स्मृति शेष। रोनाल्ड रॉस चिकित्सक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता थे। उन्हें 1902 के चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया। उन्हें यह पुरस्कार मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र की खोज के लिये दिया गया। उनके पिता जी का नाम सर सी.सी.जी. राॅस था। वे ब्रिटिश आर्मी में जनरल थे। रोनाल्ड की उच्च शिक्षा लंदन में हुई। गणित के साथ-साथ उनकी रूचि कविता और संगीत में भी थी। जब से सिर्फ 16 वर्ष थे, उन्होने ड्राइंग प्रतियोगिता में कैम्ब्रिज से प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1881 को वे मेडिकल सर्विस में दाखिल हुए। उनकी पहली नियुक्ति मद्रास में मेडिकल आॅफिसर के पद पर हुई। उस समय भारत में मलेरिया की बीमारी के बहुत सारे मामले सामने आते थे। 1892 में उन्होने अपने अनुभव के आधार पर मलेरिया पर अपना पूर्णरूपेण शोधकार्य शुरू किया। ढाई साल के कई असफल प्रयासों के बाद अंतः वह अपने प्रयासों पर सफल हुए।
रोनाल्ड रॉस का जन्म 13 मई, 1857 को अल्मोड़ा में हुआ था। देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के सिर्फ तीन दिन बाद। वे अंग्रेजी राज की भारतीय सेना के स्कॉटिश अफसर सर कैम्पबेल रॉस की दस संतानों में सबसे बड़े थे। युवा रोनाल्ड की रूचि कवि या लेखक बनने की थी। उन्हें गणित की समस्याएं हल करने में मजा आता था। तब इंडियन मेडिकल सर्विस के अफसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती थी और तरक्की के बहुत मौके थे, इसलिए उनके पिता उन्हें इंडियन मेडिकल सर्विस का अफसर बनते देखना चाहते थे। इंग्लैंड में स्कूली शिक्षा के बाद पिता के दबाव में उन्होंने लंदन के सेंट बर्थेलोम्यू मेडिकल स्कूल में प्रवेश ले लिया।
मेडिकल शिक्षा पूरी होने के बाद वे अनिच्छापूर्वक इंडियन मेडिकल सर्विस की प्रवेश परीक्षा में बैठे और नाकाम हुए। पिता के दबाव में अगले साल वे फिर परीक्षा में बैठे और 24 सफल छात्रों में 17 वें क्रम पर आए। आर्मी मेडिकल स्कूल में चार माह के प्रशिक्षण के बाद वें इंडियन मेडिकल सर्विस में दाखिल हो गए और पिता सपना पूरा हुआ। उन्हें कलकत्ता या बॉम्बे के बजाय कम प्रतिष्ठित मद्रास प्रेसिडेंसी में काम करने का मौका मिला। वहां उनका ज्यादातर काम मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था। क्विनाइन से रोगी ठीक तो हो जाते, लेकिन मलेरिया इतनी तेजी से फैलता कि कई रोगियों को इलाज नहीं मिल पाता और वे मर जाते।
आठ साल की उम्र में उन्होंने आइल ऑफ वाइट पर उसके चाचा और चाची के साथ रहने के लिए इंग्लैंड के लिए भेजा गया था। उन्होंने राइड पर प्राथमिक विद्यालयों में भाग लिया और माध्यमिक शिक्षा के लिए वह 1869 में, साउथेम्प्टन के पास, स्प्रिंगहिल में बोर्डिंग स्कूल के लिए भेजा गया था। उसके बचपन से वह कविता, संगीत, साहित्य और गणित के लिए जुनून का विकास किया। सोलह में वह ड्राइंग में ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज स्थानीय परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। पूरी तरह से प्रतिबद्ध नहीं, वह संगीत रचना और कविताओं और नाटकों के लेखन में अपने समय के सबसे बिताया। उन्होंने 1880 में छोड़ दिया। 1879 में उन्होंने इंग्लैंड के सर्जन के रॉयल कॉलेज के लिए परीक्षाओं पारित किया था और अत्तार की सोसाइटी के सानुज्ञ के लिए पढ़ाई के दौरान वह एक ट्रान्साटलांटिक स्टीमर पर एक जहाज के सर्जन के रूप में काम किया। उन्होंने दूसरे पर योग्य 1881 में प्रयास और सेना के मेडिकल स्कूल में एक चार महीने के प्रशिक्षण के बाद उन्होंने 1881 में भारतीय चिकित्सा सेवा में प्रवेश किया। जून 1888 और मई 1889 के बीच उन्होंने कहा कि चिकित्सकों के रॉयल कॉलेज से सार्वजनिक स्वास्थ्य में डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए अध्ययन अवकाश का लाभ उठाया और रॉयल सर्जनों के कॉलेज और प्रोफेसर ई क्लेन के तहत जीवाणु विज्ञान में कोर्स लिया।
रोनाल्ड रॉस को मलेरिया पर अपने कार्य के लिए 1902 में शरीर क्रिया विज्ञान या चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके आलावा भी उन्हें अनेकों सम्मान प्राप्त हुए है। 1901 में वे रॉयल कॉलेज ऑफ़ सर्जन तथा रॉयल सोसाइटी के फैलो निर्वाचित हुए थे, जिसमें वे 1911 से लेकर 1913 तक उपाध्यक्ष बने। 1902 में सम्राट एडवर्ड सप्तम द्वारा बाथ के मोस्ट ऑनरेबल ऑर्डर नियुक्त किए गए। लुधियाना में, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज ने “रॉस हॉस्टल ‘के रूप में अपने छात्रावास को नाम दिया है, वहां के युवा डॉक्टर अक्सर “रॉसीयन” के रूप में खुद को देखते है। रोनाल्ड रॉस की स्मृति में ‘सर रोनाल्ड रॉस इंस्टिट्यूट ऑफ़ पैरासीटोलॉजी’ की स्थापना उस्मानिया विश्वविद्यालय अंतर्गत हैदराबाद में हुई थी।
रोनाल्ड रॉस ने मच्छरों के जठरांत्र सम्बन्धी क्षेत्र में मलेरिया परजीवी, उनकी खोज तथा मलेरिया मच्छरों द्वारा प्रेषित अन्वेषण किया। उनकी वसूली के लिए नेतृत्व किया और मलेरिया रोग का मुकाबला करने के लिए नींव रखी। पच्चीस साल तक भारतीय चिकित्सा सेवा के दोरान अपनी कर्तव्यपरायणता का बखूबी निर्वहन के पश्चात सेवा से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद इंगलैंड के ट्रॉपिकल मेडिसिन के लिवरपूल स्कूल के संकाय में शामिल हुए और 10 साल तक उन्होंने संस्थान के ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन किया। 1926 में उनके योगदान तथा उपलब्धियों के सम्मान में रॉस संस्थान और अस्पताल स्थापित किया गया था, जो उष्णकटिबंधीय रोगों के निदान का अस्पताल तथा संस्थान के रूप में स्थापित हुआ था। 16 सितम्बर, 1932 को डा० रोनाल्ड रॉस यहीं पर अपनी अन्तिम सॉंस लेने के पश्चात दुनियॉं को जीवन-रक्षक औषधि प्रदान कर हमेशा के लिए विदा हो गये थे।एजेंसी।