जयंती पर विशेष
असरारुल हक़ “मजाज़” को तरक्की पसन्द तहरीक और इन्कलाबी शायर भी कहा जाता है। महज 44 साल की छोटी सी उम्र में उर्दू साहित्य के ’कीट्स’ कहे जाने वाले असरार उल हक ’मजाज़’इस जहाँ से कूच करने से पहले वे अपनी उम्र से बड़ी रचनाओं की सौगात उर्दू अदब़ को दे गए शायद मजाज़ को इसलिये उर्दू शायरी का ‘कीट्स’ कहा जाता है, क्योंकि उनके पास अहसास-ए-इश्क व्यक्त करने का बेहतरीन लहजा़ था।
मजाज़ का जन्म 19 अक्तूबर,1911 को बाराबंकी जिले के रूदौली गांव में हुआ था। उनके वालिद का नाम चौधरी सिराज उल हक था। चौधरी सिराज उल हक अपने इलाके में पहलेq आदमी थे, जिन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की थी। वे रजिस्ट्री विभाग में सरकारी मुलाजिम थे। वालिद चाहते थे कि उनका बेटा इन्जीनियर बने। इस हसरत से उन्होंने अपने बेटे असरार का दाखिला आगरा के सेण्ट जांस कालेज में इण्टर साइन्स में कराया। यह बात कोई 1929 की है। मगर असरार की लकीरों में तो शायद कुछ और ही लिखा था। आगरा में उन्हें फानी , जज्बी, मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली। इस सोहबत का असर यह हुआ कि उनका रूझान बजाय इन्जीनियर बनने के गज़ल लिखने की तरफ हो गया। ‘असरार’ नाम के साथ ‘शहीद’ तख़ल्लुस जुड गया। कहा जाता है कि मजाज़ की शुरूआती ग़ज़लों को फानी ने इस्लाह किया। यह अलग बात है कि मजाज़ ने उनसे इस्लाह तो कराया ,परन्तु उनकी ग़ज़लों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पडने दिया। यहाँ उन्होने गज़लगोई की बारीकियों और अरूज़ (व्याकरण) को सीखा । इस दौरान उनमें दार्शनिकता का पुट भी आया , जिसका उनमें अभाव था। बाद में मजाज़ लगातार निखरते गए।
आगरा के बाद वे 1931 में बी.ए. करने अलीगढ़ चले गए. अलीगढ़ का यह दौर उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी , सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ ,इनकी सोहबत ने मजाज़ के कलाम को और भी कशिश और वुसअत बख्शी । यहां उन्होंने अपना तखल्लुस ‘मजाज़’ अपनाया। इसके बाद मजाज़ गज़ल की दुनिया में बड़ा सितारा बनकर उभरे और उर्दू अदब के फलक पर छा गये। अलीगढ़ में मजाज़ की आत्मा बसती थी। कहा जाता है कि मजाज़ और अलीगढ़ दोनों एक दूसरे के पूरक थे……. एक दूसरे के लिए बने थे। अपने स्कूली जीवन में ही मजाज़ अपनी शायरी और अपने व्यक्तित्व को लेकर इतने मकबूल हो गए थे कि हॉस्टल की लड़कियां मजाज़ के गीत गाया करती थीं और उनके साथ अपने सपने बुना करती थीं। अलीगढ़ की नुमाईश , यूनीवर्सिटी, वहां की रंगीनियों आदि को लेकर मजाज़ ने काफी लिखा-पढ़ा। मजाज़ की शायरी के दो रंग है-पहले रंग में वे इश्किया गज़लकार नजर आते हैं वहीं दूसरा रंग उनके इन्कलाब़ी शायर होने का मुज़ाहिरा करता है। अलीगढ़ में ही उनके कृतित्व को एक नया विस्तार मिला। वे प्रगतिशील लेखक समुदाय से जुड़ गये। ‘मजदूरों का गीत’ हो या ‘इंकलाब जिंदाबाद’ , मजाज ने अपनी बात बहुत प्रभावशाली तरीके से कही।
अलीगढ़ का दौर उनकी जिन्दगी को नया मोड़ देने वाला रहा। आगरा में जहां वे इश्किया शायरी तक सीमित थे, अलीगढ़ में उस शायरी को नया आयाम मिला। आगरा से अलीगढ़ तक आते आते शबाब , इन्कलाब में तब्दील हो गया। 1930-40 का अन्तराल देश दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रगतिशीलता का मोड़ आ चुका था। साहित्यकारों की बड़ी फौज़ इन्कलाब के गीत गा रही थीं। अलीगढ़ इससे अछूता कैसे रह सकता था। अलीगढ़ में भी इन विचारों का दौर आ चुका था। तरक्कीपसंद कहे जाने वाले तमाम कवि-लेखकों का अलीगढ़ आना-जाना हो रहा था। डा0 अशरफ यूरोप से लौट आए थे, अख्तर हुसैन रामपुरी बी0ए0 करने बाद आफ़ताब हॉस्टल में रह रहे थे । सब्त हसन भी अलीगढ़ में ही थे। सज्जाद जहीर ऑक्सफोर्ड में बहुत दिनों तक रहने के बाद अलीगढ़ आ गये थे। अंगे्रजी हुकूमत के दौरान कई तरक्कीपसन्द कही जाने वाली पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होकर ’जब्त ’ हो रही थीं, जाहिर है कि इन घटनाओं का असर मजाज़ और उनकी शायरी पर पडना लाजिमी थी । डा0 अशरफ , अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफरी, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों की सोहबत में मजाज भी तरक्की पसंद तथा इंकलाबी शायरों की सोहबत में शामिल हो गये । ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी । इसके बाद उन्होने रात और रेल ,नजर, अलीगढ, नजर खालिदा ,अंधेरी रात का मुसाफिर ,सरमायादारी,जैसे रचनाएं उर्दू अदबी दुनिया को दीं। मजाज़ अब बहुत मकबूल हो चुके थे।
1935 में वे आल इण्डिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर मजाज़ दिल्ली आ गये। दिल्ली में नाकाम इश्क ने उन्हें ऐसे दर्द दिये कि जो मजाज़ को ताउम्र सालते रहे। यह पत्रिका बमुश्किल एक साल ही चल सकी, सो वे वापस लखनऊ आ गए। इश्क में नाकामी से मजाज़ ने शराब पीना शुरू कर दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। दिल्ली से विदा होते वक्त उन्होंने कहा-
रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं
नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं
लखनऊ में 1939 में सिब्ते हसन ,सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर ’नया अदब’ का सम्पादन किया जो आर्थिक कठिनाईयों की वजह से ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। कुछ दिनों बाद में वे फिर दिल्ली आ गये और यहां उन्होंने ‘हार्डिंग लाइब्रेरी’ में असिस्टेन्ट लाइब्रेरियन के पद पर काम किया, लेकिन दिल्ली उन्हें रास न आई। दिल्ली से निराश होकर मजाज़ बंबई चले गए,लेकिन उन्हें बंबई भी रास न आया। बंबई की सडकों पर आवारामिजाजी करते हुये मजाज़ ने अपने दिल की बात अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय नज्म ‘आवारा’ के मार्फत कुछ यूं कही- शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूं-जगमगाती,जागती सडकों पे आवारा फिरूं-
गैर की बस्ती है,कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं-ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल,क्या करूं।
बम्बई से कुछ समय बाद मजाज लखनऊ वापस आ गये। लखनऊ उन्हें बेहद पसन्द था। लखनऊ के बारे में उनकी यह नज्म उनके लगाव को खूबसूरती से प्रकट करती है।
फिरदौसे हुस्नो इश्क है दामाने लखनऊ-आंखों में बस रहे हैं गजालाने लखनऊ-एक जौबहारे नाज को ताके है फिर निगाह
वह नौबहारे नाज कि है जाने लखनऊ।
लखनऊ आकर वे बहुत ज्यादा शराब पीने लगे, जिससे उनकी हालात लगातार खराब होती गई। उनकी पीड़ा ,दर्द घुटन अकेलापन ऐसा था कि वे ज्यादातर खामोश रहते थे। शराब की लत उन्हें लग चुकी थी,जो उनके लिये जानलेवा साबित हुयी। 1940 से पहले नर्वस ब्रेकडाउन से लेकर 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन तक आते आते वे शारीरिक रूप से काफी अक्षम हो चुके थे। 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन के बाद वे जैसे-तैसे स्वस्थ हो ही रहे थे कि उनकी बहन साफिया का देहान्त हो गया यह सदमा उन्हें काफी भारी पडा़। 5 दिसम्बर 1955 को मजाज ने आखिरी सांस ली। महज 44 साल का यह कवि अपनी उम्र को चुनौती देते हुए बहुत बडी रचनाएं कह के दुनिया से विदा हुआ।
फैज उन्हें ‘क्रान्ति के गायक’ का खिताब देते हैं। उर्दू साहित्य के कीट्स माने जाने वाले मजाज़ को अदबी दुनिया का सलाम, जब तक उर्दू साहित्य रहेगा , मजाज़ उसी इज्ज़त -मोहब्बत के साथ गुनगुनाये जाते रहेंगे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने बहुत पहले कहा था कि वे क्रान्ति के ढिढो़रची की बजाय ‘क्रांति के गायक’ हैं। ब्लाग नजरिया से साभार