शेरशाह सूर (पैदाइश का नाम फ़रीद खाँ) जिन्होनें हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य स्थापित किया था। शेरशाह सूर ने पहले बाबर के लिये सैनिक के रूप में काम किया था जिन्होनें उन्हे पदोन्नति कर सेनापति बनाया और फिर बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया। 1537 में, जब हुमायूँ कहीं सुदूर अभियान पर थे तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्ज़ा कर सूरी वंश स्थापित किया था। 1539 में, शेरशाह को चौसा की लड़ाई में हुमायूँ का सामना करना पड़ा जिसे शेरशाह ने जीत लिया। 1540 में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्रज्य स्थापित कर दिया।
शानदार रणनीतिकार, शेर शाह ने खुद को सक्षम सेनापति के साथ ही प्रतिभाशाली प्रशासक भी साबित किया। 1540-1545 के अपने पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नयी नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की, पहला रुपया जारी किया है, भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया और अफ़गानिस्तान में काबुल से लेकर बांग्लादेश के चटगांव तक ग्रांड ट्रंक रोड को बढ़ाया। साम्राज्य के उसके पुनर्गठन ने बाद में मुगल सम्राटों के लिए मजबूत नीव रखी विशेषकर हुमायूँ के बेटे अकबर के लिये।
शेरशाह का जन्म सासाराम में हुआ था, जो अब बिहार के रोहतास जिले में है। वो शेरशाह के रूप में जाने जाते थे क्योंकि कहा जाता है की उन्होंने कम उम्र में अकेले ही शेर को मारा था। उनका कुलनाम ‘सूरी’ उनके गृहनगर “सुर” से लिया गया था। उनके दादा इब्राहिम खान सूर नारनौल क्षेत्र में जागीरदार थे जो उस समय के दिल्ली के शासकों का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पिता पंजाब में अफगान रईस ज़माल खान की सेवा में थे। शेरशाह के पिता की दो पत्नियाँ और आठ बच्चे थे।
शेरशाह को बचपन के दिनो में उसकी सौतेली माँ बहुत सताती थी तो उन्होंने घर छोड़ कर जौनपुर में पढ़ाई की। पढ़ाई पूरी कर शेरशाह 1522 में ज़माल खान की सेवा में चले गए। पर उनकी सौतेली माँ को ये पसंद नहीं आया। इसलिये उन्होंने ज़माल खान की सेवा छोड़ दी और बिहार के स्वघोषित स्वतंत्र शासक बहार खान नुहानी के दरबार में चले गए। अपने पिता की मृत्यु के बाद फ़रीद ने अपने पैतृक ज़ागीर पर कब्ज़ा कर लिया। कालान्तर में इसी जागीर के लिए शेरखां तथा उसके सौतेले भाई सुलेमान के मध्य विवाद हुआ
बहार खान के दरबार मे वो जल्द ही उनके सहायक नियुक्त हो गए और बहार खान के नाबालिग बेटे का शिक्षक और गुरू बन गए। लेकिन कुछ वर्षों में शेरशाह ने बहार खान का समर्थन खो दिया। इसलिये वो 1527-28 में बाबर के शिविर में शामिल हो गए। बहार खान की मौत पर, शेरशाह नाबालिग राजकुमार के संरक्षक और बिहार के राज्यपाल के रूप में लौट आया। बिहार का राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने प्रशासन का पुनर्गठन शुरू किया और बिहार के मान्यता प्राप्त शासक बन गया। 1537 में बंगाल पर अचानक हमले में शेरशाह ने उसके बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया हालांकि वो हुमायूँ के बलों के साथ सीधे टकराव से बचते रहे ।
अभी तक शेरशाह अपने आप को मुगल सम्राटों का प्रतिनिधि ही बताते थे पर उनकी चाहत अब अपना साम्राज्य स्थापित करने की थी। शेरशाह की बढ़ती हुई ताकत को देख आखिरकार मुगल और अफ़ग़ान सेनाओं की जून 1539 में बक्सर के मैदानों पर भिड़ंत हुई। मुगल सेनाओं को भारी हार का सामना करना पड़ा। इस जीत ने शेरशाह का सम्राज्य पूर्व में असम की पहाड़ियों से लेकर पश्चिम में कन्नौज तक बढ़ा दिया। अब अपने साम्राज्य को वैध बनाने के लिये उन्होंने अपने नाम के सिक्कों को चलाने का आदेश दिया। यह मुगल सम्राट हुमायूँ को खुली चुनौती थी।
अगले साल हुमायूँ ने खोये हुये क्षेत्रो पर कब्ज़ा वापिस पाने के लिये शेरशाह की सेना पर फिर हमला किया, इस बार कन्नौज पर। हुमायूँ की सेना 17 मई 1540 शेरशाह की सेना से हार गयी। इस हार ने बाबर द्वारा बनाये गये मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया और उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य की शुरुआत की जो भारत में दूसरा पठान साम्राज्य था लोधी साम्राज्य के बाद।
शेरशाह सूर कुशल सैन्य नेता के साथ-साथ योग्य प्रशासक भी थे। उनके द्वारा जो नागरिक और प्रशासनिक संरचना बनाई गयी वो आगे जाकर मुगल सम्राट अकबर ने इस्तेमाल और विकसित की। शेरशाह की कुछ मुख्य उपलब्धियाँ : तीन धातुओं की सिक्का प्रणाली जो मुगलों की पहचान बनी वो शेरशाह द्वारा शुरू की गई थी। पहला रुपया शेरशाह के शासन में जारी हुआ था जो आज के रुपया का अग्रदूत है। रुपया आज पाकिस्तान, भारत, नेपाल, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मॉरीशस, मालदीव, सेशेल्स में राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है।
ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण जो उस समय सड़क-ए-आज़म या सड़क बादशाही के नाम से जानी जाती थी।‘ग्रांड-ट्रंक सड़क’ – यह कलकत्ता से पेशावर तक जाती है। इसी सड़क पर आगरा, दिल्ली, तथा लाहौर पड़ते हैं। इसकी लम्बाई 4800 किमी. है। आगरा से बुरहानपुर तक। आगरा से जोधपुर और फिर चित्तौड़ तक। लाहौर से मुल्तान तक। डाक प्रणाली का विकास जिसका इस्तेमाल व्यापारी भी कर सकते थे। यह व्यापार और व्यवसाय के संचार के लिए यानी गैर राज्य प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाने वाली डाक व्यावस्था का पहला ज्ञात रिकॉर्ड है।
22 मई 1545 में चंदेल राजपूतों के खिलाफ लड़ते हुए शेरशाह सूरी की कालिंजर किले की घेराबंदी की, जहां उक्का आग्नेयास्त्र से निकले गोले के फटने से उसकी मौत हो गयी।
शेरशाह ने अपने जीवनकाल में ही अपने मक़बरे काम शुरु करवा दिया था। उनका गृहनगर सासाराम स्थित उसका मक़बरा कृत्रिम झील से घिरा हुआ है। यह मकबरा हिंदू मुस्लिम स्थापत्य शैली काम बेजोड़ नमूना है।इतिहासकार कानूनगो के अनुसार” शेरशाह के मकबरे को देखकर ऐसा लगता है कि वह अन्दर से हिंदू और बाहर से मुस्लिम था”। फोटो सोशल मिडिया से