आसिफुद्दौइस प्रकार उनकी इज़्ज़त बरकरार रखी गई। उनका 21 सितंबर 1797 में लखनऊ में देहांत हुआ और उनकी कब्र बड़ा इमामबाड़ा, लखनऊ में है।ला मिर्ज़ा मोहम्मद याहिया खान की पैदाइश 23 सितंबर1748 में हुई थी। 1775 से 1797 के बीच अवध के नवाब थे । उस समय अवध को भारत का अन्न भण्डार माना जाता था जो कि दोआब कहलाए जाने वाले गंगा नदी और यमुना नदी के बीच की उपजाऊ ज़मीन के क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए कूटनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। यह बहुत ही धनवान राज्य था और यह मराठों, अंग्रेज़ों और अफ़ग़ानों से अपनी स्वतंत्रता बनाए रख पाया था। 1732 में अवध के नवाब सआदत अली खान ने अवध के स्वतन्त्र होने की घोषणा कर दी थी। रोहिल्ला ने भी स्वतन्त्र रोहेलखण्ड की स्थापना की, रोहिल्लो का राज्य 1774 तक चला जब तक कि अवध के नवाब ने अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से उन्हें हरा नहीं दिया। आसफ़ुद्दौला के पिता, अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने बंगाल के बाग़ी नवाब मीर क़ासिम के साथ मिल कर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ सन्धि कर ली थी जिसके कारण अंग्रेज़ नवाब शुजाउद्दौला के विरोधी हो गए थे।
नवाब शुजाउद्दौला के निधन के बाद आसिफुद्दौला अवध के नवाब बने और 1775 में वे अवध की राजधानी फ़ैज़ाबाद से लखनऊ ले गए और वहाँ उन्होंने बड़ा इमामबाड़ा नौबत खांना ,आसिफी मस्ज़िद,शाही बावली ,भूल भुलैया सहित कई इमारतें बनवाईं। रूमी गेट नक़ल है ईरान में कायम एक गेट की। नवाब आसफ़ुद्दौला के वक़्त में सभी इमारतें हाफ़िज़ किफ़ायत उल्लाह की देख रेख में बनी थी। हाफ़िज़ किफ़ायत उल्लाह की इच्छा थी जब उनका निधन हो तो उन्हें बड़े इमाम बाड़े में दफ़नाया जाये। उनकी यह इच्छा पूरी की गयी। बड़े इमाम बाड़े में तीसरी कब्र, हाफ़िज़ किफ़ायत उल्लाह की है। तब इमाम बाड़े के अंदर शाही खानदान के लोगों को ही दफनाया जाता था।
आसफ़ी इमामबाड़ा गुंबददार इमारत है जिसके चारों ओर कभी खूबसूरत बाग़ हुआ करते थे । 1784 के अकाल में रोजगार उत्पन्न करने के लिए नवाब आसिफुद्दौला ने खैराती परियोजना के तौर पर इसे शुरू किया था। इस अकाल में रईसों के पास भी रूपये खत्म हो गए थे। कहा जाता है कि नवाब आसफ़ुद्दौला ने इस परियोजना में 20,000 से ज़्यादा (आम व रईस दोनों ही) लोगों को काम दिया, यह न मस्जिद था न कब्रगाह (आमतौर पर इस तरह की इमारतें उस समय इन दो मकसदों के लिए ही बनाई जाती थीं)। नवाब आसफ़ुद्दौला की उच्च वर्ग की इज़्ज़त के बारे में खयाल रखने की भावना के बारे में अंदाज़ा इमामबाड़ा बनाने से जुड़ी कहानी से लगाया जा सकता है। दिन के समय परियोजना में लगी आम जनता इमारतें बनाती। हर चौथे दिन की रात में रईस व उच्च वर्ग के लोगों को गुपचुप बने हुए ढाँचे को तोड़ने का काम दिया जाता था और इसके एवज में उन्हें पैसे दिए जाते। इस प्रकार उनकी इज़्ज़त बरकरार रखी गई। उनका 21 सितंबर 1797 में लखनऊ में देहांत हुआ और उनकी कब्र बड़ा इमामबाड़ा, लखनऊ में है।