इबने अरबी, ‘शेख अबू बकर मोईउद्दीन बिन अली’, अरबी के प्रसिद्ध सूफी कवि, साधक और विचारक थे। इबने अरबी के सम्बन्ध में लोगों की अलग-अलग धारणाएं हैं। कुछ व्यक्तियों के विचार से वे संन्यासी (वली कामिल) थे और अध्यात्म् पर उनका पूर्ण अधिकार था, जिसमें किसी की कोई आपत्ति नहीं हो सकती। दूसरी ओर एक ऐसा समुदाय भी था, जो उन्हें नास्तिक समझता था। इबने अरबी की पुस्तकों के सम्बन्ध में आज भी ऐसी ही परस्पर विरोधी धारणाएं प्रचलित हैं। ये ‘शेखुल अकबर’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।
17 रमजान सन् 560 हिजरी (28 जुलाई, 1165 ) मरसिया में पैदा हुए थे, जो उन्दलुस के दक्षिण पूर्व में स्थित है। उनका सम्बन्ध अरब के एक प्राचीन कबीले ‘तय’ से था। जगत् विख्यात दानी ‘हातिमताई’ इसी कबीले के थे। सन 568 हिजरी में इबने अरबी (अशबीलिया) चले गए, जो उन दिनों विद्या और साहित्य का बहुत बड़ा केन्द्र था। यहाँ वे तीस साल तक उस समय के जाने माने विद्वान् से ज्ञान प्राप्ति करते रहे। 38 वर्ष की आयु में वे पूर्वी देश चले गए और वहाँ से फिर कभी स्वदेश नहीं लौटे। सबसे पहले वे मिस्र पहुँचे और कुछ समय वहाँ व्यतीत किया। फिर समीपस्थ पूर्व और एशियाई कोचक (तुर्की) की लम्बी यात्रा में व्यस्त हो गए और इस सिलसिले में बैतुलमकदिस (पोरशलम) मक्का, बगदाद और हलब गए। अन्त में उन्होंने दमिश्क में स्थाई रूप से रहना प्रारम्भ कर दिया और वहीं पर सन् 638 हिजरी (16 नवम्बर1240 ) में उनका देहान्त हो गया। उन्हें कासीउन पर्वत में दफन कर दिया गया।
इबने अरबी की रचनाओं की संख्या और उनके खंडों के बारे में कुछ भी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। अब्दुर्रहमान जामी ने, एक बगदाद वासी वृद्ध सज्जन के कथनानुसार, इबने अरबी की पुस्तकों की संख्या 580 से अधिक बताई है और मिस्र के विद्वान् मुहम्मद रजब हिल्मी ने इनकी संख्या 284 आंकी है। इनकी कृतियों की विश्वसनीय संख्या आमतौर पर अधिक से अधिक 150 के क़रीब मानी जाती है। इबने अरबी ने अपनी रचनाओं का जो भंडार छोड़ा है, वह उस समय की सभी इस्लामिक शिक्षाओं को अपने में समेटे हुए हैं, परन्तु अधिकतर पुस्तकों का विषय सूफीवाद (तसब्बुफ) है। इन सभी पुस्तकों को समय की दृष्टि से क्रमबद्ध करना अत्यन्त कठिन है। इनमें से ‘फुतुहोत-मक्कीया’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो उनके परिपक्व मस्तिष्क का दर्पण है। उनके लिखने का ढंग प्रतीकात्मक और व्याख्या अत्यन्त गूढ़ है। कहीं-कहीं जान बूझकर कुछ बातों को उन्होंने दुर्बोध बनाने का प्रयास किया है। ऐसा इसलिए कि वे अपने बहदतुलवुजुदी के सिद्धांत को लोगों से छिपा सकें। फलत: इस्लामिक संसार में उनके सिद्धांतों के विषय में विरोधाभास पाया जाता है। साभार