– वीर विनोद छाबड़ा-ग़रीब और बेरोज़गार मज़दूर सा दिखता हुआ या बच्चों द्वारा ठुकराया दर-दर भटकता हुआ आदमी…रोता हुआ और जिसके मुंह से शब्द बाद में फूटें आंखों से आंसू पहले टपकें. फ़िल्मी दुनिया के पचास से सत्तर के सालों में ऐसे किरदार के लिए सबसे पहली पसंद होते थे, नज़ीर हुसैन. वो ऐसे किरदारों को इतने परफेक्शन के साथ जीते थे कि मुर्दा किरदार जीवंत हो उठता था. इसीलिए उन्हें ‘आंसूओं का कनस्तर’ भी कहा जाता था.
नज़ीर हुसैन की सिनेमा में आने की दास्तां बहुत दिलचस्प है. गाज़ीपुर के रहने वाले मगर व्यवहार में खांटी किस्म के, बिलकुल ज़मीन से जुड़े हुए. उनके पिता शाहबज़ाद हुसैन रेलवे में गार्ड थे. नज़ीर की पढ़ाई लखनऊ में पूरी हुई. फिर नौकरी की तलाश शुरू. दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था. सेना में भर्ती चल रही थी. ऊंचे कद के हष्ट-पुष्ट डील-डॉल के नज़ीर भी भर्ती की लाइन में लग लिए. ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें पहले मलेशिया में और फिर सिंगापुर में तैनात किया. वहीं वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित हुए. अंग्रेज़ी सरकार की नौकरी छोड़ कर इंडियन नेशनल आर्मी में भर्ती हो गए, दिल दिया है जां भी देंगे ए वतन तेरे लिए…युद्ध ख़त्म हुआ. मुल्क आज़ाद हुआ. नज़ीर को सरकार ने फ्रीडम फाईटर का दर्ज़ा देते हुए मुफ़्त आल इंडिया रेलवे पास दिया. लेकिन घूमने से पेट नहीं भरता है. नौकरी भी तो चाहिए. वो कलकत्ता पहुंचे, बीएन सिरकार का न्यू थिएटर ज्वाइन किया. वहीं उनकी भेंट बिमल रॉय से हुई. बिमल दा उन दिनों इंडियन नेशनल आर्मी की बैकग्राउंड पर एक फिल्म बना रहे थे, पहला आदमी (1950), जिसमें एक नौजवान नेता जी की आवाज़ पर शादी के मंडप से उठ कर इंडियन नेशनल आर्मी में भर्ती होने चले देता है, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा. नज़ीर की आईएनए की बैकग्राउंड उनके बहुत काम आई. उन्होंने इसका स्क्रीनप्ले लिखा और डायलॉग भी.
इसके बाद नज़ीर साहब ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. परिणीता, दो बीघा ज़मीन, देवदास, नया दौर, यहूदी, परवरिश, कालापानी, बम्बई का बाबू, आस का पंछी, गंगा-जमुना, साहिब बीवी और गुलाम, अनपढ़, असली-नकली, दिल ही तो है, बहुरानी, हमराही, कश्मीर की कली, लीडर, आई मिलन की बेला, आरज़ू, मेरे सनम, ज्वेल थीफ, राम और श्याम, साधु और शैतान, लाखों में एक, आँखें, प्रेम पुजारी, कटी पतंग, ललकार, अनोखी अदा, प्रतिज्ञा, अमर अकबर अंथोनी, राजपूत, मज़दूर आदि कोई ढाई सौ फ़िल्में हैं जिनमें उनकी छोटी सी भूमिका में भी ज़ोरदार मौजूदगी महसूस की गयी. बुलंद आवाज़ और चौड़ी शख़्सियत उनकी ख़ासियत रही.
उस दौर का शायद ही कोई हीरो या हीरोइन शेष हो, जिसके नज़ीर हुसैन बाप या नज़दीकी रिश्तेदार न बने हों. रोने-धोने वाला बाप तो उनकी इमेज बना दी गयी. दरअसल वो वेटेरन आर्टिस्ट थे, कई शेड के रोल किये. ‘राम और श्याम’ अगर याद हो तो वहीदा रहमान के हरदम हंसने वाले पिता थे. दिलीप कुमार को कहते हैं, अगर मुझे कोई लड़की कहे – कुएं में कूद जा तो मैं कभी मना न करूँ. एक सीन में वो दिलीप कुमार को ज़ोरदार थप्पड़ भी जड़ते हैं. ‘प्रेम पुजारी’ का वो गाना तो याद होगा, हिम्मत वतन की हमसे है…इसमें नज़ीर हुसैन एक रिटायर्ड फौजी हैं मगर दिल में दुश्मन से भिड़ने का तूफ़ान उठा हुआ है.
नज़ीर को भोजपुरी सिनेमा का ‘पितामह’ भी कहा जाता है. भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इबो’ के पीछे उन्हीं का हाथ था. उन्होंने भोजपुरी की हिट ‘हमार संसार’ प्रोड्यूस और डायरेक्ट भी की. 16 अक्टूबर 1987 को ताउम्र बुज़ुर्गों का रोल करने वाले वेटरन आर्टिस्ट नज़ीर हुसैन सिर्फ़ 65 साल की उम्र में ही चल बसे.