पर्व और त्योहार सिर्फ उत्साह और उमंग का अवसर नहीं होते हैं बल्कि उनमें समाज की एकता और सद्भाव का संदेश भी छिपा होता है। समाज की मौलिक इकाई व्यक्ति माना जाता है लेकिन अब यह बात हम सभी की समझ में आ गयी कि व्यक्ति के साथ जैविक विविधता, वनस्पतियां, जल एवं वायु के प्रति भी हमारा घनिष्ठ रिश्ता है और इनका संरक्षण भी करना चाहिए। एक-दूसरे का संरक्षण हम तभी कर सकते हैं जब हम स्वार्थ को प्राथमिकता नहीं देंगे बल्कि दूसरे के लिए खुद के स्वार्थ का त्याग करेंगे। हमने इस प्रकार का त्याग जहां नहीं किया वहां पर गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। बढ़ती आबादी और अन्य जरूरतों के लिए हमने वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की है। इसके चलते भूजल का स्तर गिर रहा है, जलवायु में परिवर्तन आया है, बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। इसलिए त्याग की भावना होना बहुत जरूरी है। इस भावना के लिए सभी धर्मों के त्योहार भी शिक्षा देते हैं। मुस्लिम धर्म में ईद-उल-अजहा अर्थात बकरीद एक ऐसा ही त्योहार है जो कुर्बानी की शिक्षा देता है और खुदा के बताये रास्ते पर चलने के लिए त्याग को जरूरी बताता है। भारत में ईद-उल-अजहा को इबादत और कुर्बानी के साथ मनाया जाता है। इस दिन गैर मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग भी मुस्लिमों के घर जाकर उनके त्योहार में शामिल होते हैं। कुर्बानी के प्रतीक रूप में बकरे को काटा जाता है। लखनऊ के एक मुस्लिम धर्म गुरू ने इस बार बहुत अच्छी घोषणा की और कहा कि जिन पशुओं को काटे जाने पर प्रतिबंध है उनकी ईद-उल-अजहा पर कुर्बानी न दी जाए। ईद-उल-अजहा (बकरीद) (अरबी में जिसका मतलब कुर्बानी की ईद) इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक र्पमुख त्यौहार है। रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति के लगभग 70 दिनों बाद इसे मनाया जाता है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार हजरत इब्राहिम अपने पुत्र हजरत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा की राह में कुर्बान करने जा रहे थे, तो अल्लाह ने उसके पुत्र को जीवनदान दे दिया जिसकी याद में यह पर्व मनाया जाता है। इस शब्द का बकरों से कोई संबंध नहीं है, न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में बकरा का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिबह किया (काटा) जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में इसे बकरा ईद बोलते हैं। ईद-ए-कुर्बां का मतलब है बलिदान की भावना। अरबी में कर्ब नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं मतलब इस मौके पर भगवान इंसान के बहुत करीब हो जाता है। कुर्बानी उस पशु के जिबह करने को कहते हैं जिसे 10,11,12 या 13 जिलहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को खुश करने के लिए जिबिह किया जाता है। कुरान में लिखा है – हमने तुम्हें हौज-ए-कौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।
ऐसे मनाते हैं बकरीद
-सबसे पहले सब लोग नये कपड़े पहन कर ईदगाह में ईद-ए-सलत पेश करते हैं।
-ईद अल अजहा पूरे परिवार के साथ मनायी जाती है। इसके बाद सभी मिलकर भोजन करते है।
-परिवार के सभी लोग इस दिन नये-नये कपड़े पहनते है।
-कुर्बान किया जाने वाला जानवर देख परख कर पाला जाता है अर्थात उसके सारे अंग सही सलामत होने चाहिए। कुर्बानी का जानवर बीमार भी नहीं होना चाहिए।
-बकरे को कुर्बान करने के बाद उसके मांस का एक तिहाई हिस्सा खुद को, एक तिहाई घरवालों और दोस्तों को तथा शेष एक तिहाई गरीबों में बाँट देना चाहिए।
-अपने से छोटों को ईदी दी जाती है। इस अवसर पर एक दूसरे को गिफ्ट भी देना चाहिए।
ईद-उल-अजहा का त्योहार हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। पूरी दूनिया के मुसलमान इस महीने में मक्का सऊदी अरब में एकत्रित होकर हज मनाते है। ईद उल अजहा भी इसी दिन मनाई जाती है। वास्तव में यह हज की एक अंशीय अदायगी और मुसलमानों के भाव का दिन है। दुनिया भर के मुसलमानों का एक समूह मक्का में हज करता है वाकी मुसलमानों के अंतरराष्ट्रीय भाव का दिन बन जाता है। ईद उल अजहा का अक्षरश: अर्थ त्याग वाली ईद है। इस दिन जानवर की कुर्बानी देना एक र्पकार की प्रतीकात्मक कुर्बानी है। हज और उसके साथ जुड़ी हुई पद्धति हजरत इब्राहीम और उनके परिबार द्वारा किए गये कार्यो को प्रतीकात्मक तौर पर दोहराने का नाम है। हजरत इब्राहीम के परिवार में उनकी पत्नी हाजरा और पुत्र इस्माइल थे। मान्यता है कि हजरत इब्राहीम ने एक स्वप्न देखा था जिसमे बह अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी दे रहे थे हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने निकल पड़े। पुस्तको में आता है कि ईश्वर ने अपने फरिश्तो को भेजकर इस्माइल की जगह एक जानवर की कुर्बानी करने को कहा। दरअसल इब्राहीम से जो असल कुर्बानी मांगी गई थी वह थी उनकी खुद की जबकि उन्होंने अपने पुत्र इस्माइल और उनकी मां हाजरा को मक्का में बसाने का निर्णय लिया। लेकिन मक्का में उस समय रेगिस्तान के सिबा कुछ न था। उन्हे मक्का में बसाकर बे खुद मानव सेवा के लिए निकल गये। इस तरह एक रेगिस्तान में बसना उनकी और उनके पूरे परिवार की कुर्बानी थी जब इस्माइल बड़े हुए तो उधर से एक काफिला (कारबा) गुजरा और इस्माइल का विबाह उस काफिले (कारबा) में से एक युवती से करा दिया गया फिर र्पारंभ हुआ एक वंश जिसे इतिहास में इश्माइलिट्स, या वनु इस्माइल के नाम से जाना गया। हजरत मुहम्मद साहब का इसी वंश में जन्म हुआ था। ईद उल अजहा के दो संदेश है पहला परिवार के वड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए। (हिफी)