ये आज भी ज़िन्दा ही हैं….. जीवन ‘नारद मुनि’ से लेकर कुटिल विलन तक ! जीवन का जन्म 24 अक्टूबर, 1915 को श्रीनगर में हुआ था। याद है अशोक कुमार और राजेन्द्र कुमार की फ़िल्म ‘कानून’ की शुरुआत उस में नामवली पूरी होते ही मुल्ज़िम ‘कालीदास’ की भूमिका में चरित्र अभिनेता जीवन के अविस्मरणीय द्दश्य से फ़िल्म का बडा ही अदभूत प्रारंभ होता है। जीवन भरी अदालत में पूछते हैं, “मैं इस अदालत से मेरी जवानी के वो दस साल वापस मांगता हुं जो कानून की भेंट चढ़ गए…. आज मैं चिल्ला चिल्ला कर कहता हुं कि गणपत का खून मैंने किया है और आपका कानून मुझे कोई सजा नहीं दे सकता….” सिर्फ़ एक सीन में आकर इतना असर खडा करना कोई मामूली बात नहीं थी। मगर जीवन के लिए ये स्वाभाविक बात थी। याद कीजिए बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म ‘वक्त’ जिस में भी जीवन का रोल कितना छोटा था! ‘वक्त’ में वे उस अनाथाश्रम के संचालक बने थे, जहाँ से राजकुमार बचपन में भाग जाते हैं। उनके गले में स्कार्फ़ और बात बात पर बच्चों को बेरहमी से मारने के लिए हाथ में बेंत लिए गृहपति को जब बलराज साहनी गला घोंट कर मार डालते हैं, उस सीन में जीवन का अभिनय देखते ही बनता है। गला दबने से आंखों का फटना और चेहरे की जो दशा होती है, उसे पर्दे पर जीवन ने इतने तो स्वाभाविक ढंग से कर दिखाया था कि एक्टिंग की ऐसी मिसाल बहुत कम देखने को मिलती है। स्मरण रहे, ये सिर्फ दो या तीन द्दश्यों की भूमिका के लिए की मेहनत थी। उन्हें ‘जॉनी मेरा नाम’ के ‘हीरा’ के रूप में भी कौन भूल सकता है? ‘जॉनी मेरा नाम रेकेट में 80 लाख के हीरे छुपाने वाला स्मगलर ‘हीरा’ बने जीवन से पूछताछ करते पुलिस कमिश्नर को, वे गुनाहों से अनजान बनकर सिगरेट का धुंआ निकालते हुए किस अंदाज़ में कहते है, “कमिश्नर साहब, आपको जो चार्ज लगाना हो लगाकर छुट्टी कीजिए…. फालतु अफवाहों पे बहस करने से क्या फायदा?” ऐसे तो जाने कितने ही सीन्स याद आ जाते हैं जब भी जीवन साहब की स्मृति ताजा होती है। लेकिन दर्शकों ने जीवन को सब से ज्यादा नारद मुनि के रूप में देखा था। “नारायण…. नारायण…” बोलते जीवन ने देवर्षि नारद के उस पौराणिक पात्र को 20 से अधिक फ़िल्मों में पर्दे पर जीवंत किया था, जो शायद अपने आप में एक विक्रम और एक कलाकार के लिए बडी उपलब्धि थी। उनको मुख्य भूमिका में लेकर ‘नारद लीला’ फ़िल्म भी आई थी। इतने मंजे हुए कलाकार जीवन को बचपन से ही अभिनेता बनने का मन था। उनके पुत्र और किरण कुमार ने इन्टरव्यु में बताया था कि जीवन के पिताजी में स्थित गिलगीट (अब पाकिस्तान में ) के गवर्नर थे। जीवन का असली नाम ओमकारनाथ धर था। उनकी माताजी का देहांत 1915 में जीवन साहब के जन्म समय ही हो गया था और उनकी उम्र तीन साल की होते होते जीवन के पिताजी भी चल बसे थे। मगर गवर्नर साहब के खानदान के पुत्र को सिनेमा में अभिनय उस समय के निम्न व्यवसाय से नाता जोडने की इजाजत परिवार वाले कैसे देते? लिहाजा 18 साल की उम्र में जेब में मात्र 26 रूपये लेकर ओमकार बम्बई जाने के लिए घर से भाग गए। बम्बई अब मुंबई में फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश के लिए स्टुडियो में जो भी काम मिला वो स्वीकार कर लिया और ये ओमकारा क्या बना? जीवन साहब और अनेक फ़िल्मों के अदभूत कैमेरा मेन द्वारका दिवेचा दोनों दोस्त मिलकर, शूटिंग के दौरान स्टार्स के चेहरे चमकाने के लिए उन पर प्रकाश फेंकने वाले यानि रिफ्लैकटर्स को संभालने वाले मज़दुर बन गए। एक दिन स्टुडियो में निर्माता मोहन सिन्हा यानि ‘रजनी गंधा’ की हीरोइन अभिनेत्री विद्या सिन्हा के दादाजी अपनी नई फ़िल्म के लिए नये कलाकारों के स्क्रीन टेस्ट कर रहे थे। सिन्हा जी ने कम्पाउन्ड में उन दोनों दोस्तों को देखा और अच्छी कद-काठी के नौजवान ओमकार को पूछा, ‘क्या तुम अभिनय करना चाहते हो?’ ना कहने का सवाल ही कहाँ था? उनका स्क्रीन टेस्ट हुआ और स्वाभाविक था कि परिणाम अच्छा था। सिन्हा जी ने पूछा, “क्या करते हो?” और ओमकार ने बताया कि वो उनके स्टुडियो में रिफ्लैक्टर संभालता है! दुसरा सवाल आया, “क्या कुछ गा सकते हो?’ जवाब में ओम जी ने पंजाब की अमर प्रेम कथा ‘हीर रांझा’ की कुछ पंक्तियां सुनाई और मज़दूरी करने वाले व्यक्ति की अभिनय की यात्रा का आरंभ ‘फैशनेबल इन्डिया’ फ़िल्म से हुआ। जब ओमकारनाथ धर यानि ‘ओ.एन.धर’ ने विजय भट्ट की फ़िल्म में काम करना शुरु किया तब उन्होंने नया नाम ‘जीवन’ दिया, जो जीवन भर उनका नाम रहा। उनके अभिनय की खासियत ये थी कि खलनायकी में वे कॉमेडी भी डाल देते थे। उन्हें दिलीप कुमार के खिलाफ़ विलन के रूप में ‘कोहीनूर’ में देखें या ‘नया दौर’ में जीवन की टक्कर अलग ही माहौल खडा करती थी। उनका काम ‘अमर अकबर एन्थनी’ में भी काफी सराहा गया था। 1965 की फ़िल्म ‘महाभारत’ में उनकी भूमिका ‘शकुनि मामा’ की थी। उनकी फ़िल्मों में प्रमुख हैं, ‘दिल ने फिर याद किया’, ‘आबरु’, ‘हमराज़’, ‘बंधन’, ‘भाई हो तो ऐसा’, ‘तलाश’, ‘धरम वीर’, ‘चाचा भतीजा’, ‘सुहाग’, ‘नसीब’, ‘टक्कर’, ‘मेरे हमसफ़र’, ‘डार्लिंग डार्लिंग’, ‘फुल और पथ्थर’, ‘इन्तकाम’, ‘हीर रांझा’, ‘रोटी’, ‘शरीफ़ बदमाश’, ‘सबसे बडा रुपैया’, ‘गेम्बलर’, ‘याराना’, ‘प्रोफेसर प्यारेलाल’, ‘बुलंदी’, ‘सनम तेरी कसम’, ‘देशप्रेमी’, ‘सुरक्षा’ और ‘लावारिस’। जीवन ऐसे खलनायक थे जो हीरो से मार खाने में कभी भी कंजुसी नहीं करते थे। उनका मानना था और विलन भी बने उनके पुत्र किरण कुमार को भी सलाह दी थी कि वार्ता में चरित्र के हीरो होने से ही फ़िल्म हिट होती है। वो पात्र तभी हीरो कहलाता है, जब वो खलनायक को बराबर मारता है। इस लिए अपने से कद में छोटे हीरो से भी मार खाने में कसर मत छोडो। जीवन से कभी भी निर्माताओं को कोई शिकायत नहीं होती थी। क्योंकि उनके परिवार के किसी सदस्य को सेट पर आना तो दूर की बात थी, फोन भी लंच के समय के अलावा नहीं कर सकते थे। इस लिए बी. आर. चोपड़ा और मनमोहन देसाई बडे बडे निर्माताओं की फ़िल्मों में जीवन नियमित रूप से लिये जाते थे। उनके घर का नाम ‘जीवन किरण’ था और लोग समजते थे कि उन्हों ने अपने साथ बेटे का भी नाम जोडा था। परंतु, हकीकत ये थी कि उनकी पत्नी का नाम ‘किरण’ था! वे भी लाहोर की थीं। पर्दे पर इतने गलत काम करने वाले जीवन साहब निजी ज़िन्दगी में इतने भले थे कि पैसों के मामले में कोई अगर उन्हें दगा दे जाय तो वे कहते थे ‘उस व्यक्ति को ज्यादा जरुरत होगी’! उनके पुत्र किरण कुमार ने साक्षतकार में बताया था कि जीवन साहब धार्मिक स्थानों पर गरीबों को खाना खिलाने में और योग्य विद्यार्थीओं को पढाने में आर्थिक सहाय करते रहते थे। वक्त के पाबंद जीवन कभी सेट पर देर से नहीं पहुंचे थे। जब भी वे शुटींग के लिए हाजिर होते थे, सबसे पहले स्टेज को छु कर नमन करने के बाद ही अपना दिन प्रारंभ करते थे। अपने काम को पूजा-इबादत जैसा मानने वाले जीवन का 72 साल की उम्र में 1987 की 10 जून को देहांत हो गया। मगर नारद मुनि की अपनी अनेक भूमिकाओं और कितनी सारी फ़िल्मों के एक से एक यादगार पात्रों से जीवन साहब हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के जीवन में अपना अलग स्थान रखते हुए आज भी ज़िन्दा ही हैं। इस लेख के लिए सहायक सामग्री प्रदान करने के लिए वरिष्ठ इतिहासविद हरीश रघुवंशी (सुरत) का हार्दिक धन्यवाद,सलिल दलाल के ब्लॉग से