शकील अख्तर।
कांग्रेस की ताजा कवायद के दो पहलू थे। एक चिंतन मतलब की हाल के पांच राज्यों के चुनाव और जिनमें भी जीते माने जा रहे उत्तराखंड, पंजाब क्यों हारे, दूसरे नव संकल्प यानि नया नेतृत्व। राहुल गांधी के अध्यक्ष पद संभालने का साफ संदेश।
लेकिन इन दो स्पष्ट दिख रहे पहलुओं के अलावा एक छुपा हुआ पहलू भी था। तो क्या वह हासिल हुआ? शायद वही। सबसे ज्यादा। वह पहलू क्या था?वह था मन को बहलाना। प्रेम के साथ राजनीति में भी दिल को बहलाए रखने का काम खूब होता है। खासतौर से नाकाम प्रेमी यही करते हैं। थोड़ी सख्त भाषा में आंखों में धूल झौंकना। अपने ही कार्यकर्ताओं की।लेकिन अब इन सब का समय नहीं बचा है। कांग्रेस उस स्थिति में पहुंच गई है कि या तो पूनर्निर्माण, नव जागरण ( रेनसा) या टूट कर बिखर जाना। चिंतन शिविर की बात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद हड़बड़ी में बुलाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी ( सीडब्ल्यूसी) की बैठक में कही थी। नेतृत्व पर सवाल उठा रहे जी 23 के नेताओं को शांत करने के लिए बिना हार की प्रारंभिक जांच किए। सीडब्ल्यूसी कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई है। संवैधानिक बाडी। हार पर उसमें च्रर्चा होने से पहले हर राज्यों की अपनी पड़ताल होना चाहिए थी। कुछ मोटे कारण, चर्चा के बिन्दू सामने आना चाहिए थे। मगर वह सब जरूरी तथ्य रखना उनका विश्लेषण और फिर नतीजों पर पहुंचने की वैज्ञानिक पद्धति छोड़कर कांग्रेस ने बागियों को संतुष्ट करने के लिए नतीजों के तीसरे दिन ही सीडब्ल्यूसी बुला ली। एवं बागियों को और ज्यादा संतुष्ट करने के लिए चिंतन शिविर का भी ऐलान कर दिया।तो उदयपुर में चितंन शिविर भी हो गया। वह तो किसी समझदार आदमी ने इसके साथ नव संकल्प भी जोड़ दिया तो माहौल में थोड़ी ताजगी आ गई नहीं तो केवल चिंतन शिविर मुमुक्षु आश्रम जैसा ही भाव दे रहा था। मुमुक्षु आश्रम मतलब जहां मोक्ष के इन्ताजार में निष्कर्मता के साथ रहा जाए। समय बिताया जाए।
आठ साल पूरे हो गए मोदी सरकार को आए हुए। और कांग्रेस इस पूरे दौर में यही सोचती रही कि प्रधानमंत्री मोदी फेल होंगे और जनता उन्हें बुलाएगी कि आइए आप संभालिए। लेकिन कांग्रेस यह भूल गई कि वक्त बहुत बदल गया है। आज अगर किसी के असफल होने पर आप आओगे भी तो क्या कर लोगे?श्रीलंका में महिन्द्रा राजपक्षे की सरकार फेल हुई। वे भागे तो नए बने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को भी देश के नाम अपने पहले संबोधन में क्या कहना पड़ा? पेट्रोल खत्म। डालर नहीं। जरूरी दवाइयां नहीं। मतलब पूरी तरह बर्बादी। हमारा मीडिया इन खबरों को बहुत दबा कर छाप रहा है। टीवी दिखाई ही नहीं रहा। पता नहीं क्यों उन्हें क्या डर लग रहा है कि कहीं हमारी जनता इसे अपने आइने में नहीं देखने लगे।
खैर तो जैसा कांग्रेस सोचती रही कि भाजपा सरकार के फेल होने पर उसे बुलाया जाएगा। तो वह देख ले, समझ ले कि तब उसके पास करने को भी क्या होगा। ईश्वर न करे कोई ऐसा ही बयान!
कांग्रेस के पास अभी बहुत कुछ है। जैसा की राहुल ने उदयपुर में कहा कि जनता की आवाज उठाने के लिए कांग्रेस। भाजपा सरकार की जन विरोधी नीतियों से लड़ने के लिए कांग्रेस। और जो राहुल ने नहीं कहा। कांग्रेसियों को कहना चाहिए था कि इन सब के लिए राहुल गांधी।
राहुल गांधी जिस तरह सचिन तेंदुलकर बन रहे है कि कप्तानी को नहीं। केवल अपनी बेटिंग से टीम की मदद! वह क्रिकेट था और भी लोग थे। भारतीय टीम बिना अपने सबसे बड़े खिलाड़ी के कप्तान बने ही चल गई। मगर राजनीति नहीं चल सकती।
इसका एक ही उदाहरण देते हैं। कि अगर 2014 से पहले भाजपा नरेन्द्र मोदी को प्रमोट नहीं करती तो क्या 2014 के नतीजे वहीं होते? अगर आडवानी को 2009 की तरह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पेश किया जाता तो कांग्रेस की सीटें जो 200 से उपर थीं क्या 44 पर आ जातीं?भारत नायक की पूजा करने वाला देश है। एक आभामंडल के पीछे चलता है। चाहे वह असली हो या नकली। कांग्रेस को नेतृत्व का सवाल हल करना चाहिए था। जनता और खासतौर से कार्यकर्ताओं में तभी कोई चमक कौंधती। मगर वहां कांग्रेस तकनीकी मुद्दों में उलझ गई। भाजपा ने आरोप लगाया परिवार वाद का। प्रधनमंत्री मोदी देश की हर समस्या के लिए इसे ही जिम्मेदार बताने लगे। कांग्रेस इस जाल में उलझ गई। 8 साल का पहला चितंन और उसमें से निकला मीडिया का मनपसंद विषय। परिवारवाद। सारी बहस यहीं केन्द्रीत हो गई कि कांग्रेस ने माना कि उसके यहां परिवारवाद है। प्रियंका को बचाने के लिए पांच साल का नियम लाए।
कांग्रेस खुद बाल देती है भाजपा और मीडिया को खेलने के लिए। उनके अजेंडे में फंसती है। एक पद पर कोई पांच साल से ज्यादा नहीं रहेगा। यह सब विषय थे वहां प्रचारित करने के? वहां गए नेता जानना चाहते थे कि यह चिंतन शिविर पांच राज्यों के चुनाव की हार की पृष्ठभूमि में बुलाया गया है तो इस पर चर्चा हो। कमियों को समझा जाए और आगे आने वाले विधानसभाओं के चुनाव में इनसे कैसे बचा जाए पर बात हो। साथ ही जो नव संकल्प का जोश जोड़ा गया है। वह वास्तविक हो। नए नेता के साथ लोग एक संकल्प लें कि 2024 में अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बदलाव लाएंगे। देश को वापस नौकरी, रोजगार के पथ पर ले जाएंगे। मंदिर, मस्जिद , नफरत विभाजन के अंधे कुएं में जा रहे देश को फिर से शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रेम, सद्भाव के रास्ते पर लाएंगे। महंगाई को खत्म करेंगे। क्या ऐसा कोई बयान या भाषण आया कि सरकार में आने के साथ ही पेट्रोल, डीजल के दामों में उसी दिन इतनी कमी की जाएगी। रसोई गैस का सिलेंडर एक हजार में नहीं। इतने कम होकर इतने में मिलेगा। जनता यह सुनना चाहती थी।कांग्रेस करती है। करेगी। मगर सही समय पर कहना नहीं आता। कहती वह है जो उससे मीडिया कहलवाता है। एक तरफ शिविर में भी चिल्ला रही थी कि यह गोदी मीडिया है। यह हमें नहीं दिखा रहा। दूसरी तरफ उसी के मन मुताबिक खबरें पेश कर रही थी।कांग्रेस के सभी बड़े नेता वहां पर थे। करीब पांच सौ। सब देख रहे थे कि नेतृत्व क्या फैसला करता है। सब अपनी अपनी पोजिशन ले रहे थे। आगे क्या करना है।कांग्रेस यहीं मात खा जाती है। विकल्प ज्यादा दे देती है। क्या करना है यह इन्दिरा गांधी कभी सोचने ही नहीं देती थीं। वह सीधा रास्ता देती थीं कि इस पर चलना है। जो चल सकता है, चले। नहीं चल सकता हट जाए। दूसरों को रास्ता दे।सोनिया और राहुल 2011 से दुविधा में हैं। अन्ना हजारे को लाए जाने के बाद से। 2014 के बाद तो हताश ही हो गए। यह मौका था। एक नया जोश पैदा करने का। पार्टी में भी खुद में भी। जनता के सामने एकदम स्पष्ट जाना होगा। यह राहुल हैं। हमारे नेता। आपकी आवाज उठाने वाले। मोदी को लगातार चुनौती देने वाले। निर्भय।लेकिन कांग्रेस की दुविधा दूर ही नहीं हो रही है। 2014, 2019 के बाद 2024 आ गया। मोदी हैट्रिक की तैयारी में हैं। कांग्रेस अपना विकेट खाली छोड़े हुए है।