Er S D Ojha –अंग्रेजी में इस पक्षी को कहते हैं । वैसे जंतु विज्ञान में इसे Dicrurus macrocercus कहते हैं । अपनी दबंगई छवि के चलते इसे हिंदी में कोतवाल कहते हैं । दबंगई ऐसी कि उसके आगे सलमान खां की दबंगई भी पानी भरने लगे । पास के घोंसले पर भी यदि कोई शिकारी पक्षी घात लगाता है तो यह पक्षी उस पर आक्रमण कर देता है । उसे मार मारकर वहां से भगा देता है । हांलाकि शिकारी पक्षी कौवा , चील व बाज बड़े व ताकतवर होते हैं ,पर कोतवाल में गजब की चुस्ती फुर्ती होती है । यह अचानक आक्रमण कर उन्हें पस्त कर देता है । इसकी चुस्ती फुर्ती की तुलना राणा प्रताप के घोड़े चेतक से की जा सकती है ।
कुछ डरपोक पक्षी इसके घोसले के पास अपना घोंसला बनाते हैं । घोंसला बनाकर वे ” बाबा मौज करेगा ” के अंदाज में बेफिक्र हो जाते हैं । कोतवाल पक्षी अपने घोंसले के साथ साथ उनके घोसलों की भी रखवाली करता है । कोतवाल के लिए ” सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया ” आदर्श वाक्य है । यह चील , कौवा व बाज आदि की आवाज की नकल भी कर लेता है । जब वह इन शिकारियों में से किसी एक को देखता है तो उसी के आवाज में बोलना शुरू कर देता है । शिकारी पक्षी वहां नहीं आता । जाहिर सी बात है बिरादरी में कोई लोचा नहीं चाहता ।
कोतवाल पक्षी का रंग कौवे जैसा काला व चमकदार होता है । इस कारण से चम्बल जैसे कुछ इलाकों में इसे भुजंगा भी कहते हैं । परंतु यह कौवे से ज्यादा चुस्त दुरुस्त व स्मार्ट होता है । अपनी पर आ जाय तो कौवे जैसे बड़े पक्षी को मार मारकर भर्ता बनाने की कूवत रखता है । कोतवाल पक्षी की अधिकतम लम्बाई 31 सेंटीमीटर होती है । इसकी पूंछ लम्बी होती है । इसकी चोंच सीधी व सुई की तरह तीक्ष्ण होती है । अगस्त का महीना इसके प्रजनन का समय होता है । नर और मादा में ऊपरी तौर पर कोई भेद नहीं नजर आता है । कोतवाल पक्षी पूरे भारत में , पाकिस्तान , अफगानिस्तान , बांगला देश , श्रीलंका और इण्डोनेशिया में बहुतायत में पाया जाता है ।
कोतवाल पक्षी किसानों का मित्र होता है । यह अनाज न खाकर किसानों के दुश्मन कीड़े मकोड़ों को खाता है । यह किसानों के घोर दुश्मन चूहों के नवजात शिशुओं को भी चट कर जाता है । बड़े चूहे को यह अपनी ताकत व औकात के हिसाब से मार नहीं सकता । इसलिए यह चूहों के नवजात शिशुओं को टारगेट करता है । इससे चूहों की वंश वृद्धि पर कुछ हद तक रोक लग जाती है ” न रहेगा बांस , न बजेगी बांसुरी ” की तर्ज पर । कोतवाल पक्षी की लगभग 23 किस्म की प्रजातियां होती हैं । ये कभी कभी तफरी के लिए शहरों की तरफ रूख करता है , लेकिन इन्हें शहरी आबोहवा रास नहीं आती । इसलिए ये पक्षी ” मेरो मन अनत कहां सुख पावे ” का गीत गाते हुए तफरी करने के पश्चात् देहात या जंगल की तरफ लौट जाते हैं ।
कोतवाल पक्षी को पूर्वांचल में चुचुहिया कहते हैं । इसकी अलसुबह उठने की आदत है । लगभग दो या तीन बजे सुबह उठकर हीं यह बोलना शुरू कर देती है । इसकी आवाज ऐसी निकलती है मानो कह रही हो – ठाकुर जी । गांव देहात के लोग इसे भजन के रूप में स्वीकार करते हैं । कुछ अंग्रेजी परस्त लोग इसे ” थैंक यू जी ” की तरह सुनते हैं । मानिए जो मन भावे । जाकी रही भावना जैसी , हरि मूरत देखी तिन तैसी । अधिकतर लोग “ठाकुर जी ” हीं सुनते और मानते हैं । कोतवाल पक्षी उर्फ चुचुहिया उजाला होने तक गाती है । उसके बाद अपने उदर पूर्ति जैसे महत्वपूर्ण काम में लग जाती है । जब सबके पास घड़ियां नहीं होती थीं तब लोग चुचुहिया के बोलने से समय का अंदाज लगाते थे । आज भी चुचुहिया पूर्वांचल की संस्कृति में अपना पैठ रखती है । लोकगीतों में चुचुहिया का हवाला देकर मां देवी को जगाया जाता है । गावेले चुचुहिया शोर हो गईल । जागीं मईया जागीं भोर हो गईल ।