1908 में वे स्वदेश लौटे और गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में प्रोफ़ेसर नियुक्त हो गए। इस नौकरी के साथ वे वक़ालत भी कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से भी नवाज़ा था। ग़ौरतलब है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद इक़बाल ही वे दूसरे शख्स थे जिन्हें यह उपाधि मिली।
21 अप्रेल 1938 को यह महान कवि हमारे मध्य से चला गया। उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली की ‘जौहर’ पत्रिका के इक़बाल विशेषांक पर महात्मा गांधी का एक पत्र छपा था- ”….डॉ. इक़बाल मरहूम के बारे में क्या लिखूँ? लेकिन मैं इतना तो कह सकता हूँ कि जब उनकी मशहूर नज्म ‘हिन्दोस्तां हमारा’ पढ़ी तो मेरी दिल भर आया और मैंने बड़ोदा जेल में तो सैंकड़ों बार इस नज्म को गाया होगा….”इक़बाल की कृतियों में फारसी की रचनाओं के साथ-साथ, उर्दू की चार कृतियों बाँगे-दारा, बाले-जिब्रील, ज़र्बे-कलीम और अर्मुगाने-हिजाज़ के नाम भी सम्मिलित हैं। इक़बाल की नज्में और ग़ज़लियात हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता और भारतीय सांस्कृतिक बोध की गहरी छाप लिए हमारे बीच रहेंगी।
इनकी प्रमुख रचनाएं हैं: असरार-ए-ख़ुदी, रुमुज़-ए-बेख़ुदी और बंग-ए-दारा, जिसमें देशभक्तिपूर्ण तराना-ए-हिन्द (सारे जहाँ से अच्छा) शामिल है। फ़ारसी में लिखी इनकी शायरी ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ इन्हें इक़बाल-ए-लाहौर कहा जाता है। इन्होंने इस्लाम के धार्मिक और राजनैतिक दर्शन पर काफ़ी लिखा है।
भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले इक़बाल ने ही उठाया था। 1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद इन्होंने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया। इन्हें पाकिस्तान में राष्ट्रकवि माना जाता है। इन्हें अलामा इक़बाल , मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान, शायर-ए-मशरीक़ और हकीम-उल-उम्मत भी कहा जाता है।
स्रोत : इक़बाल की ज़िन्दगी और शाइरी; संपादक सुरेश साहिल; वाणी प्रकाशन; नई दिल्ली; 2006 संस्करण; पृष्ठ- 7-17