एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को, लंदन, यू.के. में हुआ और उनकी मृत्यु 20 सितम्बर 1933 को मद्रास में हुई थी। वो प्रसिद्ध ब्रिटिश समाज सुधारक, महिला अधिकारों की समर्थक, थियोसोफिस्ट, लेखक तथा वक्ता होने के साथ ही आयरिश तथा भारत की आजादी की समर्थक थी।
20 साल की आयु में उनकी शादी फ्रैंक बेसेंट से हुई किन्तु शीघ्र ही अपने पति से धार्मिक मतभेदों के कारण अलग हो गयी। उसके बाद वो राष्ट्रीय सेक्युलर सोसायटी की प्रसिद्ध लेखिका और वक्ता बन गयी और चार्ल्स ब्रेडलॉफ के सम्पर्क में आयीं। वो 1877 में प्रसिद्ध जन्म नियंत्रक प्रचारक चार्ल्स नोल्टन की एक प्रसिद्ध किताब प्रकाशित करने के लिये चुनी गये। 1880 में उनके करीबी मित्र चार्ल्स ब्रेडलॉफ नार्थ हेम्प्टन के संसद के सदस्य चुने गये। तब वो फैबियन सोसायटी के साथ ही मार्क्सवादी सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन की भी प्रमुख प्रवक्ता बन गयी। उनका चयन लंदन बोर्ड स्कूल के हैमिलटन टावर के लिये किया गया।
वो 1890 में हेलेना ब्लावस्टकी से मिली और थियोसोफी में रुचि लेने लगी। वो इस सोसायटी की सदस्य बन गयी और थियोसोफी में सफलता पूर्वक भाषण दिया। थियोसिफिकल सोसायटी के कार्यों के दौरान 1898 में वो भारत आयी। 1920 में इन्होंने केन्द्रीय हिन्दू कॉंलेज की स्थापना में मदद की। कुछ साल बाद वह ब्रिटिश साम्राज्य के कई हिस्सों में विभिन्न लॉज स्थापित करने में सफल हो गयी। 1907 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनी। वो भारतीय राजनीति में शामिल हो गयी और भारतीय राष्ट्रीय काग्रेंस से जुड़ गयी।
एनी बेसेंट का जन्म लंदन की मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। जब वो केवल 5 साल की थी उन्होनें अपने पिता को खो दिया। उनकी माँ का स्वभाव से ही कठिन परिश्रम करने वाली थी, अपने परिवार के पालन-पोषण के लिये उनकी माँ, हैरो स्कूल के लड़कों के लिये बोर्डिंग हाउस का संचालन करती थी। उनकी माँ उनका पालन करने में असमर्थ थी इसलिये एनी की अच्छी देखभाल और परवरिश के लिये अपनी मित्र ऐलन मैरियट के साथ भेज दिया। जब वो केवल 19 साल की थी उन्होंने 26 वर्ष के पादरी फ्रैंक बेसेंट से शादी कर ली। वो कुछ समय के लिये ब्रिकबेक साहित्य और वैज्ञानिक संस्था में अध्ययन भी करती थी। वह उन कारणों के लिये जो उनके अनुसार सही होते थे, के लिये हमेशा लङ़ती थी। वो दो बच्चों की माँ थी और हमेशा उन दोनों के सम्पर्क में रहती थी। बेसेंट एक बुद्धिमान लोक वक्ता थी, और उनकी वहां बहुत ज्यादा माँग थी।
वो सोसायटी के नेता चार्ल्स ब्रेडलॉफ की बहुत करीबी मित्र थी और बहुत से मुद्दों पर दोनो साथ काम करते थे साथ ही वह नार्थ हेम्पटन संसद की सदस्य भी चुनी गयी थी। एनी और उनके मित्र दोनों ने एक चार्ल्स नोल्टन (अमेरिकी जन्म नियंत्रण प्रचारक) की किताब प्रकाशित की। इस बीच, बेसेंट द्वारा कठिन वर्षों में अपने समाचार पत्र के स्तम्भ लेखों के माध्यम से मदद करने के दौरान उनके आयरिश होम रुल से करीबी सम्बन्ध बने।
एनी बेसेंट के अनुसार मित्रता, प्रेम और राजनीति अंतरंग रुप से उलझे हुये है। बेसेंट फैबियन सोसायटी से जुड़ गयी और फैंबियंस के लिये लिखना शुरु कर दिया। वो 1888 की लंदन मैचगर्ल्स हड़ताल में सक्रिय रुप से शामिल हुई। उन्होंने ह़ड़ताल के उद्देश्य से महिलाओं की एक कमेटी बनायी जिसका लक्ष्य बेहतर भुगतान और सुविधाओं के लिये माँग करना था। 1884 में उनका युवा सामाजवादी शिक्षक, एडवर्ड से करीबी रिश्ता बना। जल्द ही वो मार्क्सवाद से जुड़ गयी और लंदन स्कूल बोर्ड के चुनाव के लिये खङी हुई। वो 1889 की लंदन डॉक हड़ताल से भी सम्बन्धित थी और संगठन द्वारा आयोजित बहुत सी महत्वपूर्ण बैठकों और जूलूसों में भी भाग लेती थी।
एनी बेसेंट बहुत रचनात्मक लेखक और एक प्रभावशाली वक्ता थी। उन्हें 1889 में गुप्त सिद्धान्त (एच.पी.ब्लाव्टस्की की एक किताब) पर पाल माल राजपत्र पर समीक्षा लिखने के लिये आमंत्रित किया गया था। पेरिस में पुस्तक के लेखक के साक्षात्कार के तुरंत बाद वो थियोसोफी में बदल गयी। उन्होंने 1890 में फैंबियन सोसायटी और मार्क्सवाद से अपने संबंध तोड़ लिये। 1891 में पुस्तक के लेखक, ब्लाव्टस्की की मृत्यु के बाद, केवल वह ही थियोसोफी की प्रमुख नेतृत्वकर्ता के रुप में थी और उन्होंने इसे शिकांगो विश्व मेले पर प्रतीकात्मक रुप दिया।
वो थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य के रुप में भारत आयीं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। चेन्नई में उनके सम्मान में थियोसोफिकल सोसायटी के निकट बेसेंट नगर है। 1916 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ उन्होंने होमरुल आन्दोलन की शुरुआत की थी। एनी बेसेंट दिसम्बर में एक वर्ष के लिये भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की अध्यक्ष भी बनी। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कठिन संघर्ष किया और भारत की स्वतंत्रता की माँग करते हुये अनेक पत्र और लेख लिखे।
20 सितम्बर 1933 में उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी पुत्री माबेल उनका पार्थिव शरीर लेकर गयी। उनकी मृत्यु के बाद, उनके सम्मान में उनके सहयोगियों (जिद्दू कृष्णमूर्ति, गुइडो फर्नाल्डो, एल्डस हक्सले और रोसालिंड राजगोपाल) ने बेसेंट हिल स्कूल बनवाया।
एनी बेसेंट महान और साहसी महिला थी जिन्हें स्वतंत्रता सेनानी का नाम दिया गया क्योंकि उन्होंने लोगों को वास्तविक स्वतंत्रता दिलाने के लिये बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ी। वो गहराई के साथ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ी हुई थी और भारत को स्वतंत्र देश बनाने के लिये कई आभियानों को जारी रखा। वो भारतीय लोगों, संस्कृति और परंपराओं से प्रेम करती थी और उनके विश्वासों को समझती थी क्योंकि वो एक लेखक और वक्ता थी। उन्होनें 1893 में भारत को अपना घर बना लिया और अपने तेज भाषणों से गहरी नींद में सोये हुये भारतियों को जगाना शुरु कर दिया। एक बार महात्मा गाँधी ने उनके बारे में कहा था कि उन्होंने गहरी नींद में सोये भारतियों को जगाया है।
1908 में जब वह थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बन गयी, उन्होंने भारतीय समाज को बौद्ध धर्म से दूर हिन्दू धर्म की ओर आने को प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया। उन्होंने खुद को गहराई से भारत की समस्याओं को हल कर्ता के रुप में शामिल कर लिया। भारत में लोकतंत्र लाने के लिये उन्होंने होमरुल आन्दोलन में सहयोग किया। वो 1917 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की प्रथम महिला अध्ययक्ष चुनी गयी। उन्होंने भारत में बहुत से सामाजिक कार्यों को करने में खुद को शामिल कर लिया जैसेः शिक्षण संस्थानों की स्थापना, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में सहयोग आदि।
वह भारत में जैसे महिला अधिकारों, मजदूरों के अधिकारों, धर्मनिरपेक्ष, जन्म नियंत्रक अभियान और फैंबियन समाजवाद जैसे मुद्दों पर लड़ी। उन्होंने चर्चों के खिलाफ लिखा और लोगों को सही रास्ता दिखाया। अपने सामाजिक कार्यों के लिये वह सार्वजनिक वक्ता के रुप में चुनी गयी क्योंकि वो बुद्धिमान वक्ता थी। उनके करीबी मित्रों में से एक, चार्ल्स ब्रेडलॉफ, नास्तिक और गणतंत्रवादी थे, जिसके साथ उन्होंने बहुत से सामाजिक मुद्दों पर कार्य किया था। वो अपने अन्य मित्रों के साथ 1888 की लंदन मैचगर्ल्स हड़ताल में शामिल हुई, जो नये संघवाद की लड़ाई थी।
एक आयरिश क्षेत्र की महिला, एनी बेसेंट, 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता सत्र के दौरान प्रथम महिला अध्यक्ष बनी। वह एक महान महिला थी जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारत को एक स्वतंत्र देश बनाने के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पति से अलगाव के बाद वह थियोसोफी से संबंधित एक धार्मिक आन्दोलन के लिये भारत आयी, जिसके बाद वह नेता बन गयी।
1893 में भारत आने के बाद वह गहराई से स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल हो गयी और यहीं रहने का निर्णय किया। भारत मे चलाये गये बहुत से सामाजिक सुधार के आन्दोलनों में वह सफल भी हुई। एक दिन वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम महिला अध्ययक्ष बनी और भारत के लोगों के सन्दर्भ में उचित कार्यों को किया।
वो थियोसोफी में बदल गयी और थियोसोफिस्ट बन गयी जब उन्हें लगा कि वो आध्यात्मिक विकास के लिये लड़ने के लिये अधिक सक्षम हैं। अन्त में, जब वो थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक मैडम ब्लाव्टस्की से 1875 मिली तो वो 1887 में पूर्ण रुप से थियोसोफी बन गयी। वो उनकी शिष्य बन गयी और वो सब कुछ किया जिसके लिये वो भावुकता से जुङी हुई थी। थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना पूरे विश्व में “मानवता के विश्व बन्धुत्व” के उद्देश्य से “राष्ट्रों के बीच भाईचारे” को बढाने के लिये की गयी थी।
उन्होंने 1889 में थियोसोफी से जुड़ने के तुरंत बाद से थियोसोफी पर लेख और साहित्य लिखना प्रारम्भ कर दिया था। उनके लेखों में से एक “मैं थियोफिस्ट क्यों बनी” उनके थियोफिस्ट के रुप में इतिहास पर आधारित है। अपने गुरु, मैडम ब्लाव्टस्की का, 8 मई 1891 में निधन होने के बाद अपने सामाजिक कार्यों को पूरा करने के लिये 1893 में भारत आयी। 1906 में एच.एस.ऑकॉट (सोसायटी के अध्ययक्ष) की मृत्यु के बाद, अड्यार और बनारस में थियोसोफिकल सोसायटी के वार्षिक सम्मेलन के दौरान, वो थियोसोफिकल सोसायटी के अध्यक्ष के लिए नामित की गयी। आखिरकार वो थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनी और अपनी मृत्यु 1933 तक इस पद पर कार्यरत रही। अपनी अध्यक्षता में, उन्होंने अन्य विभिन्न क्षेत्रों में थियोसोफी की जैसेः सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि। अन्य क्षेत्रों में थियोसोफी के सपने को पूरा करने के लिये, उन्होंने “थियोसोफिकल आर्डर ऑफ सर्विस एण्ड द संस ऑफ इण्डिया” की स्थापना की।
उन्होंने भारत के लोगों को भी थियोसोफिकल शिक्षा लेने के लिये प्रोत्साहित किया। थियोसोफिस्ट के रुप में निरंतरता के साथ ही वह 1923 में भारत में राष्ट्रीय सम्मेलनों की महासचिव बनी। 1924 में लंदन में उनके सार्वजनिक जीवन में 50 वर्ष की उपस्थिति के साथ ही उनके मानवता पर किये गये सामाजिक कार्यों और लोगों के बीच मानवता की भावना को प्रेरित करने के कार्यों पर ध्यान केन्द्रित करते हुये सम्मानित किया गया। 1926 में थियोसोफी पर व्याख्यान देने के बाद उन्हें विश्व शिक्षक घोषित किया गया। वह 1928 में चौथी बार थियोसोफइकल सोसायटी की अध्यक्ष चुनी गयी।
एनी बेसेंट एक महान समाज सुधारक थी, जिन्होंने दोनों देश, इंग्लैंड और भारत के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया था। उन्होंने भारत में महिलाओं के अधिकारों के संबंध में आलोचनाओं के बाद भी लगातार किये गये अपने महान सामाजिक कार्यों के माध्यम से स्वयं को एक अच्छी सामाजिक कार्यकर्ता साबित किया। वो हमेशा महिला अधिकारों के लिये लड़ती थी, हिन्दू परंपराओं का पक्ष लेती थी क्योंकि वो पुराने हिन्दू विचारों का बहुत आदर करती थी।
सामाजिक कार्यकर्ता के जीवन के दौरान, उन्होंने राष्ट्रीय सुधारक (एन.एस.एस. का एक अखबार) के लिये लिखा। उन्होंने बहुत बार सामाजिक विषयों पर भाषण दिया क्योंकि वह एक उत्कृष्ट वक्ता थी। नेशनल सेक्युलर सोसायटी के उनके मित्रों में से एक, चार्ल्स ब्रेडलॉफ एक नेता, पूर्व सैनिक, नास्तिक और एक गणतंत्रवादी थे, जिनके साथ रहकर एनी बेसेंट ने बहुत से सामाजिक मुद्दो पर कार्य किये। एकबार अपने सामाजिक कार्य जन्म नियंत्रण के दौरान उन्हें और उनके मित्र को एक साथ गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना ने उन्हें अपने बच्चों से अलग कर दिया क्योंकि इनके पति ने न्यायालय में इनके खिलाफ शिकायत दर्ज करायी कि वह अपने बच्चों की देखभाल करने में असक्षम है।
इस प्रकार की दयनीय स्थिति देखकर बेसेंट ने 23 जून 1888 को एक सप्ताहिक पत्र में “द लॉस्ट इंक नाम” से लेख लिखा। जिस पर यह मामला लोगों के संज्ञान में आया और उन्होंने इस हङताल को सफल बनाने के लिये सहयोग किया। एनी बेसेंट अपने मित्र हर्बट बोर्रस की सहायता से इस आन्दोलन को सफल बनाने में सक्षम हुई।एजेन्सी।