देवेन्द्रनाथ ठाकुर दार्शनिक, ब्रह्मसमाजी तथा धर्मसुधारक थे। ब्रह्म समाज के संस्थापकों में थे। देवेंद्रनाथ ठाकुर का जन्म 15 मई 1817 में बंगाल में हुआ था। देवेन्द्रनाथ ठाकुर के पिता, द्वारकानाथ टैगोर, कलकत्ता के धनी व्यापारी और परोपकारी थे, जो राजा राममोहन राय के करीबी हुआ करते थे। देवेंद्रनाथ टैगोर, प्रसिद्ध बंगाली कवि, कलाकार, लेखक और निबंधकार रवींद्रनाथ टैगोर के पिता थे।
देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्त्वबोधिनी सभा की स्थापना की थी। बंगाली में तत्त्वबोधिनी सभा ने एक मासिक धर्मशास्त्रीय पत्रिका ‘तत्त्वबोधिनी’ शुरू की थी। तत्त्वबोधिनी सभा और तत्त्वबोधिनी पत्रिका, दोनों ने तर्कसंगत रूप से भारत के अतीत के व्यवस्थित अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया। इस पत्रिका द्वारा राजा राममोहन राय के विचारों को भी प्रचारित किया गया था। कुछ वर्षों के बाद, तत्वबोधिनी सभा को बहमो समाज में शामिल कर लिया गया। टैगोर ने ब्रह्म समाज को एक नया जीवन और जोश दिया। इसके अलावा, उन्होंने आस्तिक आंदोलन को एक निश्चित रूप और आकार भी दिया। देवेंद्रनाथ ने दो मोर्चों पर काम किया यानी हिंदू धर्म के भीतर, ब्रह्म समाज के रुप में एक सुधारवादी आंदोलन के रुप में और हिंदू धर्म के बाहर, ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के प्रयासों की आलोचना और उसके विरोध के रूप में।
1844 में, देबेंद्रनाथ ने वेदांत सिखाने और ब्रह्म धर्म सिखाने के लिए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए तत्वबोधिनी पाठशाला या थियोलॉजिकल स्कूल की स्थापना की। 1858 में केशव चंद्र सेन के शामिल होने के तुरंत बाद उन्होंने सेन को आचार्य बनाया दिया था।
1865 में केशव चंद्र सेन को आचार्य के पद से बर्खास्त करने के बाद, उन्होंने और उनके अनुयायियों ने 1866 में भारत के ब्रह्म समाज की स्थापना की, जबकि देवेंद्रनाथ टैगोर के समाज को आदि ब्रह्म समाज के रूप में जाना जाने लगा। उन्होंने ब्रह्म धर्म ग्रंथ का संकलन और प्रकाशन किया, जो धर्म और नैतिकता का एक आस्तिक मैनुअल है। देवेन्द्रनाथ चाहते थे कि देशवासी, पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाइयों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परम्परा, संस्कृति और धर्म में समाहित करें। वे हिन्दू धर्म को नष्ट करने के नहीं, उसमें सुधार करने के पक्षपाती थे। वे समाज सुधार में ‘धीरे चलो‘ की नीति को पसन्द करते थे। देवेन्द्रनाथ के उच्च चरित्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे और उन्हें ‘महर्षि‘ के नाम से सम्बोधित करते थे।
देवेन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा प्रसार में भी अधिक रुचि रखते थे। उन्होंने बंगाल के विविध भागों में शिक्षा संस्थाएं खोलने में मदद की। 1863 में देवेंद्रनाथ ने बोलपुर में एकांतवास के लिए 20 बीघा जमीन खरीदी और वहां ‘शान्ति निकेतन‘ की नींव रखी। 1886 . में उसे एक ट्रस्ट को सौंप दिया गया। इसी स्थान पर बाद में उनके पुत्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्वभारती की स्थापना की थी। देवेन्द्रनाथ देश सुधार के अन्य कार्यों में भी रुचि लेते थे। 1851 में स्थापित होने वाले ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन‘ का उन्हें सबसे पहला सेक्रेटरी नियुक्त किया गया था। इस एसोसियेशन का उद्देश्य संवैधानिक आंदोलन के द्वारा देश के प्रशासन में देशवासियों को उचित हिस्सा दिलाना था।
ब्रह्मसमाज के सदस्य केशवचंद्र सेन थे। केशव के कुछ अनुयायियों ने ब्रह्मवाद के प्रचार के लिए अपना सारा समय ब्रह्मसमाज को अर्पित कर दिया। ये लोग सारे बंगाल में घूम घूमकर अपना संदेश देने लगे। केशव इसी संबंध में मद्रास तथा बंबई गए। इन प्रयत्नों का फल यह हुआ कि 1865 के अंत तक बंगाल, पंजाब, मद्रास तथा पश्चिमोत्तर प्रांत में ब्रह्मसमाज की 54 शाखाएँ खुल गईं। देवेंद्रनाथ, केशव तथा अन्य नवयुवकों के इस कार्य से बड़े प्रसन्न हुए। पर शीघ्र ही केशवचंद्र सेन के विधवाविवाह तथा अंतर्जातीय विवाह आदि उन्नतिशील विचारों से महर्षि देवेंद्रनाथ असंतुष्ट हो गए। इस प्रकार 1865 में ही ब्रह्मसमाज में फूट पड़ गई और उसमें दो विचारधाराएँ हो गईं।
देवेंद्रनाथ ने केशवचंद्र सेन तथा उनके साथियों को पदच्युत कर दिया। इसपर केशवचंद्र ने ‘भारतीय ब्रह्मसमाज’ की स्थापना की। देवेंद्रनाथ तथा उनके साथियों का समाज अब ‘आदिसमाज’ कहलाने लगा। ‘आदिसमाज’ किसी भी प्रकार के प्रचारकार्य तथा समाजसुधार से दूर ही रहा और एकेश्वरवाद में विश्वास रखता रहा। आदिसमाज की प्रतिष्ठा देवेंद्रनाथ ठाकुर के वैयक्तिक प्रभाव के कारण कुछ समय तक चलती रही। इसके बाद महर्षि देवेंद्रनाथ ने समाज के कार्य को एक प्रबंधक समिति के हाथ में सौंप दिया। कुछ ही समय में आदि ब्रह्मसमाज को लोग भूल गए। 19 जनवरी 1905 को उनका निधन हो गया था। एजेन्सी।