कृष्ण चन्दर’ यशस्वी कथाकार थे। वे हिन्दी और उर्दू के कहानीकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा 1969 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था। उन्होंने मुख्यतः उर्दू में लिखा, किन्तु स्वतंत्रता के बाद मुख्यतः हिन्दी में लिखा।
कृष्ण चन्दर’ का जन्म 23 नवम्बर 1914 को हुआ था। पूत के पांव पालने में ही दिख गए थे. स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही अपने मास्टर पर व्यंग्य लिखकर उन्होंने पिता की मार और कसम खाई कि अब ऐसा नहीं करना है. पर ऐसा नहीं हो पाया. पढ़ाई के बाद ऑल इंडिया रेड़ियो अब आकाशवाणी में नौकरी तो लगी पर जी नहीं. 1939 में शाया होने वाले कहानी-संग्रह ‘नज़ारे’ की भूमिका में कुछ यूं लिखा- “उस कृश्न चंदर की याद में, जिसे गुज़िश्ता नवम्बर की एक थकी और उदास शाम को ख़ुद इन हाथों ने गला घोंटकर हमेशा के लिए मौत के घाट उतार दिया”।
ख़ुशक़िस्मती कहिये वे ‘मरे’ नहीं, बस नीमजां (अधमरा) हुए और जल्द नौकरी छोड़ होशमंद कहलाए। इस दौरान ‘कृष्ण चन्दर ने कुछ नाटक, कहानियां और उपन्यास लिखे। ‘शिकस्त’ इस कड़ी में सबसे ऊपर रखा जा सकता है जिसने उन्हें मुख्तलिफ़ स्टाइल का क़िस्सागो के तौर पर मशहूर कर दिया। वैसे ‘कृष्ण चन्दर का अदबी सफ़र ‘जेहलम पर नाव में’ से शुरू होता है। इसमें किरदार दो औरतों- एक ख़ूबसूरत और एक बदसूरत- के साथ नाव में जेहलम नदी पार रहा है। कृश्न चंदर कहानी में कुंठा दिखाते वक़्त भी ईमानदार थे। वे लिखते हैं- ‘वह (ख़ूबसूरत लड़की) किसी बिछड़े प्रेमी की याद में रो रही थी। मैंने चाहा कि मैं गुलाब की नर्म नाज़ुक पंखुड़ियों से उसके आंसू पोंछ डालूं और उससे पूछूं, “बता हे सुंदरी! तुझे क्या ग़म है?” इसके बजाय मैंने उस बदसूरत औरत की निगाहें अपने चेहरे पर जमी हुई देखीं।
उपन्यास- एक गधे की आत्मकथा, एक वाइलिन समुन्दर के किनारे, एक गधा नेफ़ा में, तूफ़ान की कलीआं, कारनीवाल, एक गधे की वापसी, ग़द्दार, सपनों का कैदी, सफेद फूल, पिआस, यादों के चिनार, मिट्टी के सनम, रेत का महल, काग़ज़ की नाव, चांदी का घाव दिल, दौलत और दुनीआ, पिआसी धरती पिआसे लोक, पराजय।
कहानी संग्रह- नज्जारे, ज़िंदगी के मोड़ पर, टूटे हुए तारे, अन्नदाता, तीन गुंडे, समुन्दर दूर है, अजंता से आगे, हम वहशी हैं, मैं इंतजार करूंगा, दिल किसी का दोस्त्त नहीं, किताब का कफन, तलिस्मे खिआल, जामुन का पेड़।
कृष्ण चन्दर का निधन 8 मार्च 1977 को हुआ था। एजेन्सी।