देश के गांवों में तालाब निरंतर कम हो रहे हैं। सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में तो तालाबों की बहुत जरूरत है। बुंदेलखण्ड जैसे क्षेत्र में इसके प्रयास भी हो रहे हैं। पहले प्रत्येक ग्राम में तीन-चार तालाब तो होते ही थे लेकिन अब एक तालाब मिल जाए, यही बहुत है। गांवों में खेती के साथ लोगों को मछली पालन के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो तालाब भी बनेंगे और मछलियों से अर्थोपार्जन भी हो सकेगा। वारिश होने वाली है इसलिए तालाबों का निर्माण शीघ्र ही कर लेना होगा। जनसंख्या में निरंतर वृद्धि के परिणाम स्वरूप रोजी-रोटी की समस्या के समाधान के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि आज के विकासशील युग में ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाय जिनके माध्यम से खाद्य पदार्थों के उत्पादन के साथ-साथ भूमिहीनों, निर्धनों, बेरोजगारों, मछुआरों आदि के लिए रोजगार के साधनों का सृजन भी हो सके। उत्तर प्रदेश एक अन्तस्र्थलीय प्रदेश है जहां मत्स्य पालन और मत्स्य उत्पादन की दृष्टि से सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचलों में तालाबों व पोखरों के रूप में तमाम मूल्यवान जल सम्पदा उपलब्ध है। मछली पालन का व्यवसाय निःसंदेह उत्तम भोजन और आय का उत्तम साधन समझा जाने लगा है तथा इस आशय की जानकारी परम आवश्यक है कि मछली का उच्चतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए कौन-कौन सी व्यवस्थायें अपनायी जायें? मत्स्य पालन तकनीक के विषय में मत्स्य पालकांे के लिए उपयोगी जानकारी निम्न प्रकार है-तालाब का चयन-मत्स्य पालन हेतु 02 से 2.00 हेक्टर तक के ऐसे तालाबों का चुनाव किया जाना चाहिए जिनमें कम से कम वर्ष में 8-9 माह अथवा वर्ष भर पानी भरा रहे। तालाबों को सदाबहार रखने के लिए जल की पूर्ति का साधन अवश्य उपलब्ध होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर जल की आपूर्ति की जा सके। तालाब मंे वर्ष भर 1-2 मीटर पानी अवश्य रहे। तालाब उसी प्रकार के चुने जायें जिनमें मत्स्य पालन आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो और उनकी प्रबन्ध व्यवस्था सुगमता से संभव हो सके। यह भी ध्यान देने की बात है कि तालाब बाढ़ से प्रभावित न हो और उन तक आसानी से पहुंचा भी जा सके।
तालाब का सुधार-अधिकांश तालाबों में बंधों का कटा-फटा या ऊंचा-नीचा होना, पानी आने जाने के रास्तों का न होना अथवा दूर के क्षेत्रों से अधिक पानी आने की संभावनाओं का बना रहना आदि कमियां स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं जिन्हें सुधारोपरान्त दूर किया जा सकता है। तालाब को समतल बनाने के लिए यदि कहीं पर टीले हों तो उनकी मिट्टी निकाल कर बंधों पर डाल देनी चाहिए। कम गहराई वाले स्थान सेे मिट्टी निकाल कर गहराई एक सामान की जा सकती है। बंधे बाढ़ स्तर से ऊंचे रखने चाहिए। पानी के निकास तथा पानी आने के मार्ग में उपयुक्त जाली की व्यवस्था हो ताकि अवांछनीय मछलियां तालाब में न आ सकें और पाली जाने वाली मछलियां बाहर न जा सकें। तालाबों का सुधार कार्य जून तक अवश्य करा लेना चाहिए जिससे मत्स्य पालन समय से प्रारंभ किया जा सके। पानी की सतह पर स्वतंत्र रूप से तैरने वाले जलीय पौधे उदाहरणार्थ जलकुंभी, लेमना, पिस्टिया, अजोला आदि अथवा जड़ जमाकर सतह पर तैरने वाले पौधे जैसे कमल इत्यादि अथवा जल में डूबे रहने वाले जड़दार पौधे जैसे हाइड्रिला, नाजाज इत्यादि का तालाब में आवश्यकता से अधिक होना मछली की अच्छी उपज के लिए हानिकारक है। यह पौधे पानी का एक बहुत बड़ा भाग घेरे रहते हैं जिससे मछली के घूमने-फिरने में असुविधा होती है। साथ ही सूर्य की किरणों का जल में प्रवेश भी बाधित होता है जिससे मछली का प्राकृतिक भोजन उत्पन्न होना रुक जाता है और अन्ततोगत्वा मछली की वृद्धि प्रभावित होती है। जलीय पौधों का बाहुल्य जाल चलाने में भी बाधक होता है। जलीय पौधों को श्रमिक लगाकर उखाड़कर फेंका जा सकता है। रसायनों का प्रयोग गांव के तालाबों में करना उचित नहीं होता क्योंकि उनका विषैलापन पानी में काफी दिनों तक बना रहता है।
अवांछनीय मछलियों की सफाई-ऐसे तालाब जिनमें मत्स्य पालन नहीं हो रहा है और पानी पहले से मौजूद हैं में पढ़िन अैंगन, सौल, गिरई, सिंधी, मांगुर आदि अवांछनीय मछलियां स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं जिनकी सफाई आवश्यक है। अवांछनीय मछलियों की सफाई बार-बार जाल चलवा कर अथवा 25 कुंटल/ हेक्टेयर/मीटर पानी की गहराई के हिसाब से महुए की खली के प्रयोग स्वरूप की जा सकती है। यदि महुआ की खली का प्रयोग किया जाता है तो 6-8 घंटों से सारी मछली ऊपर आकर मर जायेंगी जिसे उपभोग हेतु बेचा जा सकता है। महुए की खली के विष का प्रभाव 15-20 दिन तक पानी में बना रहता है। तत्पश्चात यह उर्वरक का कार्य करती है और पानी की उत्पादकता बढ़ाती है।
उर्वरकों का प्रयोग-तालाब में गोबर की खाद तथा रसायनिक खादों का प्रयोग भी किया जाता है। सामान्यतः एक हेक्टेर के तालाब में 10 टन प्रति वर्ष गोबर की खाद प्रयोग की जानी चाहिये। इस सम्पूर्ण मात्रा को 10 समान मासिक किस्तों में विभक्त करते हुए तालाब में डालना चाहिए। रसायनिक खादांे का प्रयोग प्रत्येक माह गोबर की खाद के 15 दिन बाद करना चाहिए। प्रयोग दर निम्नवत है-यूरिया 200 किग्रा हेक्टेयर सिंगल सुपर फास्फेट 200 किग्रा हेक्टेर म्यूरेट आॅफ पोटाश 40 किग्रा हेक्टयर अर्थात कुल 490 कि.ग्रा. हेक्टयर उर्वरक डालें।
मत्स्य बीज संचय-तालाब में 50 मि.मी. या अधिक लम्बाई की 5000 स्वस्थ अगुलिकायें प्रति हेक्टेयर की दर से संचित की जा सकती है। अगर 6 प्रजातियों का पालन करना हो तो कतला 10 प्रतिशत, रोहू 30 प्रतिशत, नैन 15 प्रतिशत, सिल्वर कार्य 20 प्रतिशत, ग्रास कार्य 10 प्रतिशत, कामन कार्प 15 प्रतिशत डालें। अगर 4 प्रजातियों का ही पालन करना है तो 30 प्रतिशत कतला, 25 प्रतिशत रोहू, 20 प्रतिशत कैन और 25 प्रतिशत कामन कार्प डालें। इसी तरह 3 प्रजातियों का पालन करना है तो 40 प्रतिशत कतला, 30 प्रतिशत रोहू, 30 प्रतिशत नैन का बीज डालें। पूरक आहार दिया जाना-पूरक आहार के रूप मंे आमतौर पर मूंगफली सरसों या तिल की खली एवं चावल के कना अथवा गेहू के चोकर को बराबर मात्रा में मिश्रण स्वरूप मछलियों के भार कर 1-2 प्रतिशत की दर से प्रतिदिन दिया जाना चाहिये। यदि ग्रास कार्प मछली का पालन किया जा रहा है तो पानी की वनस्पतियों जैसे लेमना, हाइड्रिला, नाजाज, सिरेटोफाइलम आदि तथा स्थलीय वनस्पतियों जैसे कैपियर बरसीम व मक्का के पत्ते इत्यादि जितना भी वह खा सकें, प्रतिदिन खिलाना चाहिए।
मछलियों की वृद्धि व स्वास्थ्य का निरीक्षण-प्रत्येक माह तालाब में जाल चलवा कर मछलियों की वृद्धि व स्वास्थ्य का निरीक्षण किया जाना चाहिए। यदि मछलियां परजीवियों से प्रभावित हों तो एक पी.पी.एम. पोटेशियम परमैंगनेट या 1 प्रतिशत नमक के घोल में उन्हें डुबाकर पुनः तालाब में छोड़ देना चाहिए। यदि मछलियों पर लाल चकत्ते व घाव दिखायी दें तो मत्स्य पालकों को चाहिये कि वे मत्स्य विभाग के जनपदीय कार्यलाय में तुरंत सम्पर्क करें तथा संस्तुतियां प्राप्त कर आवश्यक कार्यवाही करें। इस प्रकार 12 से 16 माह के बीच जब मछलियां 1.5 कि.ग्रा. की हो जायें तो उन्हें निकलवा कर बेच देना चाहिए। (हिफी)