– वीर विनोद छाबड़ा-हिंदी सिनेमा की हिस्ट्री जानकी दास मेहरा का नाम लिए बिना अधूरी है. वो एक्टर भी थे और प्रोडक्शन डिज़ाईनर भी. उन्होंने कैमरे का पीछे भी काम किया और डायरेक्टर का हाथ भी बंटाया. लेखन में उस्ताद रहे. अगर सिनेमा हिस्ट्री पर लिखी किसी किताब में जानकी दास का ज़िक्र नहीं होता तो लेखक की जानकारी पर संदेह किया जाता है. उनके लेख फ़िल्मी अख़बारों-रिसालों में छपते रहते थे जिसमें वो फ़िल्मी दुनिया के स्वर्ण युग की बात किया करते थे. जानकी दास मूलतः स्पोर्ट्समैन थे. वो 1934 से 1942 कई बार साइकिल रेस के वर्ल्ड चैंपियन रहे. 1936 में बर्लिन ओलिंपिक में भारत के साइकिल में प्रतिनिधित्व किया. कई इंटरनेशनल साइकिलिंग टूर्नामेंट्स में भी मुल्क को रिप्रेजेंट करते रहे. इंटरनेशनल ओलिंपिक कमिटी 1936 के सदस्य रहे. 1940 में उन्होंने साइकिलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया की स्थापना की. 1941 में लाहोर में बनी ‘खजांची’ में उन्हें एक ऐसे साइकिलिस्ट का रोल मिला जिसने तेज रफ़्तार से साइकिल दौड़ा कर उस परवाने को जेल पहुँचाया जिससे खजांची की जान बची.
शशिकांत किणीकर की किताब ‘मधुबाला, दर्दभरी जीवन कथा’ में जानकी दास का कई बार ज़िक्र मिलता है. बेबी मुमताज़ देहलवी को दिल्ली की बदबूदार झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती से उठा कर मधुबाला बनाने और फिर शिखर तक पहुंचाने के सफ़र में जानकी दास का अप्रत्यक्ष रूप से ज़बरदस्त रोल रहा है. वो उसे गोद में लेकर घूमे हैं. जब बेबी मुमताज़ ‘अछूत कन्या’ में प्रभावशाली डेब्यू के बाद काम न करने के कारण दिल्ली लौट आयी थी तो उसके बेचैन पिता अताउल्लाह खान उसे लेकर दिल्ली रेडियो स्टेशन पहुंचे जहाँ उन्हें प्रोग्रामर जानकी दास मिले. अताउल्लाह चाहते थे कि मुमताज़ को रेडियो स्टेशन पर गाने का मौका मिले ताकि दिल्ली वालों को उसके टैलेंटेड होने का अहसास हो और साथ ही साथ कुछ आमदनी हो जाए. जानकी दास फ़ौरन ही तैयार हो गए. गाना अताउल्लाह ने ही लिखा हुआ था. रेडियो पर जानकी दास के अंडर में उन दिनों सआदत हसन मंटो और कृष्ण चंदर जैसे नामी फ़नकार काम करते थे. उन्होंने गाना अप्रूव कर दिया और मुमताज़ की आवाज़ को भी. बाद में जानकी दास को व्ही शांताराम का मुंबई से बुलावा आ गया. नौकरी छोड़ने से पहले वो एक फिर मुमताज़ को तलाशते हुए दिल्ली की उस गन्दी बस्ती में पहुंचे जहाँ एक झोंपड़ी के बाहर लिखा था – ये किसी तवायफ़ का कोठा नहीं आर्टिस्ट मुमताज़ का घर है. बहरहाल जानकी दास ने मुमताज़ का एक और गाना रिकॉर्ड कर प्रसारित किया और मुंबई आकर शांताराम का राजकमल स्टूडियो ज्वाइन कर लिया. उन्होंने ‘डॉ कोटनिस की अमर कहानी’ में काम किया. वो डॉक्टरों के उस पैनल में थे जिसने चीन जाकर वहां फैली महामारी से जन-जीवन बचाने का प्रयास किया.
मुंबई में जानकी दास की एक बार फिर अताउल्लाह खान से मुलाक़ात हुई जो मुमताज़ को लेकर काम की तलाश में स्टूडियो दर स्टूडियो भटक रहे थे. जानकी दास ने उनकी बहुत मदद की. जब मुमताज़, बेबी से मधुबाला और फिर एडल्ट दिखने लगी तो जानकी दास ने उसके संग काम करने की ख्वाईश ज़ाहिर की जो ‘दौलत’ (1949) में पूरी हुई. अगले साल उन्हें मधुबाला के साथ एक बार फिर काम करने का मौका मिला – हँसते आंसू. इसमें उन्होंने एक कंजूस पति का किरदार किया था. इसकी ख़ासियत ये रही कि सेंसर ने इसे ‘एडल्ट’ सर्टिफिकेट दिया, इसलिए नहीं कि इसमें कोई सेक्स या हिंसा को बढ़ावा देने वाला सीन सीन था. बल्कि सेंसर को इसके शीर्षक पर ऐतराज़ था कि भला आंसू हंस कैसे सकते हैं?
जानकी दास ने मीना कुमारी और माला सिन्हा के कैरीयर का आगे बढ़ाने में मदद की. सुनील दत्त की ‘दर्द का रिश्ता’ बेबी खुशबू को दिलाने में मदद की जो अब एडल्ट होकर साउथ में पाला बदल सियासत कर रही है. इन सेवाओं के बदले में जानकी दास को फ़ायदा बस इतना होता था कि उन्हें कोई छोटा-मोटा रोल मिल जाता था. उनके रोल में कुछ संवाद की गुंजाईश भी रखी जाती थी. उन्होंने जो किरदार किये उनमें से ज़्यादातर कॉमिक विलेन टच के रहे. गोल गोल बटेरनुमा आँखें मटकाते हुए उँगलियाँ नचाते रहे. उनकी ये अदा हमने पहली बार प्रसाद प्रोडक्शन की ‘बेटी-बेटे’ (1964) में देखी थी. इसमें वो एक मुंशी के किरदार में थे और सहनायिका जमुना के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश करते हैं. इंडिया के फिल्म कॉमेडियन के बारे में संजीत नरवेकर ने एक किताब लिखी है – ईना मीना डीका. इसमें जानकी दास का की इस अदा का ज़िक्र करते हुए बताया गया है कि उन्होंने इसे इस क़दर परफेक्शन के साथ किया इतनी बार किया कि टाइपकास्ट हो गए.
बताया जाता है कि जानकी दास ने तीन सौ से ज़्यादा फ़िल्में की जिनमें वो कहीं वेटर हैं तो कहीं होटल मैनेजर. कभी दलाल हैं तो कभी छोटे-मोटे गुंडे-मवाली. कुछ लोग उनकी फिल्मों की संख्या हज़ार बताते हैं. उनकी कुछ मशहूर फ़िल्में हैं – रामबाण, बाबुल, कालापानी, आरज़ू, हरे कांच की चूड़ियां, पुष्पांजलि, सीता और गीता, देश-परदेस, खानदान, लीडर, बैराग, प्रेम बंधन, खंजर, कालापानी, साधु और शैतान, काला बाज़ार, विक्टोरिया नंबर 203, आनंद मठा, फुटपाथ, एक मुसाफिर एक हसीना, पत्थर के सनम आदि. उनके ताल्लुकात बड़े बड़े स्टार्स और प्रोडयूसर-डायरेक्टर्स से उन्हें थे. उनके लिए वो प्रोडक्शन डिज़ाइन का काम भी करते. सबको एक साथ एक वक़्त में एक छत के नीचे जमा कर लेते.हरेक से हमदर्दी, ये जानकी दास की एक ऐसी बड़ी ख़ासियत थी कि कोई उनका मुक़ाबला नहीं कर पाया. आर्टिस्ट हो या कोई तकनीशियन या फिल्म से जुड़ा कोई भी बंदा, उसके दुःख-सुख में सबसे पहले पहुँच जाते. ज़रूरत होती तो आर्थिक मदद दिलवाले. अस्पताल पहुंचा देते और उनकी भूमिका यहीं ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि डिस्चार्ज करा के घर भी छोड़ने का इंतज़ाम कर देते. उन्होंने कई किताबें भी लिखीं जिनमें से मशहूर रही – मिसडवैंचरस इन फिल्मलैंड एंड एक्टिंग फॉर बिगनर्स. सिनेमा जगत को उनकी सेवाओं के लिए इंडियन मोशन पिक्चर प्रोडक्शन एसोसिएशन (इम्पा) ने उन्हें 1996 में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया. फिल्म राइटर्स एसोसिएशन और सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन ने भी उनकी महती सेवाओं के खातिर सम्मानित किया. वास्तव में वो मल्टी टैलंटेड शख़्सियत थे.
एक बार उनकी स्थिति बड़ी हास्यास्पद हो गयी जब उन्होंने मांग की कि बैट्समैन को मेहनताना उनके द्वारा बनाये रनों के आधार पर देना चाहिए. यानी जिसके जितने ज़्यादा रन उतना ही ज़्यादा रुपया. रन गेट्टिंग मशीन सुनील गावस्कर से जब इस पर कमेंट्स पूछा गया तो उन्होंने दिलचस्प जवाब दिया – मैं जानकी नाम की किसी महिला को नहीं जानता.जानकी दास मेहरा ने लम्बी उम्र पाई. और आखिर तक एक्टिव रहे. 18 जून 2003 को जब उनका हार्ट फेल हुआ तो वो 93 साल के थे.