आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त,1907 में बलिया के ‘दुबे का छपरा’ ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम अनमोल दुबे एवं माता का नाम श्रीमती ज्योतिकली देवी था। इनकी शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत से हुआ। इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ( बनारस हिन्दू विश्वाविद्यालय) से ज्योतिष तथा साहित्य में आचार्य की उपधि प्राप्त की। 1940 में हिन्दी एवं संस्कृत के आध्यापक के रूप में शान्ति-निकेतन चले गये। यहीं इन्हें विश्वकवि रवीन्द्रनााथ टेैगोर का सान्निध्य मिला और साहित्य-सृजन की ओर अभिमुख हो गये । 1956 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिनदी विभाग में अध्यक्ष नियुक्त हुए। कुछ समय तक पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। 1949 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें ‘डी.लिट्.’ तथा 1957 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। 19 मई 1979 को इनका देहावसान हो गया।
द्विवेदी जी ने बाल्यकाल से ही श्री व्योमकेश शास्त्री से कविता लिखने की कला सीखनी आरम्भ कर दी थी। शान्ति-निकेतन पहँचकर इनकी प्रतिभा और अधिक निखरने लगी। कवीन्द्र रवीन्द्र का इन पर विशेष प्रभाव पड़ा। बँगला साहित्य से भी ये बहुत प्रभावित थे। ये उच्चकोटि के शोधकर्त्ता, निबन्धकार, उपन्यासकार एवं आलोचक थे। सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य एवं अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाकर तथा भक्ति-साहित्य पर उच्चस्तरीय समीक्षात्मक ग्रन्थें की रचना करनके इन्होंने हिन्दी साहित्य की महान् सेवा की। बैसे तो द्विवेदी जी ने अनेक विषयों पर उत्कृष्ट कोटि के निबन्धों एवं नवीन शैली पर आधरित उपन्यासों की रचना की है पर विशेष रूप से वैयक्तिक एवं भावात्मक निबन्धें की रचना करने में ये अद्वितीय रहे। द्विवेदी जी ‘उत्तर प्रदेश ग्रन्थ अकादमी’ के अध्यक्ष और ‘हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे। कबीर पर उत्कृष्ट आलोचनात्मक कार्य करने के कारण इन्हें ‘मंगलाप्रसाद’ पारितोषिक प्राप्त हुआ। इसके साथ ही ‘सूर-साहित्य’ पर ‘इन्दौर साहित्य समिति’ ने ‘स्वर्ण पदक’ प्रदान किया।
कृतियॉं- द्विवेदी जी की प्रमुख कृतियॉं है। निबन्ध- विचार और वितर्क, कल्पना, अशोक के फूल, कुटज, साहित्य के साथी, कल्पलता विचार-प्रवाह आलोक-पर्व आदि। उपन्यास- पुनर्पवा, बाणभट्ट की आत्मकथा, चारु चन्द्रलेख , अनामदास का पोथा, आदि। आलोचना साहित्य- सूर-साहित्य, कबीर, सूरदास और उनका काव्य, हमारी साहित्यिक समस्याऍं, हिन्दी साहित्य की भुमिका, साहित्य का साथी, साहित्य का धर्म, हिन्दी-साहित्य, समीक्षा-साहित्य नख-दपर्ण में हिन्दी-कविता, साहित्य का मर्म, भारतीय वाड्मय, कालिदास की लालित्य-योजना आदि। शोध-साहित्य- प्राचीन भारत का कला विकास, नाथ सम्प्रदास, मध्यकालीन धर्म साधना, हिन्ीद-साहित्य का अदिकाल, आदि। अनूदित साहित्य – प्रबन्ध्ाा चिन्तामधि, पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह प्रबन्धकोश, विश्व परिचय, मेरा बचपन, लाल कनेर आदि। सम्पादित साहित्य- नाथ-सिद्धों की बानियॉं, संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन्देश-रासक अादि।
भाषा-शैली- द्विवेदी जी भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ-साथ आपने निबन्धों में उर्दू फारसी, अंग्रेजी एवं देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है। इनकी भाषा प्रौढ़ होते हुए भी सरल, संयत तथा बोधगम्य है। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग भी इन्होंने किया है। विशेष रूप से इनकी भाषा शुद्ध संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ीबोली है। इनहोंने अनेक शैलियों का प्रयोग विषयानुसार किया है, जिनमें प्रमुख हैं- गवेषणात्मक शैली आलोचनात्मक शैली भावात्मक शैली हास्य-व्यंग्यत्मक शैली उद्धरण शैली भाषा- शुद्ध संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ी-बोली। सोशल मिडिया से