पुण्य तिथि पर विशेष- सलिल दलाल । दुर्गा खोटे (14 जनवरी 1905) यानि ‘महारानी जोधाबाई’ यही छवि कितने सालों से दिल दिमाग में छाई हुई है। ‘मुगल-ए-आज़म’ में पति शहँशाह अकबर और बेटे सलीम की टक्कर में पीसने वाली जोधाबाई की भूमिका में दुर्गाबाई ने पृथ्वीराज कपूर तथा दिलीपकुमार दो दो दिग्गज अभिनेताओं के साथ अपनी प्रतिभा के वो जौहर दिखाये थे कि राजघराने की एक नारी की सारी संवेदनाएं पर्दे पर बखूबी प्रस्तुत की। शहजादा सलीम जंग के मैदान से आते हैं तब का ममतामयी चेहरा हो या कृष्ण जन्म के महोत्सव पर छलकती भक्ति, पिता के खिलाफ़ जाने के लिए तैयार पुत्र को सख्ती से राजधर्म की याद दिलाती राजमाता का अभिनय….. क्या क्या नहीं किया था दुर्गा जी ने ‘मुगल-ए-आज़म’ में। जब पति और बेटे में से किसी एक को पसंद करने का आदेश अकबर करते हैं, तब छलकती आंखों से वे जिस अंदाज से कहतीं हैं,दुर्गा खोटे जहांपनाह… एक तरफ औलाद है और दुसरी तरफ सुहाग…”
दुर्गा खोटे की आंखों से ममता का छलकना इतना सहज था कि उस में कभी अभिनय लगता ही नहीं था। इस लिए उन्हें ‘अभिमान’ में अमिताभ की ‘दुर्गा मौसी’ के रूप में हों या ‘बॉबी’ में ‘मिसेज ब्रिगेन्जा’ की भूमिका में हर एक में उनकी छवि वात्सल्यभरी ही थी। उनके पास कपट, कलेश या बुराई करने वाले पात्रों का शायद चेहरा ही नहीं था। गाल में पडते डिम्पल और निर्मल आंखें दुर्गा जी को चरित्र अभिनेत्रीओं में तो सबसे अलग रखने के लिए उपयुक्त थी। ये सब अपनी युवा दिनों में जब वे नायिका के रोल करतीं थीं उन दिनों की उनकी खूबसूरती की कल्पना करने के लिए भी उपयुक्त थे। उन्हें ‘बावर्ची’ के गीत “भोर आई, गया अंधियारा…” के अंतिम हिस्से में उस उम्र में भी पैर थिरकाते देखकर उनके हीरोइन वाले दिनों का अंदाजा आ सकता है।
हीरोइन बनने का दुर्गा खोटे का इरादा पहले से नहीं था। क्योंकि उनके पिता और भाई दोनों वकालत के व्यवसाय में थे। गौड सारस्वत ब्राह्मिन परिवार की दुर्गा जी बम्बई के सेन्ट ज़ेवियर्स कालिज में बी.ए.की पढा़ई कर रही थी, तभी उनकी शादी विश्वनाथ खोटे से हुई। शादी के बाद कालिज की पढा़ई पूर्ण कर उन्होंने डिग्री प्राप्त की और दो बेटों (बकुल और हरिन) की माता भी बनी। ऐसे दिनों में उनकी बहन शालिनी के परिचित निर्माता-निर्देशक जे.बी.एच. वाडिया को अपनी मूक फ़िल्म में अंतिम दृश्यो में हीरोइन के साथ काम करने के लिए अभिनेत्री की आवश्यकता थी। वाडिया जी ने शालिनी से पूछा। उन्होंने इन्कार तो किया, साथ ही अपनी बहन का नाम भी लिया। क्योंकि वो कुछ भी नया आजमाने को तैयार रहती थी। उस फ़िल्म ‘फरेबी जाल’ से शुरुआत हुई, जो मूक फ़िल्म थी। पिक्चर तो फ्लॉप हो गई। परंतु, गिरगांव जैसे मुंबई के उन दिनों के छोटे से उपनगर में दुर्गा जी का सार्वजनिक रूप से घूमना फिरना मानों मुश्किल हो गया।
उस के दूसरे वर्ष 1932 में दुर्गा खोटे ने प्रथम मराठी फ़िल्म ‘अयोध्याचा राजा’ में ‘तारामती’ की भूमिका की। फ़िल्मों के इतिहास की यह बडी घटना थी। कोई आश्चर्य नहीं था कि 1983 में भारत सरकार ने इस अत्यंत वरिष्ठ अभिनेत्री को प्रतिष्ठित ‘दादासाहेब फाळके पुरस्कार’ से सम्मानित किया था। उनकी प्रतिभा का ही परिणाम था कि ‘भरत मिलाप’ में वे रानी कैकेयी की भूमिका में होती थी, तो ‘महारथी कर्ण’ में ‘कुंति’ की। 1931 से शुरु हुई उनकी फ़िल्मों की यात्रा के दौरान ही ’50 में वे ‘मराठी साहित्य संघ’ से जुड गई। उन्होंने मराठी रंगमंच पर नाटक प्रस्तुत किये, निर्देशित किये और उनमें अभिनय भी किया। उनके योगदान को देखते हुए, 1958 में ड्रामा के सबसे बडे सम्मान ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से दुर्गा खोटे को पुरस्कृत किया गया था। 1905 की 14 जनवरी के दिन जन्मी थी दुर्गा जी । उनकी निजी ज़िन्दगी भी उतार चढा़व से गुज़र चुकी थी। उनके पति का जवानी में ही देहांत हो गया था। (बाद में एक मोहम्मद रशीद से दुसरी शादी करने का उल्लेख कहीं मिलता है; मगर उसकी बाकायदा पुष्टि नहीं होती है।)
फ़िल्मों में चरित्र अभिनेत्री की भूमिकाएं करना शुरु किया। तो ’1968 में भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से नवाजा। उनकी प्रमुख फ़िल्मों में शामिल है, ‘गोपी’, ‘खुश्बु’, ‘काला सोना’, ‘चैताली’, ‘जानेमन’, ‘शक़’, ‘साहिब बहादुर’, ‘डार्लिंग डार्लिंग’, ‘कर्ज़’, ‘चाचा भतीजा’, ‘नमक हराम’, ‘शरारत’, ‘अनुपमा’, ‘पूर्णिमा’, ‘देवर’, ‘दादीमा’, ‘प्यार मोहब्बत’, ‘झुक गया आसमान’, ‘सगाई’, ‘सपनों का सौदागर’, ‘संघर्ष’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘एक फूल दो माली’, ‘जीने की राह’, ‘खिलौना’, ‘काजल’, ‘दो दिल’, ‘आनंद’, ‘बनफूल’, ‘दूर की आवाज़’, ‘मुझे जीने दो’, ‘सन ओफ इन्डिया’, ‘शगून’, ‘कैसे कहुं’, ‘भाभी की चूडियां’, ‘लव इन सिमला’, ‘उसने कहा था’, ‘मनमौजी’, ‘मैं सुहागन हुं’, ‘रंगोली’ इत्यादि।
दुर्गा खोटे प्रसाद प्रोडक्शन की फ़िल्मों में नियमित रूप से ली जाती थी। उनकी जीतेन्द्र और लीना चंदावरकर की भूमिका वाली ‘बिदाई’ के अभिनय के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर का ‘श्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री’ का एवार्ड मिला था। एक्टिंग के पुरस्कार के लिहाज से ये कोई पहली बार होने वाली घटना नहीं थी। क्योंकि बरसों पहले 1941 में ‘चरणों की दासी’ और ’42 में ‘भरत मिलाप’ इन दोनों के लिए उन्हें लगातार दो साल उन दिनों के प्रतिष्ठित ‘बेंगाल फ़िल्म जर्नालिस्ट असोसीएशन’ का एवार्ड प्राप्त हुआ था। उन्होंने 1937 में ‘साथी’ बनाई और भारतीय सिनेमा में प्रोड्युसर और निर्देशन बनने वाली प्रथम महिला बनीं। उस समय की अत्यंत पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में वो कितना बडा़ साहस था, ये आज कितने लोग समज पायेंगे?
मगर इन सबसे बडी बात ये थी कि उन दिनों के स्टूडियो के बंधन को तोडने की हिम्मत भी दुर्गा खोटे ने दिखाई थी। वो ज़माना ऐसा था कि सारे कलाकारों को नौकरी करनी होती थी। हर कलाकार किसी न किसी बडे़ स्टूडियो की मासिक पगार लेते थे। ऐसे समय में 1937 में दुर्गाबाई ने ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ में नौकरी करते हुए कलकत्ता की ‘न्यू थियेटर्स’ और ‘इस्ट इन्डिया कंपनी’ तथा ‘प्रकाश पिक्चर्स’ अन्य कंपनीओं में काम कर तहलका कर दिया था! उन के इस कदम के बाद कलाकारों में ‘फ्रीलांस ’ काम करने की हिम्मत खुली थी; जिस के फल स्वरूप आज की हीरोइनें करोडो़ं की कमाई कर रही हैं। इतने सारे जबरदस्त योगदान हमारी फ़िल्मों में देने वाली दुर्गा खोटे जी के नाम का डाक टिकट सरकार ने भारतीय सिनेमा की शताब्दी पर 2013 में जारी किया।
उनका ममता भरा मासूम चेहरा किसी को भी धोखे में डाल सकता था। क्योंकि जैसा कि हमने देखा, वे अत्यंत मज़बूत मनोबल वाली महिला थी। उनकी मराठी में लिखी आत्मकथा ‘मी दुर्गा खोटे’ का अंग्रेजी भाषांतर जब शांता गोखले ने किया, तब स्वाभाविक ही उस पुस्तक का नाम ‘आई दुर्गा खोटे’ रखा गया। मराठी में ‘माता’ को ‘आई’ कहते हैं। ऐसी ‘आई दुर्गा खोटे’ का 86 वर्ष की उम्र में 1991 की 22 सितम्बर के दिन देहांत हो गया। मगर कभी माता तो कभी दादी मा के वात्सल्य से छलकते पात्रों से दुर्गा जी आज भी हम सब के बीच ज़िन्दा ही हैं।