पुण्य तिथि पर विशेष- संजोग वॉल्टर। बादल सरकार अभिनेता, नाटककार, निर्देशक और इन सबके अतिरिक्त रंगमंच के सिद्धांतकार थे। उन्होंने तीसरा रंगमंच का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया, और उसे मंच पर भी उतारा। बादल सरकार ने ‘बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग’ तथा ‘टाउन प्लानिंग’ में डिप्लोमा की शिक्षा भारत और विदेशों में ली थी। वह भारत के बहुचर्चित नाटककारों में एक थे। सातवें दशक में पूरे देश में उनकी धूम मची थी। मोहन राकेश, विजय तेंडुलकर और गिरीश कर्नाड के साथ बादल सरकार को मिलाने के बाद ही उस दौर का रंगपरिवेश संपूर्ण होता था। उनके नाटक भारी संख्या में हिन्दी में और अन्य भारतीय भाषाओं में मंचित हुए और वे बांग्ला की परिधि से बाहर निकल समग्रता में भारत के नाटककार और भारतीय रंगमंच के अगुआ बने। उन्होंने रंगमंच को प्रेक्षागृह की परिधि से बाहर निकाला। आंगन मंच का सिद्धांत रचा। कम से कम खर्च में नाटक मंचित करना और आमजन के लिए नाटक को नि:शुल्क उपलब्ध कराना उनका लक्ष्य बना। 1956 में बादल सरकार ने अपना पहला नाटक ‘सॉल्यूशन एक्स’ लिखा।
15 जुलाई, 1925 को कोलकाता के ईसाई परिवार में बादल उर्फ सुधीन्द्र सरकार का जन्म हुआ। पिता महेन्द्रलाल सरकार ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ में पढ़ाते थे और विदेशियों द्वारा संचालित इस संस्था के वे पहले भारतीय प्रधानाचार्य बने थे। मां, सरलमना सरकार से बादल सरकार को साहित्य की प्रेरणा मिली। 1941 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास करने के बाद वे ‘शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज’ में भर्ती हुए और 1946 में वे सिविल इंजीनियर बने। इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते समय वे मार्क्सवादी विचारधारा और राजनीति से सघन रूप से जुड़ गए। कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय रूप से कई वर्षों तक जुड़े रहने के बावजूद, बाद में वे पार्टी राजनीति से अलग हट गए।
बादल सरकार ने 1947 में नागपुर के पास निर्माण संस्था में पहली नौकरी की। बाद में वे फिर कोलकाता लौट आए जहां उन्होंने जादवपुर और कोलकाता विश्वविद्यालय में इंजीनियर की नौकरी की। वे उन दिनों नौकरी के साथ-साथ शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में सायंकालीन कक्षाओं में ‘टाउन प्लानिंग’ डिप्लोमा के लिए पढ़ाई करते रहे। 1953 में दोमादर वैली कारपोरेशन की नौकरी लेकर माइथन गए। माइथन में बादल सरकार 1956 तक थे। इसी दौरान नाटक के प्रति उनका रुझान दिखने लगा। दफ़्तर के सहकर्मियों के साथ मिलकर एक अभिनव रिहर्सल क्लब की शुरुआत की जहां, बादल सरकार के शब्दों में ‘रिहर्सल होगा पर नाटक का मंचन कभी नहीं होगा।’ जैसा अभिनव नियम लागू किया गया था, पर बाद में सदस्यों के उत्साह से इस नियम में तोड़कर नाटकों के मंचन की शुरुआत हुई।
बचपन से ही बादल सरकार नाटकों के प्रति आकर्षित थे। उन्हें नाटकों में हास्य रस सबसे ज़्यादा पसंद था, लिहाज़ा यह स्वाभाविक ही था कि उनके प्रारंभिक नाटकों में हमें यह तत्व ज़्यादा मुखर दिखता है। वे इसे ‘सिचुएशन कॉमेडी’ कहते हैं। उनका 1956 में लिखा गया पहला नाटक ‘सॉल्यूशन एक्स’ था। यह नाटक विदेशी फ़िल्म, ‘Monkey Business’ की कहानी पर आधारित सिचुएशन कॉमेडी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
1957 से 1958, इन दो वर्षों के दौरान उन्होंने इंग्लैंड में ‘टाउन-प्लानिंग’ का कोर्स करने के साथ-साथ नौकरी की। इसी समय उन्हें प्रसिद्ध अभिनेताओं का अभिनय देखने का मौक़ा मिला। विवयन ली, चार्ल्स लैटन, माइकल रॉडरेथ, मार्गरेट कॉलिन्स आदि के अभिनय और वहां के रंगकर्म से वे बेहद प्रभावित हुए। पर शायद उनके ‘तीसरे रंगमंच’ की नींव की पहली ईंट के रूप में फ्रेंच कवि रॉसिन की कृति ‘फ्रिड्रे’ नाटक को देखने का अनुभव था। 21 फरवरी, 1958 को देखे गए ‘थिएटर-इन-राउण्ड’ में इस प्रस्तुति के बारे में अपने अनुभवों को डायरी के पन्नों में दर्ज करते हुए उन्होंने लिखा था, ‘आज जो देखा उसे कभी भुला न पाऊंगा।’ मुक्त मंच के इस अनुभव को हम वर्षों बाद उनके तीसरे रंगमंच की अवधारणाओं में विकसित होते देख पाते हैं।
इंग्लैंड प्रवास के दिनों में ही उन्होंने ‘बोड़ो पीशी मां’ (बड़ी बूआजी) लिखा। इसी समय उन्होंने एक छोटा नाटक ‘शनिवार’ लिखा। यह नाटक जी.बी. प्रिस्टले के नाटक ‘एन इन्स्पेक्टर कॉल्स’ पर आधारित था। 1959 में वे इंग्लैंड से कोलकाता लौट आए और आते ही अपने उत्साही मित्रों के साथ ‘चक्रगोष्ठी’ नाम से एक ‘नाट्य संस्था’ की नींव रखी। हर शनिवार को इस गोष्ठी में नाटक के साथ-साथ संगीत, साहित्य, विज्ञान आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा होती थी। इसी ‘चक्रगोष्ठी’ के प्रयास से उनके कई आरंभिक नाटकों से दर्शक परिचित हुए। ‘बोड़ो पीशीमां’, ‘शोनिबार’, ‘समावृत’, ‘रामश्यामजदु’ आदि जिनमें प्रमुख हैं।
इसके बाद बादल सरकार फ्रांस सरकार के आर्थिक अनुदान पर वहां गए और फिर तीन वर्षों तक नाइजीरिया में नौकरी की। इस विदेश प्रवास के दौरान उन्होंने ‘एबों इन्द्रजित’, ‘सारा रात्तिर’, ‘बल्लभपुरेर रूपकथा’, ‘जोदी आर एकबार’, ‘त्रिंश शताब्दी’, ‘पागला घोड़ा’, ‘प्रलाप’, ‘पोरे कोनोदिन’ जैसे महत्त्वपूर्ण नाटक लिखे।
देश में लौटने के पहले ही ‘एबों इन्द्रजित’ बहुरूपी नाट्य पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाशन के साथ ही बादल सरकार की ख्याति चारों ओर फैल गई। इसका पहला मंचन ‘शौभनिक’ नाट्यसंस्था ने 16 दिसंबर, 1965 को किया। नाटक के प्रकाशन और मंचन ने नाट्य जगत् में मानों धूम मचा दी। 1968 को उन्हें इस नाटक के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। नाइज़ीरिया से भारत लौटने के तुरंत बाद उन्होंने ‘बाकी इतिहास’ लिखा। उन दिनों शंभु मित्र रंगमंच के शीर्षस्थ व्यक्तियों में थे। उनकी नाट्य संस्था ‘बहुरूपी’ ने ‘बाकी इतिहास’ का सफल मंचन किया। ये दोनों नाटक उनके ‘सिचुएशनल कॉमेडी’ वाले नाटकों से बिल्कुल भिन्न थे, जो भारतीय रंगमंच में एक नए युग का संकेत था।
1967 में उन्होंने अपने साथियों के साथ ‘शताब्दी’ नाट्य संस्था की स्थापना की। 18 मार्च, 1967 को ‘रवीन्द्र सरोवर मंच’ से ‘शताब्दी’ ने अपनी रंगयात्रा शुरू की। 1956 से लेकर 1967 तक के सभी नाटक बादल सरकार ने ‘प्रोसेनियम मंच’ के लिए लिखे थे। लिहाज़ा ‘शताब्दी’ की आरंभिक प्रस्तुतियां ‘प्रोसेनियम’ ही थीं। 1971 से रंगमंच को लेकर बादल सरकार की अवधारणाएं तेजी से बदलने लगी थीं और वे निरंतर प्रयोग कर रहे थे। प्रयोगों के इस दौर से गुजरते हुए वे ‘तीसरे रंगमंच’ तक जल्द ही पहुंच सके। वे मानने लगे थे कि ‘नाटक एक जीवंत कला माध्यम है- Live show ! लोगों का दो समूह – एक ही वक्त, एक ही स्थान पर इकट्ठे होकर एक कला माध्यम के साथ जुड़ रहे हैं – अभिनेताओं और दर्शकों के दो समूह के रूप में। यह एक मानवीय क्रिया है – मनुष्य का मनुष्य के साथ जुड़ाव। सिनेमा हमें ऐसे प्रत्यक्ष जुड़ाव का मौक़ा नहीं देता।’ ऐसे ही विचारों से रंगमंच पर प्रयोग करते हुए, उन्होंने अन्तत: रंगमंच को सार्थक कला माध्यम के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से, प्रोसेनियम रंगमंच को त्याग, तीसरे रंगमंच को आम जनता तक एक ‘फ्री-थिएटर’ के रूप में ले जाने में कामयाबी हासिल की।
1970 से 1993 तक बादल सरकार के सभी नाटक तीसरे या विकल्प के रंगमंच को ध्यान में रखकर लिखे गए। ‘शताब्दी’ के अलावा पूरे देश में इन नाटकों को विभिन्न भाषाओं में, छोटे-बडे़ शहरों – कस्बों में विभिन्न नाट्य संस्थाओं द्वारा खेला गया। बादल सरकार के तीसरे रंगमंच ने भारत की भाषाई, प्रांतीय और सांस्कृतिक दूरियों को खत्म कर पहली बार एक सार्थक भारतीय रंगमंच विकसित करने की दिशा में एक सफल प्रयास किया। मराठी, हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, मलयाली, कन्नड़, ओडिय़ा आदि भारतीय भाषाओं में उनके नाटक मंचित हुए और किसी न किसी रूप में देश के सभी प्रांतों के रंगकर्मियों को तीसरे रंगमंच ने अपनी ओर आकर्षित किया।
1961 में उनका तीसरा नाटक ‘राम श्याम जोदू’ आया जो एक विदेशी कहानी पर आधारित था। इस नाटक की सफलता ने उन्हें एक अलग किस्म के थिएटर का जनक बनाया, जिसे भारत में ‘थर्ड थिएटर’ और ‘साइको फिजिकल थिएटर’ (मनो-शारीरिक रंगमंच) के नामों से जाना गया। सन् 1963 में उन्होंने दो नाटकों का निर्देशन किया। ये नाटक थे – एवम् इंद्रजीत और वल्लभपुर की रूपकथा । इन नाटकों के साथ ही बादल सरकार का नाम हर रंगकर्मी की जुबान पर छा गया। बादल सरकार ने अपने साथियों के साथ ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम के साथ बंगाल के अनेक ज़िलों में गांव-गांव जा कर नाटक किए और बंगाल के ग्रामीण जनों से सीधा रंगसम्पर्क बनाया। नादिया, 24 परगना आदि ज़िलों में भी गांव-गांव घूम कर बादल सरकार ने रंगकर्म का संदेश दे कर अभिजात्य नाट्य जगत् को चुनौती दी। उनके नाटकों में कलाकारों और दर्शकों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं होता है। बादल सरकार ने आंगन, छत, नुक्कड़ और गांवों में नाटकों को पहुंचा कर नाटक को व्यापक बनाया।
बादल सरकार को 1968 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1972 में पद्मश्री, 1997 में संगीत नाटक अकादमी-रत्न सदस्य का पुरस्कार मिल चुका है। 2010 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण सम्मान दिया गया जो उन्होंने लेने से यह कहकर इंकार कर दिया कि एक लेखक का सबसे बड़ा सम्मान साहित्य अकादमी पुरस्कार वह पहले ही पा चुके हैं।
तीसरा रंगमंच के संस्थापक और भारतीय ग्रामीण पारंपरिक रंगमंच के पुरोधा बादल सरकार का पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में 13 मई 2011 को निधन हो गया। बादल सरकार कैंसर से पीड़ित थे।एजेंसी
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