..वह सुंदर सी, गु्लाब की तरह महकती सिख्ख साम्राज्य के बादशाह महाराजा रणजीत सिहं की पोती, महाराजा दलीप सिंह की बेटी प्रिन्सेस ‘बंबा सदरलैंड’..सिख राज की आखिरी वारिस थी. ‘बिंबा’ अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘गुलाब’..1869 को इंग्लैंड में जन्मी बिंबा सदरलैंड विलायत की आबोहवा में पली बढी थी, पर अंग्रेज हुकूमत के द्वारा उसके पिता दलीप सिंह, दादी जिंदन कौर और सिख्खों पर किए गये अन्याय के खिलाफ उसके मन में विद्रोह की आग धधक रही थी.
अंग्रेजों ने इस खानदान पर इतने प्रतिबंध लगाये कि वे कभी भारत न लौट पाए, दलीप सिंह पेरिस में मरे और रणजीत सिंह की पत्नी जिंदन कौर ने फरारगी की हालत में कोलकाता में गरीबी में वफाद पायी. प्रिंसेस बंबा सदरलैंड ने अपनी पितृभूमि भारत लौटने की ठान ली थी. अंग्रेजों ने उससे कहा- वह भारत में सिर्फ शिमला या मसूरी में बस सकती हैं..मसूरी,जहां उसके पिता दलीप सिंह 1849 से 1853 तक अपनी मां जिंदन कौर के साथ नजरबंदी में चार साल प्रवास में रहे थे(महाराजा दलीप सिंह और जिंदन कौर की मसूरी नजरबंदी पर आज से 27 वर्ष पहले छपी मेरी इतिहास पुस्तक “मसूरी दस्तावेज:1815-1995” में पूरा विवरण है)
अंग्रेजी सरकार ने प्रिसेंस बिंबा सदरलैंड को मसूरी के उस ”व्हाइट बैंक कैसल’, जहां उसके पिता और दादी कभी नजरबंद रहे थे, जो 20 वीं सदी के शुरुआती दिनों तक भी किले की शक्ल में था, ग्रांट पर देने का प्रस्ताव रखा और शिमला में भी एक शानदार किलेनुमा बंगला देना तय किया, पर वह अपने साम्राज्य की पूर्व राजधानी लाहौर बसने की जिद पर कायम थी.अंग्रेजों ने जब उन्हे लाहौर जाने की इजाजत नहीं दी तो उसने 1915 में लाहौर किंग जॉर्ज मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल डेविड वाटर्स सदरलैंड से विवाह कर लिया और लाहौर जाने की कानूनी हकदारी हासिल की.
प्रिसेंस बिंबा लाहौर में बजाय अपने पति के घर जाने के पहले अपने दादा रणजीत सिंह की समाधी और किले में गयी और वहां फूट फूट कर रोयी. 1924 में पति डेविड की मौत के बाद वह लाहौर के अपने महल के पास एक बंगले में रहने लगी. अंग्रेज जासूस उनकी हर गतिविधि पर नजर रखते थे. राजकमारी बिंबा सदरलैंड ने लाहौर में लाला लाजपतराय से लेकर अनेकों स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों से गुपचुप मुलाकात की. 1931 में भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी के खिलाफ पहली श्रद्धांजली सभा आयोजित करने वाली बिंबा सदरलैंड ही थी.
1947 में राजकुमारी बिंबा ने भारत बंटवारे के बाद दूसरे हिंदु सिख्खों की तरह लाहौर छोडने से इंकार कर दिया. जिन्ना खुद उनसे मिलने गये तो वह फफक कर रो पडी, उसने कहा- “उसे अपनी पितृभूमि में शकुन से मरने की इजाजत दी जाये “… लाहौर के इतिहासकार इश्तियाक रजा लिखते हैं.. “मुस्लिम लीगियों का जलूस राजकुमारी बिंबा सदरलैंड के महल के आगे जाकर खामोश हो जाता और उसके सजदे में कहता.. इसके अंदर पंजाब की वो शेरनी रहती है, जिसके दादा ने हमारी जन्मभूमि के पुरशकून और आजादी की मशाल जलाये रखी..” प्रिसेंस बिंबा सदरलैंड की मृत्यु 10 मार्च 1957 को लाहौर में हुई. उन्हे वहीं राजकीय सम्मान के साथ दफनाया गया.उनकी करोड़ों की तमाम संपति- हीरे जवाहरात, शानदार पेंटिग्स, पुराने बर्तन, नायाब और एंटीक बर्तन लाहौर म्यूजियम में सुरक्षित रख दिए गये, जिसपर आज भी एक सूचनापटट लगा है… “पंजाब और पाकिस्तान की आन बान और शान.. “