एक बार फिर गणतंत्र दिवस है और हर बार की तरह ही हम उसी जोश और उल्लास के साथ इसको संवारने और सजाने के लिये प्रयत्नशील हैं। एक बार फिर से बड़ी गर्मजोशी से दिल्ली के राजपथ के अलावा अन्य प्रदेशों में भी गणतंत्र दिवस की परेड आयोजित होंगी और हजारों करोड़ों आंखें इस मंजर को देखकर अपने दिलों में वही जोश और वही जज्बा महसूस करेंगे जैसा पहले गणतंत्र की परेड पर किया था। इसके साथ ही हम सब उन अनेकों पुरुषों और महिलाओं की याद करते हैं जिन्होंने देश को इस मुकाम पर पहुंचाने के लिये संघर्ष किया और अपने प्राणों की आहुति देकर भी इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाने में अपना योगदान दिया है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके बारे में आप और हम पढ़ते सुनते आये हैंं। इनमें क्रांतिकारी भी हैं और सत्याग्रही भी, पुरुष भी और महिलाएं भी जिनमें से बहुत से ऐसे भी हैं जो शायद इतने भाग्यशाली नहीं थे कि इतिहास में मशहूर पन्नो में नाम दर्ज करवा पाते। लेकिन फिर भी उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना योगदान तो दिया ही। तो आइये हम भी याद कर लें कुछ ऐसी ही विभूतियों की विशेषकर महिलाओं की जिन्होंने अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था।
बीना दास । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अध्यापक बेनी माधव दास की पुत्री बीना का जन्म 24 अगस्त 1911 को कृष्णानगर में हुआ थ। आरम्भ से ही उनके घर में देशभक्ति का माहौल था क्योंकि उनके पिता कट्टर देशभक्त और आदर्शवादी शिक्षक थे। बीना की बड़ी बहन कल्याणी दास की क्रांतिकारी बनी। बीना दास ने क्रांतिकायों का साथ देते हुए 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ आन्दोलन में हिस्सा लिया था।1932 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में दीक्षान्त समारोह के दौरान उन्होंने गवर्नर सैमुअल जैकसन पर पिस्तौल से पांच फायर दागे थे लेकिन वह साफ बच निकला। बीना दास को इसके लिये 9 वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड मिला। बाद में उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्था कायम की और नोआखली दंगों के दौरान दंगा पीडि़तों की काफी मदद की थी।
अरुणा आसफ अली । पश्चिमी बंगाल की ही कुछ अन्य क्रांतिकारी महिलाओं में अरुणा आसफ अली का नाम सर्वोपरि है। यह ब्राह्मण गांगुली परिवार से भी और इन्होंने मुस्लिम कांग्रेस नेता आसफ अली से विवाह किया था तथा कई राष्ट्रीय आन्दोलों में इन्होंने हिस्सा लिया था। 1942 में उन्होंने ग्वालकर टैंक बम्बई में झण्डा लहराया था और इसके बाद उन्हें कुछ समय तक अज्ञातवास में भी जाना पड़ा था।1997 में मरणोपरान्त इन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
दुर्गा देवी वोहरा । दुर्गा देवी वोहरा इलाहाबाद में जन्मी थीं लेकिन मूल रूप से पंजाबी परिवार में थीं। 1911 में जन्मी दुर्गा जी जन मन में दुर्गा भाभी के नाम से जानी जाती थीं ओर चन्द्रशेखर आजाद तथा भगत सिंह के काफी करीब रही थीं। जब भगत सिंह ने सांडर्स को गोली मारी थी तब इनको भी गिरफ्तार करके जेल में रखा गया था। जेल से छूटने के बाद उन्होंने सक्रियता से क्रांतिकारी आन्दोलन में भाग लेना शुरू कर दिया और बम्बई में अंग्रेज पुलिस सार्जेन्ट को गोली मार दी थी। इसके बाद उन्होंनें पंजाब के पूर्व गवर्नर पर भी हमला किया था। 1939 में वह त्रिपुरी कांग्रेस के लिये आजमगढ़ से प्रतिनिधि बनीं। 1940 में उन्होंने लखनऊ मान्टेसरी स्कूल की भी स्थापना की थी।
भिकाजी कामा । अदम्य साहस और बुद्धिमता की धनी, भारत के क्रांति आन्दोलन की माता, भिकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 में हुआ था। इनके पिता का नाम सोराबजी फेरामजी पटेल था, जो एक धनी पारसी थे। विवाह 1902 में रूस्तम कामा के साथ हुआ और वे लंदन चली गयीं। 1906 में ये दादा भाई नौरोजी और श्यामा जी कृष्ण वर्मा के संपर्क में आयीं। इन्हें वन्देमातरम् चिन्ह वाला प्रथम भारतीय झण्डे की निर्मात्री होने का गौरव प्राप्त है। यह झण्डा इन्होंने 1907 में पश्चिमी जर्मनी स्टुटगर्ट में सोशलिस्ट कांग्रेस में फहराया। ये 1909 में भारतीय क्रांतिकारियों से, जो यूरोप में थे, मिलीं और अपना मुख्य ठिकाना पेरिस में बनाया। इस कार्य के लिये इन्हें तीन साल की सजा दी गयी तथा भारत में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। 74 वर्ष की वृद्धावस्ता में बीमारी के कारण भारत लौटने की अनुमति दी गयी। 16, अगस्त 1936 में देहावसान हो गया।
झलकारी बाई । झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का र्पयोग करने में र्पशिक्षित किया गया था। उन्होंने खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ र्पतिज्ञ बालिका थी। एक अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक् रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनोंं के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत र्पभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की र्पशिक्षण लिया। लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने नि:संतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, लेकिन लक्ष्मीबाई ने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया। अर्पैल 1858 के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। लेकिन रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। उधर झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ मे ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल गईं और झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को र्पाप्त हुई। एक बुंदेलखंड किंवदंती है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूग रोज दंग रह गया और उसने कहा कि यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोडऩा होगा। (हिफी)