नाइश हसन ।1928 में जब जिन्ना को सर की उपाधि देने की बात चली थी तो रत्ती ने यहाँ तक कहा था कि मेरे पति ने सर का ख़िताब मंज़ूर किया तो मैं उनसे तलाक़ ले लूँगी। रत्ती यानी रतनबाई पेटिट का आज, 20 फरवरी को जन्मदिन और पुण्यतिथि दोनों है।
20 फरवरी, 1918 को जब पेटिट परिवार में रत्ती के अट्ठारहवें जन्मदिन को धूमधाम से मनाने की तैयारियां चल रही थीं, उसी दिन 18 की होते ही वह पिता का घर छोड कर जिन्ना के पास चली गईं थी। रत्ती ने 1919-1920 में कांग्रेस के कलकत्ता और नागपुर अधिवेशन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। रौलट कानून का विरोध और उसके कुछ ही अरसे बाद आल इण्डिया ट्रेड यूनियन का पहला अधिवेशन हुआ। अधिवेशन में रत्ती ने बहुत धाराप्रवाह और ओजस्वी भाषण दिया जिसे मुम्बई के हल्कों में अरसे तक याद किया जाता रहा। अंग्रेजों की गुलामी के प्रति अपने गुस्से को कई मौकों पर उन्होंने जाहिर किया था।
रत्ती की हाज़िरजवाबी अंग्रेजों को बहुत चुभती थी। शिमला अधिवेशन में उन्होंने वॉयसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड का अभिवादन हाथ जोड़ कर किया। प्रोग्राम के ख़त्म होने पर चेम्सफोर्ड ने अपनी रौबीली और गुस्सैल आवाज में कहा- मिसेज जिन्ना आप के पति का सियासी मुस्तकबिल बहुत शानदार है, इसलिए आप जहाँ हैं उसी के मुताबिक व्यवहार करें। ‘इन रोम यू मस्ट डू एज़ रोमन डू’। उन्होंने बहुत नरमी और अदब से फौरन ही एक सख्त जवाब दिया, ‘ठीक वही तो किया है मैंने, हिन्दुस्तान में मैंने आपका अभिवादन हिन्दुस्तानी ढंग से ही तो किया।’ इस जवाब ने लॉर्ड चेम्सफोर्ड को खामोश कर दिया।
इसी तरह 1921 में लॉर्ड रीडिंग हिन्दुस्तान के वॉयसराय थे। उन्होंने एक बार रत्ती से कहा कि उनके मन में जर्मनी जाने की बहुत इच्छा है, पर वह वहाँ जा नहीं सकते। रत्ती ने पूछा ऐसा क्यों? उन्होंने जवाब दिया कि जर्मन हम अंग्रेजों को पसन्द नहीं करते। इसलिए मैं वहाँ जा नहीं सकता। इस पर हाजिरजवाब रत्ती ने सहज भाव से लॉर्ड रीडिंग से पूछा- ‘महामहिम फिर आप यहाँ कैसे आ गए?’ रत्ती के इस प्रश्न का व्यंग्यार्थ रीडिंग फौरन समझ गए।
1928 में जब जिन्ना को सर की उपाधि देने की बात चली थी तो रत्ती ने यहाँ तक कहा था कि मेरे पति ने सर का ख़िताब मंज़ूर किया तो मैं उनसे तलाक़ ले लूँगी।
शेक्सपियर ने बड़े बेहतरीन अंदाज में एक बात कही है ‘मर्द जब प्यार करते हैं तो बसन्त होते हैं और शादी होते ही शीत ऋतु में बदल जाते हैं।’ कुछ ऐसा ही जिन्ना के साथ भी था। रत्ती अपनी शामें जिन्ना के साथ गुज़ारना चाहती थीं। प्रेम की जो रसधार रत्ती के उनकी जिन्दगी में आने से फूट पड़ी थी वो जिन्ना की बेरूखी, कड़कमिजाजी, और रूखेपन से खत्म होने लगी। धीरे-धीरे नतीजा ये हुआ कि उपेक्षित रत्ती 1928 में मुम्बई के ताज होटल में रहने लगीं। उस वक्त देश में साम्प्रदायिक ज़हर अपने उफान पर था। अख़बारों के जरिए रत्ती को जिन्ना के बदलते रातनीतिक तेवर, और उनके साम्प्रदायिक राजनीति के प्रति बढ़ते रुझान का पता चलने लगा था।
रत्ती को इन ख़बरों ने अन्दर तक खोखला कर दिया था। वह व्यथित रहने लगीं थी। वो जिन्ना को इस ओर मुड़ता देख बेचैन हो उठीं थी। जिन्ना में इस अप्रत्याशित बदलाव ने रत्ती का कलेजा तार-तार कर दिया था। फिक्र की इस हद ने उनके फेफड़े क्षतिग्रस्त कर दिए थे। शायद रत्ती जिन्ना के जीवन में कुछ और वक्त तक बनी रहतीं तो सम्भवतः जिन्ना इतनी तेजी से साम्प्रदायिक राजनीति की ओर उन्मुख न हुए होते। गाँधी जी के साथ रत्ती के पत्र व्यवहार का सिलसिला कभी नहीं टूटा। उन्होंने गाँधी जी का साथ हमेशा दिया, आर्थिक सहयोग भी बड़े पैमाने पर किया।
जिन्ना की जिद उन्हें रत्ती और वतनपरस्ती से कहीं दूर लेकर चली जा रही थी। जिसे रत्ती बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। दूर रहते हुए भी ये फिक्र उनका पीछा नही छोड़ रही थी। वह कमजोर होने लगीं। दबे पाँव मौत रत्ती की तरफ बढ़ी चली आ रही थी और इस सूनेपन से लड़ते हुए 20 फरवरी 1929 को 29 साल की उम्र में एक ज़हीन, हिम्मतवर, खुशदिल, प्रतिभासम्पन्न युवती जिसे देश को गुलामी से मुक्त देखने की ख़्वाहिश थी, हमेशा के लिए सो गईं। मुम्बई के थाना में उनकी मज़ार है जहाँ अब कोई फातेहा पढ़ने वाला भी नहीं जाता। ज़माने ने रत्ती के योगदान को जिन्ना के बड़े क़द के आगे आसानी से भुला दिया।
औरतों को आसानी से भुला दिया जाता है। उनके योगदान को कम आँका जाता है। रत्ती से अलग होकर जिन्ना ने जो किया वो आज तक और शायद रहती दुनिया तक एक नासूर ही बना रहेगा। जिसकी पीड़ा सभी हिन्दुस्तानी भुगत रहे हैं। जहाँ पाकिस्तान ने रत्ती को जिन्ना की काफिरा बीवी कह कर हिकारत की नज़रों से देखा, वहीं हिन्दुस्तान ने भी रत्ती को आसानी से भुला दिया। उन्हें स्वतन्त्रता सेनानी का दर्जा तक नसीब नहीं हुआ जिसकी वो हकदार थीं। रत्ती की उलझी सी जिन्दगी की ये बस एक मुख्तसर पेशकश है। उस प्रतिभावान देशभक्त महिला को हम अपनी खिराजेअक़ीदत पेश करते हैं।