जयंती / पुण्य तिथि पर विशेष।
एशिया महादीप में सर्वाधिक जाने वाले जासूसी उपन्यासकार, रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह इब्ने सफी ( असरार अहमद) की जयंती तथा पुण्यतिथि एक ही दिन(26-07-1928)(-26-07-1980) है। कला में स्नातक की उपाधि लेने के पश्चात् वे 1948 में नकहत प्रकाशन में कविता विभाग में एडिटर के रूप में अपने प्रथम कार्य में जुड़ गए. उस जमाने में बीए पास करना एक उपलब्धि हुआ करती थी (उन्होंने आगरा से बीए पास किया) शायद इसीलिए वो हमेशा ‘इब्ने सफी बीए’ लिखा करते थे. शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘असरार नारवी’, ‘सनकी सोल्जर’ और ‘तुगरल फुरगान’ नाम से भी उर्दू पत्रिका निकहत के लिए लिखा जो इलाहाबाद से निकलती थी.नकहत प्रकाशन की स्थापना 1948 में ही उनके घनिष्ठ मित्र और प्रेरणा स्त्रोत अब्बास हुसैनी जी ने की थी. इसी समय इब्ने सफी ने विविध विधाओं में अपने हुनर के साथ प्रयोग किया और प्रथम कहानी ‘फरार’ का प्रकाशन इसी वर्ष हुआ, परन्तु इब्ने सफी इससे संतुष्ट नहीं थे. फिर 1952 में वह दिन आया जिसने न केवल इब्ने सफी और नकहत प्रकाशन बल्कि संपूर्ण उर्दू उपन्यास जगत को बदल दिया. इब्ने सफी की सलाह पर अब्बास हुसैनी जी ने मासिक जासूसी उपन्यास के प्रकाशन की व्यवस्था की और मार्च 1952 में ‘जासूसी दुनिया’ का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ. असरार ने पहली बार इब्ने सफी नाम का प्रयोग किया और उनके प्रथम उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ ने जासूसी दुनिया (उर्दू) के प्रथम उपन्यास होने का गौरव प्राप्त किया. परन्तु इसी अगस्त 1952 में वे पाकिस्तान चले गए. पाकिस्तान जाने के बाद भी भारत में उनके उपन्यास के चाहने वालों से उनका साथ नहीं छूटा और उनके उपन्यास नकहत प्रकाशन के द्वारा निरंतर भारत में प्रकाशित किये जाते रहे. पाकिस्तान में रहते हुए कुछ ही सालों के दौरान वे भारतीय प्रायद्वीप में जासूसी लेखन का सबसे बड़ा नाम बन गए. तब उनके हर उपन्यास का पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी बेसब्री से इंतजार किया जाता था।
बाद में यह भी हुआ कि इब्ने सफी के उपन्यासों के मुरीद यूरोप में भी पैदा हो गए. यहां तक कि अंग्रेजी के साहित्यकार भी उनके नाम-काम से परिचित होने लगे. अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी का उनके बारे में कहना था, ‘मुझे भारतीय उपमहाद्वीप में लिखे जाने वाले जासूसी उपन्यासों के बारे में पता है. मैं उर्दू नहीं जानती लेकिन मुझे पता है कि वहां एक ही मौलिक लेखक है और वो है – इब्ने सफी.’ हालांकि इब्ने सफी अपने कुछ शुरुआती उपन्यासों को मौलिक नहीं मानते थे. उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे थे और खुद उनके मुताबिक इनमें से 8-10 की आत्मा (कहानी) यूरोपीय उपन्यासों से उधार ली गई थी लेकिन जिस्म देसी मिट्टी से बना था.उपन्यास मूलतः उर्दू में छपते थे जिनका हिंदी अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे. उन्होंने इब्ने सफी के जासूसों के नाम हिंदी पाठकों के लिए गढ़ लिए थे.कर्नल फरीद हिंदी में कर्नल विनोद हो गए और इमरान की जगह राजेश का बोलबाला हो गया. उनके एक और बहुत रोचक किरदार कैप्टन हमीद हिंदी में भी हमीद ही रहे. कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद की जोड़ी ने हिंदी पाठकों के दिल में वो जगह बनाई जो आज भी अमिट है।
भारत-पाक विभाजन की त्रासदी अपनी जगह लेकिन उन लाखों हिंदुस्तानियों में ये लेखक भी शामिल है जिन्हें सआदत हसन मंटो, जोश मलीहाबादी और इब्ने सफी का पकिस्तान जाना, निजी क्षति महसूस होती है.जासूसी या रहस्यमयी कथाओं की परंपरा हिंदुस्तान में भले ही न पनपी हो लेकिन अंग्रेजी और यूरोप की बहुत सी भाषाओँ में जासूसी उपन्यासों का एक लंबा इतिहास है. हमारे देश में सामाजिक, एतिहासिक और धार्मिक कथाओं का ही बोलबाला दिखाई देता है. वैसे जासूसी की बात छोड़ दीजिए, आज उपन्यास पढने-पढ़ने का रिवाज भी हमारे समाज में खत्म सा हो चला है.मनोरंजन के नाम पर पढने से ज्यादा देखने का प्रचलन है. प्रेम-सेक्स, सास-बहू और ननद-भाभी की साजिशें ही हमारी कहानियों का हिस्सा हैं या फिर एतिहासिक कथाएं. यह सारा का सारा मनोरंजन टीवी के परदे से होता हुआ हम तक पहुंच रहा है.ऐसे में बीते दिनों के उस मनोरंजन को सिर्फ याद कर के ही जो सिरहन सी दौड़ जाती है उसे आज की इंटरनेट पीढ़ी को बताना भी ऐसा है जैसे आप पत्थर से बात कर रहे हों. ऐसे में उस जासूसी दुनिया की बात करना, उस इब्ने सफी की बात करना जिसने 3 दशक तक अपने पाठकों के दिलों पर सिर्फ हुक्मरानी ही नहीं की बल्कि उनके बौद्धिक स्तर को भी उंचा किया.इब्ने सफी द्वारा लिखित इमरान सीरिज के उपन्यास ‘बेबाकों की तलाश’ पर आधारित ‘धमाका’ नामक फिल्म दिसम्बर 1974 में प्रदर्शित हुयी थी. यह उनके द्ववारा लिखी गयी एकमात्र फिल्म थी. इसमें इब्ने सफी ने अपनी आवाज़ दी थी.हाल ही में हार्पर कॉलिन्स ने उनकी 13 किताबें पुनर्प्रकाशित की हैं. इब्ने सफी चाहते थे कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और इस समय उनके उपन्यासों की तरफ पाठकों की बढ़ती रुचि उनके इसी सपने को असलियत में बदल रही है.उर्दू साथित्य में ‘जासूसी दुनिया’ और ‘इमरान सीरिज’ जैसे नगीने देने वाले सफी जी की मृत्यु उनकी जन्मदिवस के ही दिन 26 जुलाई , 1980 को लम्बी बीमारी के पश्चात हो गयी। साभार ।