लाहौर में मुंशी नवल किशोर के दोस्त मुंशी हरसुख राय मशहूर अखबार कोहिनूर निकालते थे। जहां मुंशी जी प्रकाशन के अलावा प्रबंधन के तमाम काम देखते थे। इसके बाद वह आगरा रहे वहां भी अखबार निकाला। मुंशी जी के लखनऊ आने की दो वजह थीं। पहली लखनऊ शहर उस वक्त उर्दू का गढ़ था। दूसरा अंग्रेजों का तंत्र था जिसमें उनके बहुत से जानने वाले लोग थे। तब गदर के बाद प्रेस पर रोक थी, जिससे यहां अखबार शुरू करने में आसानी हुई। तहजीब और संस्कृति की मिसाल लखनऊ शहर को उन्होंने अपने प्रकाशनों के जरिए दुनिया में पहचान दिलाई। एक नए ककहरे के साथ जंगे आजादी के संघर्ष के बीच राष्ट्रीयता और नई सोच की कई किताबों का प्रकाशन किया। 1857 में दिल्ली के पतन के बाद ब्रिटिश हुकूमत से जूझते लखनऊ को भी दुनिया में प्रकाशन का केंद्र बनाया। 3 जनवरी 1836 में नवलकिशोर आगरा-अलीगढ़ के यशोदा देवी और यमुना प्रसाद के ब्राह्मण परिवार में जन्मे। आगरा कॉलेज से फारसी और अंग्रेजी की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने छोटी सी उम्र में उर्दू के पत्र सफीरे आगरा लिखना शुरू कर दिया।
मुंशी नवल किशोर प्रेस पर लखनऊ यूनिवर्सिटी से शोध करने वाले इकलौते शोधकर्ता हिमांशु बाजपेयी बताते हैं कि नवल किशोर प्रेस का पहला काम अवध अखबार था। जो उनकी सबसे पहले नंबर पर खिदमत नॉर्थ इंडिया के पहले उर्दू अवध अखबार को शुरू कर 92 साल तक प्रकाशित किया गया। यह दुनिया में उर्दू पत्रकारिता का अनूठा अखबार साबित हुआ। इसी के नाम पर इस प्रेस को मतबा ए अवध अखबार के नाम से जाना गया। अवध अखबार में फसाना ए आजाद रतन नाथ सरशार की रचना को शृंखलाबद्ध तरीके से प्रकाशित किया। अपने जमाने में नवल किशोर प्रेस ने संस्थागत तरीके से जितने बड़े स्तर पर उर्दू और अन्य भाषाओं की किताबों का प्रकाशन किया। वह हिन्दुस्तान में कोई दूसरा प्रकाशक नहीं कर पाया। इस बात की तस्दीक उस दौर के नामचीन पत्रकार अब्दुल हलीम शरर ने अपनी किताब गुजिश्ता लखनऊ में भी की है। अवध अखबार ने फ्रीडम मूवमेंट में अहम योगदान दिया। जोरदार तरीके से अंग्रेजों का खुला विरोध किया। साइमन कमिशन के लखनऊ आगमन पर बेखौफ रिपोर्टिंग इतिहास का हिस्सा बनी। वहीं जलियांवाला बाग कांड जैसी घटनाओं को भी प्रमुखता से उठाया।
लाहौर में मुंशी जी के दोस्त हरसुखराय कोहिनूर नाम से प्रेस चलाते और इसी नाम का उर्दू का अखबार भी प्रकाशित करते थे। नवल किशोर ने मुंशी हरसुखराय के प्रति सम्मान जताने के लिए अपने नाम में भी मुंशी लगाना शुरू कर दिया। बाद में फौजदारी के एक मामले में मुंशी हरसुखराय को तीन साल की सजा हो गई, लेकिन नवल किशोर ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जब मुंशी हरसुख रिहा हुए तो उन्होंने प्रभावित होकर नवल किशोर को एक हैंडप्रेस उपहार दिया। इसे लेकर नवल किशोर लखनऊ आए और 23 नवंबर 1858 को छपाई की एक छोटी सी मशीन से वजीरगंज में मुंशी नवल किशोर प्रेस लगाया। यह आगे चलकर वजीरगंज से गोलागंज और रकाबगंज होते हुए हजरतगंज पहुंचा।
नवलकिशोर प्रेस ने इतिहास में कई रेकार्ड बनाए। इसमें पहली बार पूरी और एक मुकम्मल कुरान छापी जिसके आगे 17 से ज्यादा संस्करण निकाले। पचास से ज्यादा टीकाएं भी इसमें जोड़ दी जाएं तो इस्लाम की दृष्टि से यह एक ऐसा काम था, जो किसी इस्लामी देश ने भी नहीं किया। 1868 में मुंशी नवलकिशोर दुनिया के अकेले ऐसे प्रकाशक बन गए थे, जिन्होंने सबसे ज्यादा कलात्मक और सुंदर ढंग से छपी कुरान एक रुपये आठ आने में उपलब्ध कराई। ये पहली बार था जब सामान्य मुसलमान को अपनी पवित्र कुरान इतनी कम कीमत में मिलनी शुरू हुई। नवल किशोर प्रेस में कुरान और हदीस की छपाई में उनकी पवित्रता का ध्यान रखा जाता था। हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्म की पवित्र किताबों के मामले में भी तय होता था कि वही कर्मचारी उनकी छपाई के काम में लगें जो साफ सुथरे और नहाए-धोए रहते हों।
1870 आते-आते यह प्रेस बुलंदी तक पहुंच चुका था। उस वक्त रोजाना एक लाख से ज्यादा पन्नों की छपाई होने लगी और पेरिस के एलपाइन प्रेस के बाद वह दुनिया का सबसे बड़ा प्रेस हो गया। इससे 1200 कर्मचारियों के परिवारों का बसर होता था। इस प्रेस का उस समय सालाना डाकखर्च 50 हजार रुपये था। बताते हैं कि उन दिनों इस प्रेस को हर साल पच्चीस हजार से ज्यादा चिट्ठियां मिलती थीं। इन चिट्ठियों के सुविधाजनक आदान प्रदान के लिए सरकार के डाक विभाग ने लखनऊ का जनरल पोस्ट ऑफिस इस प्रेस के बगल में बनाया। 1871 में इस प्रेस ने इंग्लैंड से एक लाख इकत्तीस हजार रुपये का कागज खरीदा था और बाद में इसकी कागज की मांग पूरी करने के लिए मुंशी नवलकिशोर ने लखनऊ में ही निशातगंज के गोमती किनारे लखनऊ पेपर मिल लगाई। इस प्रेस की प्रेरणा से देश भर में 33 लाइब्रेरी खुलीं और एक वक्त इसने प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को 2000 किताबें दीं थीं।
मिर्जा गालिब रकाबगंज स्थित मुंशी नवल किशोर की शाहमऊ कोठी में ठहरते थे। मुंशी ने अपने और गालिब के खतों की किताब भी छापीं। प्रेमचंद उनके प्रेस में आया करते थे। ये हैरानी की बात है कि 1960 के आसपास तक लगभग सात सौ पांडुलिपियों जिनमें एक दर्जन से अधिक दास्तानें थीं नवल किशोर के स्टोर में पांडुलिपियों के रूप में मौजूद थीं और जो शायद अब तक नहीं छप पाईं। ईरान के बादशाह शाह ईरान ने कहा था कि हिन्दुस्तान आने के मेरे दो मकसद हैं। एक वायसराय से मिलना और दूसरा मुंशी नवल किशोर से।
1858 के शुरू में मुंशी नवल किशोर लाहौर से लखनऊ आए और नवल किशोर प्रेस लगाया। यहां से उन्होंने लगभग पांच हजार किताबें छापीं। जो ऐतिहासिक रेकॉर्ड था। उस वक्त बिजली नहीं थी। प्रकाशनों में लगभग 65 प्रतिशत उर्दू, अरबी और फारसी और बाकी 35 प्रतिशत संस्कृत, हिन्दी, बंग्ला, गुरमुखी, मराठी और अंग्रेजी की किताबें थीं। इनमें विज्ञान और कला के भी सभी विषय शामिल थे। मुंशी जी के निधन के बाद 1950 तक जो महत्वपूर्ण साहित्यकार प्रेस से जुड़े रहे उनमें नौबत राय नजर, पंडित द्वारिका प्रसाद वामिक, पंडित विष्णु नारायण दर, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचंद, पंडित रूप नारायण पांडेय, दुलारे लाल भार्गव, कृष्ण बिहारी मिश्र और बांके बिहारी भटनागर भी थे।
मुंशी जी का एक महत्वपूर्ण काम था हिन्दू, इस्लाम और सिख धर्म की पवित्र किताबों का हिन्दी, उर्दू और गुरुमुखी में अनुवाद जिसमें रामायण के उर्दू और गुरुमुखी संस्करण शामिल हैं। इस काम से भारत में सांप्रदायिक सद्भाव को बहुत बल मिला। मुंशी जी भारत में पहली पंक्ति के कारोबारी थे।
जनवरी 1859 से उर्दू का अवध अखबार प्रकाशित करना शुरू किया। पहले ये साप्ताहिक था बाद में दैनिक हो गया और 1950 तक चलता रहा। कुछ ही समय में उनका प्रेस विश्व प्रसिद्ध हो गया और उसने पेरिस के अल्पाइन प्रेस के बाद दूसरा स्थान हासिल कर लिया। 1850 में उनकी शादी सरस्वती देवी से हुई। 1851 में उन्होंने अखबार सफीर में अखबारी लेखन का प्रशिक्षण लिया।
1885 में नवाब आगा मीर के महल को खरीदकर उसमें मुंशी नवल किशोर हाई स्कूल स्थापित किया। जो बाद में 1887 में इसे सरकार को स्थानांतरित करके उसका नाम गवर्नमेंट जुबली कॉलेज कर दिया। लखनऊ के डफरिन अस्पताल की इमारत उन्हीं की देन है।
– हजरतगंज की रौनक बढ़ाने के लिए उन्हें 1875 में लखनऊ नगर पालिका का पहला भारतीय सदस्य बनाया गया।
– समाज और देश के प्रति उनकी महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए सरकार ने 1877 में उन्हें कैसरे हिंद पदक से नवाजा और 1888 में सीआईई की डिग्री से सम्मानित किया।
– 1885 के पहले कांग्रेस अधिवेशन में भी मुंशी जी ने हिस्सा लिया था।
– भारत सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में उनकी महत्वपूर्ण सेवाओं के सम्मान में उनके 75वें श्रद्धांजलि दिवस पर 1970 में एक विशेष डाक टिकट जारी किया।
– मनु स्मृति और शिव पुराण के उर्दू अनुवाद प्रकाशित हुए और महाभारत का अनुवाद छापा गया।
– भारत में यूनानी चिकित्सा को जीवित रखने और हकीमों के सम्मान को विश्वस्तर पर परिचित कराने के लिए मुंशी नवल किशोर ने 150 चिकित्सा की किताबें छापीं।
– 1871 में लखनऊ की अपर इंडिया पेपर मिल उन्हीं की देन थी जो उत्तर भारत का पहला कागज बनाने का कारखाना था।
– नवल किशोर प्रेस की एक बहुत बड़ी उपलब्धि दास्तान अमीर हमजा की छियालीस जिल्दों का प्रकाशन है।
– मुंशी नवल किशोर का निधन 19 फरवरी 1895 को लखनऊ में हुआ। NBT से