। यजीद के कब्जे वाले काफिले को यजीद ने मदीना जाने की अनुमति दी और सैनिकों से वापस पहुंचाने को कहा। हजरत-ए-जैनुल आब्दीन मदीना से वापसी के दौरान करबला पहुंचे और शोहदा-ए-करबला की कब्र की जयारत की। जो हजरत इमाम हुसैन (अस ) की शहादत का चेहल्लुम (चालीसवां) दिन था। हजरत इमाम हुसैन (अस ) के शहादत की याद में 40वें दिन चेहल्लुम मनाया जाता है।फाइल फोटो