गामा पहलवान का वास्तविक नाम ग़ुलाम मुहम्मद बख्श था। दुनिया में अजेय गामा पहलवान । इन्होंने पत्थर के डम्बल से अपनी बॉडी बनाई थी। उस समय दुनिया में कुश्ती के मामले में अमेरिका के जैविस्को का बहुत नाम था। गामा ने इसे भी परास्त कर दिया था। पूरी दुनिया में गामा को कोई नहीं हरा सका, और उन्हें वर्ल्ड चैंपियन का ख़िताब मिला। भारत-पाक बटवारे के समय ही ये अपने परिवार के साथ लाहौर चले गए। मई 1960 को लाहौर में ही उनकी मृत्यु हो गई।
गुलाम मौहम्मद बख्श का जन्म 22 मई 1878 को अमृतसर के जब्बोवाल गाँव के एक कश्मीरी गुर्जर परिवार में हुआ । इनके परिवार में स्वयं ही विश्वप्रसिद्ध पहलवान हुए थे । गामा कि दो पत्नियां थीं ,एक पाकिस्तान में और दूसरी बड़ोदा गुजरात में । जब गामा छः साल के थे, तो उनके पिता मौहम्मद अज़ीज़ बख्श का निधन हो गया । उसके बाद उनके नानाजी नुन पहलवान ने उनका पालन किया । बाद में उनके निधन के बाद उनके मामाजी इड़ा पहलवान ने उनका पालन किया और उनकी ही देखरेख में गामा ने पहलवानी की शिक्षा प्रारंभ की।
गामा ने पहलवानी की शिक्षा अपने मामा इड़ा पहलवान से प्रारंभ की। आगे चलकर इनके अभ्यास में काफी बदलाव आए। जैसे कि, यूँ तो बाकी पहलवानों कि तरह उनका अभ्यास भी सामान्य ही था,परंतु इस सामान्यता में भी असामान्यता यह थी कि वे प्रत्येक मैच एक से नहीं बल्कि चालिस प्रतिद्वंदीयों के साथ एक-साथ लड़ते थे और उन्हें पराजित भी करते थे । गामा रोज़ तीस से पैंतालीस मिनट में, सौ किलो कि हस्ली पहन कर पाँच हजार बैठक लगाते थे, और उसी हस्ली को पहन कर उतने ही समय में तीन हजार दंड लगाते थे । वे रोज़ डेढ़ पौंड बादाम मिश्रण (बादाम पेस्ट) दस लीटर दूध मौसमी फलों के तीन टोकरे आधा लीटर घी दो देसी मटन 6 देसी चिकन 6 पौंड मक्खन फलों का रस एवं अन्य पौष्टिक खाद्य पदार्थ अपनी रोज़ कि खुराक के रुप में लिया करते थे ।
गामा ने अपने पहलवानी करियर के शुरुआत महज़ 10 वर्ष की आयु से की थी । 1888 में जब जोधपुर में भारतवर्ष के बड़े-बड़े नामी-गिरामी पहलवानों को बुलाया जा रहा था, तब उनमें से एक नाम गामा पहलवान का भी था । यह प्रतियोगिता अत्याधिक थकाने वाले व्यायाम की थी । लगभग 450 पहलवानों के बीच 10 वर्ष के गामा पहलवान प्रथम 15 में आए थे । इस पर जोधपुर के महाराज ने उस प्रतियोगिता का विजयी उन्हें ही घोषित किया । बाद में दतिया के महाराज ने उनका पालन पोषण आरंभ किया ।
गामा के करियर की असली शुरुआत 1895 से हुई जब गुजरांवाला के नामचीन पहलवान रहीम बख्श सुल्तानीवाला से उनका सामना हुआ । यह पहलवान मूल रूप में कश्मीर का रहने वाला था । इस द्वंद की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि एक तरफ रहीम बख्श सुल्तानीवाला जोकि एक अधेड़ उम्र का पहलवान था और जिसकी लंबाई तकरीबन 7 फीट की थी । और दूसरी ओर गामा पहलवान जिनकी उम्र 17 वर्ष की थी और ऊंचाई 5 फुट 7 इंच थी । एक ओर एक बहुत ही अनुभवी पहलवान रहीम बख्श सुल्तानीवाला जो कि लगभग अपने करियर के अंतिम चरण में था और दूसरी ओर एक बहुत ही नवयुवक जोशीला गामा पहलवान जिसने अभी-अभी ही पहलवानी शुरु की थी । इस द्वंद्व को बहुत चर्चा में लाया गया । इस द्वंद की उस समय अक्सर चर्चा होती थी । बड़े-बड़े लोग इस द्वंद को देखने के लिए आए थे । यह द्वंद बहुत समय तक चला । शुरुआत में तो गामा पहलवान रक्षणार्थ लड़ते रहे, परंतु दूसरी पाली में आक्रमणकारी हो गए । दोनों पहलवानों के बीच घमासान द्वंद्व हुआ । इस बीच गामा पहलवान की नाक,मुंह और सिर से खून बहने लगा । फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और वे लगातार लड़ते रहे । आखिर में यह मैच बराबरी पर रोक दिया गया । परंतु इसी द्वंद्व से गामा पहलवान का नाम पूरे देश में विख्यात हो गया ।
1910 तक गामा पहलवान ने एक रहीम बख्श सुल्तानीवाला को छोड़कर भारत वर्ष के लगभग सभी पहलवानों को पराजित कर दिया था । उन्होंने रुस्तम- ए-हिंद का खिताब भी हासिल किया । उसके बाद उन्होंने विश्व चैंपियनशिप पर अपना लक्ष्य साधा और अपने भाई इमाम बख्श के साथ लंदन की ओर चल पड़े ।
लंदन में होने वाले टूर्नामेंट से पहले गामा पहलवान के सामने एक और नई बाधा खड़ी हो गई, जब उन्हें केवल यह कहकर मना कर दिया कि उनकी लंबाई बहुत छोटी है । इस पर उन्होंने यह घोषणा कर दी वे केवल आधे घंटे के अंदर ही किन्ही तीन पहलवानों को जो कि किसी भी भार-वर्ग के हो, उन्हें हरा कर अखाड़े से फेंक सकते हैं । शुरू में तो सबको यही लगा कि यह एक अफ़वाह है और काफी समय तक कोई नहीं आया । परंतु बाद में गामा पहलवान ने एक और शर्त रखी जिसमें उन्होंने फ्रैंक गॉच और स्टैनिस्लॉस ज़ैविस्को को चुनौती दी, कि वे या तो उन्हें इस द्वंद्व में हरा देंगे अथवा स्वयं हारकर उल्टा उन्हें इनाम की राशि देकर वापस घर चले जाएंगे । इस पर सबसे पहले बेंजामिन रोलर नामक अमेरिकी पहलवान ने उनकी चुनौती स्वीकार की । परंतु गामा ने पहली पाली में ही उसे 1 मिनट 40 सेकंड में ही धरती से चिपका दिया और दूसरी पाली में 9 मिनट 10 सेकंड में ही उसे धराशाई कर दिया । अगले दिन गामा पहलवान ने 12 पहलवानों को मात दी और टूर्नामेंट में प्रवेश पाया ।
इन्हें विश्व-चैंपियन स्टैनिस्लॉस ज़ैविस्को के साथ हुए मैच के लिए बहुत जाना जाना जाता है । ज़ैविस्को के साथ इनका मैच 10 सितंबर 1910 निर्धारित हुआ था । ज़ैविस्को को तब विश्वप्रसिद्ध पहलवानों में था । उन्होंने गामा पहलवान कि यह चुनौती स्वीकार कर ली, जिन्हें फ्रैंक गॉच जैसा महान पहलवान भी हरा ना सका । जिस दिन गामा पहलवान और ज़़ैविस्को का मैच हुआ, वह दिन टूर्नामेंट के फाइनल्स का दिन था । इस मैच की इनाम- राशि थी ढाई सौ यूरो और जॉन बुल बेल्ट । केवल 1 मिनट के अंदर ही गामा पहलवान ने ज़़ैविस्को को धराशाई कर दिया, वह भी पूरे 2 घंटे और 35 मिनट के लिए ।कुछ समय के लिए ज़़ैविस्को उठता था, परंतु बाद में फिर उसी दशा में धराशाई कर दिया जाता था । उसने अपना रक्षणार्थ दांव लगाया जिससे कि वह गामा पहलवान इस शक्ति को रोक सके, परंतु अंत में यह 3 घंटे तक चलने वाला मैच बराबरी पर ही रोक दिया गया और इससे ज़ैविस्को के फैन बेहद निराश हुए । फिर भी ज़़ैविस्को का नाम उन पहलवानों में से लिया जाता है जो गामा पहलवान के द्वारा नहीं हराया जा सके । उन दोनों का एक और बार मैच होने वाला था जिसकी तिथि 17 सितंबर 1910 निर्धारित की गई थी परंतु ज़ैविस्को किसी कारणवश मैच में नहीं आ पाए ।इस कारण से गामा पहलवान को ही उस मैच का विजेता घोषित कर दिया गया और उन्हें इनाम राशि के साथ-साथ जॉन बुल बेल्ट के साथ भी सम्मानित किया गया । इस सम्मान के साथ ही उन्हें रुस्तम-ए-ज़माना के खिताब से भी नवाज़ा गया । परंतु इस सम्मान की खासियत यह थी कि इस मैच में उन्हें बिना लड़े ही विजय मिली ।
अपनी इस विजय यात्रा के दौरान गामा ने कई प्रसिद्ध और पहलवानों को हराया जैसे कि:-संयुक्त राज्य के डॉक्टर बेंजामिन रोलर स्विट्जरलैंड के मॉरिस डेरियस स्विट्जरलैंड के जॉन लेम
स्वीडन के जेस पीटरसन (विश्व चैंपियन) टैरो मियाके (जापानी जूडो चैंपियन) जॉर्ज हेकेनस्किमित संयुक्त राज्य के फ्रैंक गॉच । इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद ही गामा पहलवान का सामना रहीम बक्श सुल्तानी वाला से अलाहाबाद में हुआ । काफी देर तक चलने वाले इस द्वंद्व में अंततः गामा पहलवान को विजय प्राप्त हुई और साथ ही साथ रुस्तम-ए-हिंद का खिताब भी जीत लिया ।जीवन में बहुत समय बाद एक साक्षात्कार में जब उनसे यह पूछा गया कि गामा पहलवान को सबसे मुश्किल टक्कर किसने दी है तो उन्होंने कहा “रहीम बक्श सुल्तानीवाला” ।
रहीम बक्श सुल्तानीवाला पर विजय प्राप्त करने के बाद 1916 में गामा पहलवान ने पहलवान पंडित बिद्दु (जो कि उस समय भारत के जाने-माने पहलवानों में से एक थे) का सामना किया और उन पर विजय प्राप्त की । 1922 में वेल्स के राजकुमार भारत के दौरे पर आए और उन्होंने गामा पहलवान को चांदी की एक गदा भेंट की । जब 1927 तक गामा पहलवान को चुनौती देने वाला कोई भी पहलवान नहीं बचा तो यह घोषणा हुई की गामा और ज़ैविस्को फिर एक बार आमना- सामना करेंगे । उनकी मुलाकात 1928 में पटियाला में हुई । अखाड़े में आते ही ज़ैविस्को ने अपना सुदृढ़ शरीर और बड़ी-बड़ी मांसपेशियां दिखाई, परंतु गामा पहलवान पहले से काफी दुबले-पतले लग रहे थे । फिर भी गामा पहलवान ने केवल 1 मिनट में ही ज़ैविस्को को धराशाई कर दिया जिससे उन्हें भारतीय-विश्व स्तरीय कुश्ती प्रतियोगिता का विजयी घोषित कर दिया गया और ज़ैविस्को ने भी उन्हें बाघ कहकर संबोधित किया । जब तक गामा पहलवान 48 वर्ष के हुए तब तक वह भारत के महान पहलवानों में से एक गिने जाने लगे ।
ज़ैविस्को पर विजय प्राप्त करने के बाद गामा ने जेज़ पीटरसन पर 1929 को विजय प्राप्त की । यह द्वंद डेढ़ मिनट चला । यह अंतिम द्वंद था जो गामा ने अपने करियर में लड़ा । सन 1940 को हैदराबाद के निज़ाम ने गामा को निमंत्रण दिया जिसमें गामा ने सभी पहलवानों को हरा दिया । निज़ाम ने उसके बाद पहलवान बलराम हीरामण सिंह यादव को गामा से सामना करने के लिए भेजा, जोकि स्वयं कभी भी नहीं हारा था । यह द्वंद बहुत समय तक चला परंतु इसका कोई भी निष्कर्ष नहीं निकला । बलराम हीरामण सिंह यादव उन पहलवानों में से था जिनका सामना करना गामा के लिए भी बहुत मुश्किल था ।
भारत की स्वतंत्रता के बाद 1947 को गामा पहलवान पाकिस्तान चले गए । जिस समय हिंदू-मुसलमान भाई आपस में लड़ रहे थे, तब भीड़ से कितने ही हिंदू भाइयों को गामा ने बचाया था । 1952 तक गामा ने संन्यास ले लिया । संन्यास लेने के बाद उन्होंने अपने भतीजे भोलू पहलवान को पहलवानी सिखाई, जिन्होंने लगभग 20 साल तक पाकिस्तान में होने वाले सभी कुश्ती प्रतियोगिताओं में भाग लिया । गामा पहलवान की 100 किलो की हस्ली आज भी पटियाला के राष्ट्रीय खेल संस्थान में संभाल कर, सुरक्षित रूप से रखी हुई है । गामा पहलवान की मृत्यु 23 मई 1960 को लाहौर, पाकिस्तान में हुई । वे काफी समय से बीमार थे ।उनकी बीमारी का सारा खर्चा पाकिस्तान सरकार ने उठाया और उन्हें कुछ जमीनें भी दी थीं ।