बीते दौर की मशहूर अदाकारा शकीला 20 सितम्बर 2017 को इस दुनिया से अलविदा कह गयी। यहाँ पेश है उनका पुराना इंटरव्यू बीते हुए दिन से साभार।
शिशिर कृष्ण शर्मा । शकीला जी बताती हैं, “मेरे पूर्वज अफ़गानिस्तान और ईरान के शाही खानदान से ताल्लुक रखते थे। मेरा जन्म 1 जनवरी 1936 को मध्यपूर्व में हुआ था राजगद्दी पर कब्ज़े के खानदानी झगड़ों में मेरे दादा-दादी और मां मारे गए थे। मैं तीन बहनों में सबसे बड़ी थी और हम तीनों बच्चियों को साथ लेकर मेरे पिता और बुआ जान बचाकर मुम्बई भाग आए थे। उस वक़्त मैं क़रीब 4 साल की थी” ।
शकीला जी के मुताबिक उनके पिता भी बहुत जल्द गुज़र गए थे। शकीला जी की बुआ फ़िरोज़ा बेगम का रिश्ता शहज़ाद नाम के जिस युवक से हुआ था वो भी नवाब खानदान के थे लेकिन शादी होने से पहले ही लन्दन में क्रिकेट खेलते समय उनका निधन हो गया था। ऐसे में बुआ ने ज़िंदगी भर अविवाहित रहने का फ़ैसला कर लिया। तीनों अनाथ भतीजियों का पालन पोषण बुआ ने ही किया। इन तीनों की पढ़ाई-लिखाई भी घर पर ही हुई।
शकीला जी बताती हैं, “बुआ को फिल्में देखने का बहुत शौक़ था। वो मुझे साथ लेकर फ़िल्म देखने जाती थीं। ऐसे में मेरा रूझान भी फ़िल्मों की ओर होने लगा। कारदार और महबूब के साथ हमारे पारिवारिक सम्बन्ध थे। ईद पर हमारा मिलना-जुलना और एक-दूसरे के घर आना-जाना होता ही था। कारदार ने ही मुझे फ़िल्म ‘दास्तान’ में 13-14 साल की लड़की का रोल करने को कहा था और इस तरह 1950 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘दास्तान’ से मेरे अभिनय करियर की शुरूआत हुई थी। इसी फिल्म में मुझे मेरे असली नाम ‘बादशाहजहां’ की जगह ये फ़िल्मी नाम ‘शकीला’ मिला था”।
‘दास्तान’ के बाद शकीला जी ने ‘गुमास्ता’ (1951), ‘खूबसूरत’, ‘राजरानी दमयंती’, ‘सलोनी’, सिंदबाद द सेलर’ (सभी 1952) और ‘आगोश’, ‘अरमान’, ‘झांसी की रानी’ (सभी 1953) में बतौर बाल कलाकार अभिनय किया। सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ में शकीला जी ने रानी लक्ष्मीबाई (अभिनेत्री मेहताब) के बचपन की भूमिका की थी। 1953 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘मदमस्त’ में वो पहली बार नायिका बनीं इस फिल्म में उनके नायक एन.ए.अंसारी थे। फिल्म ‘मदमस्त’ को पार्श्वगायक महेंद्र कपूर की पहली फिल्म के तौर पर भी जाना जाता है उन्होंने अपने करियर का पहला गीत ‘किसी के ज़ुल्म की तस्वीर है मज़दूर की बस्ती’ इसी फिल्म में, गायिका धन इन्दौरवाला के साथ गाया था। 1953 में शकीला जी की बतौर नायिका दो और फिल्में ‘राजमहल’ और ‘शहंशाह’ प्रदर्शित हुईं।
शकीला जी को असली पहचान 1954 में प्रदर्शित हुई सुपरहिट फिल्म ‘आरपार’ से मिली। इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक और नायक गुरूदत्त थे। ‘आरपार’ गुरूदत्त की बतौर निर्माता पहली फ़िल्म थी। संगीतकार ओ.पी.नैयर को भी इसी फ़िल्म से पहली सफलता मिली थी इससे पहले उनकी तीनों फ़िल्में ‘आसमान’, ‘छमा छमा छम’ (दोनों 1952) और ‘बाज़’ (1953) फ्लॉप हो गयी थीं फ़िल्म ‘आरपार’ में शकीला जी के अलावा एक और नायिका श्यामा भी थीं।
शकीला जी बताती हैं, “होमी वाडिया के बैनर ‘बसंत पिक्चर्स’ की धार्मिक और फैंटेसी फिल्मों ‘वीर घटोत्कच’, ‘श्री गणेश माहिमा’, ‘लक्ष्मी नारायण’, ‘हनुमान पाताल विजय’ और ‘अलादीन और जादुई चिराग़’ जैसी फिल्मों की अभिनेत्री मीनाकुमारी ‘बैजू बावरा’ (1952) की कामयाबी के बाद सामाजिक फ़िल्मों में व्यस्त हो गयी थीं। होमी वाडिया की अगली फैंटेसी फ़िल्म के लिए उनके पास समय ही नहीं था। उधर फ़िल्मों से जुड़े लोग मुझे बहुत पहले ही ‘अरबी चेहरा’ का ख़िताब दे चुके थे होमी वाडिया ने उस फिल्म में मीना की जगह मुझे लेना चाहा तो उन्हें टालने के लिए बुआ ने मेहनताने के तौर पर 10 हज़ार रूपए मांगे जो उस ज़माने के हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी| लेकिन होमी वाडिया बिना किसी नानुकुर के उतना पैसा देने को तैयार हो गए। ऐसे में मुझे उनकी फ़िल्म ‘अलीबाबा 40 चोर’ करनी ही पड़ी। इस फिल्म में मेरे हीरो महिपाल थे। 1954 में बनी ये फ़िल्म इतनी कामयाब हुई कि मुझे फैंटेसी और कॉस्ट्यूम फिल्मों के ही ऑफ़र आने लगे ।
शकीला जी ने अगले 10 सालों में ‘गुलबहार’, ‘लालपरी’, ‘लैला’, ‘नूरमहल’, ‘रत्नमंजरी’, ‘शाही चोर’, ‘हातिमताई’, ‘खुल जा सिमसिम’, ‘अलादीन लैला’, ‘माया नगरी’, ‘नागपद्मिनी’, ‘परिस्तान’, ‘सिमसिम मरजीना’, ‘डॉक्टर ज़ेड’, ‘अब्दुल्ला’ और ‘बगदाद की रातें’ कई फ़िल्मों में महिपाल, जयराज, दलजीत और अजीत के साथ काम किया महिपाल के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया। इस दौरान उन्होंने देव आनंद के साथ ‘सी.आई.डी.’ (1956), सुनील दत्त के साथ ‘पोस्ट बाक्स 999’ (1958), राज कपूर के साथ ‘श्रीमान सत्यवादी’ (1960), मनोज कुमार के साथ ‘रेशमी रूमाल’ (1961) और शम्मी कपूर के साथ ‘चायना टाऊन’ (1962) फ़िल्में भी कीं लेकिन उनकी पहचान फैंटेसी फिल्मों की नायिका की ही बनी रही। वरिष्ठ फ़िल्म इतिहासकार और ‘बीते हुए दिन’ के अभिन्न अंग, सूरत निवासी हरीश राघुवंशी के अनुसार शकीला जी ने 14 साल के अपने करियर में कुल 72 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी आख़िरी फिल्म ‘उस्तादों के उस्ताद’ थी जो 1963 में प्रदर्शित हुई थी।
शकीला जी बताती हैं, “1966 में मेरी शादी हुई मेरे शौहर अफ़ग़ानिस्तान के रहने वाले थे और भारत में अफ़ग़ानिस्तान के ‘कांसुलेट जनरल’ थे शादी के बाद मैं शौहर के साथ जर्मनी चली गयी क़रीब 25 साल मैंने जर्मनी और अमेरिका में बिताए बीच बीच में मैं भारत आती-जाती रहती थी जहां मेरा घर था, मेरी बहनें रहती थीं फिर निजी वजहों से एक रोज़ मैं हमेशा के लिए भारत वापस लौट आयी”।
तीनों बहनों में शकीला जी से छोटी नूर भी अभिनेत्री थीं ‘अनमोल घड़ी’ (1946) और ‘दर्द’ (1947) फ़िल्मों में बतौर बाल कलाकार काम करने के बाद वो ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘अलिफ़ लैला’ (दोनों 1953), ‘नौकरी’ और ‘आरपार’ (दोनों 1954) फ़िल्मों में अहम भूमिकाओं में आयीं। 1955 में हास्य कलाकार जानीवाकर से शादी करने के बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था। शकीला जी की सबसे छोटी बहन ग़ज़ाला (नसरीन) गृहिणी हैं। नूर और नसरीन भी मुम्बई में ही रहती हैं। शकीला जी को फिल्मों से अलग हुए 50 साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं। लेकिन बीते दौर की अभिनेत्रियों जबीन, (अब स्वर्गीय) श्यामा, अज़रा, वहीदा रहमान और नंदा (अब स्वर्गीय) से उनकी दोस्ती हमेशा बनी रही ।