- 1400 साल पहले मुहर्रम महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन(अस) को उनके परिवार और 72 साथियों समेत मार दिया गया था। इमाम हुसैन (अस) पर ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ। मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों का मातम मनाया जाता है।
क्यों हुई थी जंग।
यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन (अस) करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है।
यजीद को इस्लाम का शासक मानने से मोहम्मद साहब के घराने ने इन्कार कर दिया था, क्योंकि यजीद के लिए इस्लामिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात से इनकार के साथ ही इमाम हुसैन (अस) ने फैसला लिया कि अब वह अपने नाना का शहर मदीना छोड़ देंगे, और इराक जायँगे ताकि मदीना में अमन कायम रहे।
इमाम हुसैन (अस) मदीना छोड़कर परिवार और कुछ साथियों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं, जिन्हें इमाम हुसैन (अस) ने मानने से इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के बदले में यजीद ने जंग करने की बात रखी। इस दौरान इमाम हुसैन (अस) इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे।
ये बात साफ थी कि इमाम हुसैन(अस) जंग के इरादे से नहीं चले थे। उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह महीने के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था, यानी उनका लड़ाई का कोई इरादा नहीं था। सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन (अस) के पास जितना खाना और पानी था, वह खत्म हो चुका था। इमाम हुसैन (अस) सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक (तीन दिन तक) इमाम हुसैन (अस) उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे।
10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की 72 लोगों की फौज के लोग एक-एक करके मैदान-ए-जंग में लड़ने गए। जब इमाम हुसैन (अस) के सारे साथी मारे जा चुके थे, तब दोपहर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन (अस) खुद गए और वे भी कत्ल कर दिए गए। इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की महीने में ग़म मनाया जाता है.
करबला का यह वाकया मोहम्मद साहब के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी माना जाता है।