पुण्य तिथि पर विशेष-स्वप्निल संसार’ समाचार । भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरे तार-सप्तक के प्रमुख कवि हैं। मिश्र जी विचारों, संस्कारों और अपने कार्यों से पूर्णत गांधीवादी हैं। गाँधीवाद की स्वच्छता, पावनता और नैतिकता का प्रभाव और उसकी झलक भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में साफ देखी जा सकती है। उनका प्रथम संग्रह गीत फरोश अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म टिगरिया गांव में, होशंगाबाद में हुआ था। भवानी प्रसाद मिश्र की प्रारंभिक शिक्षा क्रमशः सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में हुईद्य उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय लेकर बी. ए. पास किया। भवानी प्रसाद मिश्र ने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल खोल लिया और उस स्कूल को चलाते हुए ही 1942 में गिरफ्तार होकर 1949 में छूटे। उसी वर्ष महिलाश्रम वर्धा में शिक्षक की तरह चले गए और चार पाँच साल वर्धा में बिताए। भवानी प्रसाद मिश्र का कविताएँ लिखने की शुरूआत लगभग 1930 से हो गयी थी और कुछ कविताएँ पंडित ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादन में निकलने वाले हिन्दू पंच में हाईस्कूल पास होने के पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं।
1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। चतुर्वेदी आग्रहपूर्वक कर्मवीर में भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ प्रकाशित करते रहे। हंस में काफी कविताएँ छपीं और फिर अज्ञेय जी ने दूसरे सप्तक में इन्हे प्रकाशित किया। दूसरे सप्तक के प्रकाशन के बाद प्रकाशन क्रम ज्यादा नियमित होता गया। उन्होंने चित्रपट (सिनेमा) के लिए संवाद लिखे और मद्रास के एबीएम में संवाद निर्देशन भी किया। मद्रास से मुम्बई आकाशवाणी के निर्माता बन गए और आकाशवाणी केन्द्र, दिल्ली पर भी काम किया। भवानी प्रसाद मिश्र उन गिने चुने कवियों में थे जो कविता को ही अपना धर्म मानते थे और आमजनों की बात उनकी भाषा में ही रखते थे। वे कवियों के कवि थे। मिश्र जी की कविताओं का प्रमुख गुण कथन की सादगी है। बहुत हल्के फुलके ढंग से वे बहुत गहरी बात कह देते हैं जिससे उनकी निश्छल अनुभव संपन्नता का आभास मिलता है। इनकी काव्य-शैली हमेशा पाठक और श्रोता को एक बातचीत की तरह सम्मिलित करती चलती है। मिश्र जी ने अपने साहित्यिक जीवन को बहुत प्रचारित और प्रसारित नहीं किया। मिश्र जी मौन निश्छलता के साथ साहित्य रचना में संलग्न हैं। इसीलिए उनके बहुत कम काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। गीत-फरोश के प्रकाशन के वर्षों बाद चकित है दुख, और अंधेरी कविताएँ नामक दो काव्य संग्रह इधर प्रकाशित हुए हैं। भवानीबाबू एक बार शुरू करें फिर उन्हें दूसरा सुनाने का आग्रह करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। एक के बाद दूसरी कविता निकलती जाती थी, पंचतंत्र की कथाओं की भांति। कई बार तो एक कविता कब पूरी हुई और दूसरी कब शुरू हुई इसका श्रोता को भान नहीं रहता। मेघाणी भाई (गुजराती के प्रख्यात कवि झवेरचंद मेघाणी) के अलावा इतनी अधिक स्वरचित रचनाओं को कंठस्थ रखने वाले किसी अन्य कवि से मिलना बहुत मुश्किल है। जब वे काव्य-पाठ करते तब मानो श्रोता उन पर उपकार कर रहे हों ऐसी कृतज्ञ दृष्टि से उन्हें देख रहे होते थे। परंतु ज्यों-ज्यों गीतों में वे गहरे उतरते त्यों-त्यों उनका पाठ स्वान्तरू सुखाय हो जाता। बावजूद इसके श्रोताओं को भी वे सरोबार कर देते थे। कई बार तो उनका छंद श्रोताओं को साथ गाने की प्रेरणा दे जाता था। चलो गीत गाओ चलो गीत गाओ। कि गा गा के दुनिया को सर पर उठाओ अभागों की टोली अगर गा उठेगी तो दुनिया पे दहशत बड़ी छा उठेगी सुरा-बेसुरा कुछ न सोचेंगे गाओ कि जैसा भी सुर पास में है चढ़ाओ। आजादी के बाद भवानी प्रसाद अधिकतर दिल्ली की धूल और धुएं के बीच शहर में रहे। परंतु देश के कल्याण की कामना ने उन्हें कभी दिल्ली की माया में फंसने नहीं दिया। यूं बड़े लोगों के साथ जान-पहचान की कमी न थी। महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरू, जैसों के साथ उनका परिचय था। बजाज कुटुम्ब के साथ घरोपा था। श्रीमन्नारायण तो उनके मुक्त प्रशंसक थे परंतु इनके पहचान का खुद लाभ कभी नहीं लिया। विचारों से भवानी बाबू सच्चे गांधीवादी थे, मगर उनका कवि हृदय किसी वाद के खांचे में समा जाए ऐसा न था। इसीलिए वे गांधीवादी कवि बनने के बदले मानववादी कवि बने रहे। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं की समीक्षा करते हुए प्रोफेसर महावीर सरन जैन का कथन है कि, ष्हिन्दी की नई कविता पर सबसे बड़ा आक्षेप यह है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, विशाद, हताशा, कुंठा और मरणधर्मिता है। उसको पढ़ने के बाद जीने की ललक समाप्त हो जाती है, व्यक्ति हतोत्साहित हो जाता है, मन निराशा वादी और मरणासन्न हो जाता है। यह कि नई कविता ने पीड़ा, वेदना, शोक और निराशा को ही जीवन का सत्य मान लिया है। नई कविता भारत की जमीन से प्रेरणा प्राप्त नहीं करती। इसके विपरीत यह पश्चिम की नकल से पैदा हुई है।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ इन सारे आरोपों को ध्वस्त कर देती हैं।मिश्र जी गाँधीवादी है।गाँधी की देश-भक्ति मंजिल नहीं है। गाँधी जी की देश-भक्ति विश्व के जीव मात्र के प्रति प्रेम और उसकी सेवा करने के लिए उनकी जीवन यात्रा का एक पड़ाव है। उनके विचार में कहीं भी लेश मात्र भी निराशा का भाव नहीं है। उसमें आशा, विश्वास और आस्था की ज्योति आलोकित है। इसी आलोक के कारण गाँधी जी ने दक्षिण-अफ्रीका और भारत में जो जन-आन्दोलन चलाए उन्होंने सम्पूर्ण समाज में नई जागृति, नई चेतना और नया संकल्प भर दिया। उनके जीवन दर्शन से विशाद, निराशा और मरण धर्मिता नहीं अपितु इसके सर्वथा विपरीत नई आशा, नई आस्था और नई उमंग पैदा होती है। उससे सत्य, अहिंसा एवं प्रेम की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। (देखें प्रोफेसर महावीर सरन जैन रू गाँधी दर्शन की प्रासंगिकता)। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ इसी कारण समाज में जो विपन्न हैं, लाचार हैं, थके हुए हैं, धराशायी हैं उन सबको सहारा देने के लिए प्रेरित करती हैं, उनको उठाने के लिए प्रोत्साहित करती हैंष्। उनकी कविता घरेलू विषयों से लगाकर आध्यात्मिकता के शिखरों तक का भ्रमण करती है। उन्हें ऐहिक सुख की परवाह न थी। वे कहते, सुख अगर मेरे घर में आ जाए तो उसे बैठायेंगे कहां? स्वराज के बाद का भारत जिस तरह महात्मा गांधी के दिखाए मार्ग से विचलित हुआ उससे भवानी बाबू का हृदय टीस उठता।
1959 में लिखी एक कविता में उन्होंने इस टीस पहुंचाने वाली दिशा की ओर इंगित करते हुए कहा था-पहले इतने बुरे नहीं थे तुम याने इससे अधिक सही थे तुम किंतु सभी कुछ तुमही करोगे इस इच्छा ने अथवा और किसी इच्छा ने, आसपास के लोगों ने या रूस-चीन के चक्कर टक्कर संयोगों ने तुम्हें देश की प्रतिभाओं से दूर कर दिया तुम्हें बड़ी बातों का ज्यादा मोह हो गया छोटी बातों से संपर्क खो गया धुनक-पींज कर, कात बीन कर अपनी चादर खुद न बनाई बल्कि दूर से कर्ज लेकर मंगाई और नतीजा चाचा भतीजा दोनों के कलपना तीत है यह कर्जे की चादर जितना ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है।, भवानी बाबू जिस आध्यात्मिक पीठ पर आसीन थे उसने उन्हें कभी निराशा में डूबने नहीं दिया। जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े। भवानी दादा की रचनाओं में पाठक से संवाद करने की क्षमता है। 1972 में आपकी कृति ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक पुरस्कारों के साथ-साथ आपने भारत सरकार का पद्म श्री अलंकार भी प्राप्त किया। 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के संस्थान सम्मान से सम्मानित हुए और 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया। 20 फरवरी 1985 को हिन्दी काव्य-जगत् का यह अनमोल सितारा अपनी कविताओं की थाती यहाँ छोड़ हमेशा के लिए हमसे बिछड़ गया।एजेन्सी।